हाल ही में द ऑक्सफोर्ड पावर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनीशिएटिव (ओपीएचआई) ने दुनियाभर में गरीबी के स्तर पर रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट में वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक का इस्तेमाल किया गया। इसके जरिए स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवनस्तर की समीक्षा की गई है। सूचकांक के मुताबिक, एक गरीब व्यक्ति को बहुआयामी गरीब कहा गया है। रिपोर्ट में मध्यम और निम्न आय वर्ग के 103 देशों से आंकड़े जुटाए गए हैं। इनके मुताबिक, दुनियाभर के कुल गरीबों में 48 प्रतिशत बच्चे बहुआयामी गरीब हैं। भारत में ऐसे बच्चों का आंकड़ा 50 प्रतिशत है।
हम गरीबी के आंकड़ों को सामान्य नज़रिए से देखते हैं। बच्चों के कल्याण से जुड़े वैश्विक लक्ष्यों का बावजूद हम बाल गरीबी पर ध्यान नहीं देते। इन 103 देशों में बच्चों की आबादी का प्रतिशत 34 ही है। इसका मतलब यह भी है बच्चे वयस्कों से अधिक गरीब हैं। दक्षिण एशिया और अफ्रीका में गरीब बच्चों की तादाद अच्छी खासी है। बच्चा जितना छोटा है गरीबी का स्तर उतना व्यापक है। रिपोर्ट के अनुसार, 9 साल की उम्र तक के बच्चे सबसे ज्यादा गरीब हैं।
यह रिपोर्ट ऐसे देश के लिए आंख खोलने वाली है जहां बड़ी संख्या में गरीब हैं लेकिन गरीबी पर बात नहीं होती। ऐसा इसलिए भी है क्याेंकि यह गरीबी का आय आधारित साधारण आकलन नहीं है। स्वस्थ बच्चे को परिभाषित करने के लिए 10 संकेतकों का सहारा लिया जाता है, जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवनस्तर जिसमें पोषण और स्वच्छता शामिल है। बच्चे को बहुआयामी गरीब तब माना जाता है जब वह इन संकेतकों के एक तिहाई हिस्से से वंचित रहता है। गरीबी का यह आकलन मूलभूत मानव विकास की स्थितियों को दर्शाता है जिससे बच्चे गुजर रहे हैं।
आधे बच्चों का इस सर्वेक्षण में गरीब होना बताता है कि वे मूलभूत मानव विकास की जरूरतों से वंचित हैं। यह सर्वेक्षण यह भी बताता है कि बच्चों को केंद्र में रखकर चलाए जा रहे तमाम सरकारी कार्यक्रम असफल हो चुके हैं। भारत में विभिन्न विकास कार्यक्रमों के जरिए बच्चों को सुरक्षा प्रदान करने की कोशिश होती है। अधिकांश कार्यक्रम बच्चों का कुपोषण से बचाने और खाद्य सुरक्षा देने के मकसद से चलाए जा रहे हैं। इतना सब कुछ होने के बाद भी हम असफल क्यों हुए? ओपीएचआई के अध्ययन में राज्यवार आंकड़ों का विश्लेषण नहीं किया गया है। लेकिन अगर हम भारत में गरीबी की भौगोलिक स्थिति को देखें तो ऐसे अधिकांश बच्चे झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मिलेंगे। और ये बच्चे इन राज्यों के वंचित तबकों यानि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के परिवारों में होंगे। ये ऐसे राज्य हैं जो वन और जल संसाधन के मामले में काफी सम्पन्न हैं।
कुछ साल पहले द क्रोनिक पावर्टी रिसर्च सेंटर ने प्रकाशनों की एक श्रृंखला के माध्यम से बताया था कि आखिर सालों से चल रहे तमाम विकास कार्यक्रमों के बाद भी भारत के कुछ क्षेत्र पिछड़े हुए क्यों हैं? रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया था कि स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच और उनका इस्तेमाल तय करते हैं कि शख्स गरीब रहेगा या गरीबी के जाल से निकलेगा। एक रिसर्च पेपर में बताया गया कि वनों के पास रहने वाले जन्मजात गरीब होते हैं। इसमें यह भी कहा गया कि प्रबल संभावना है कि ऐसे लोग गरीबी को अगली पीढ़ी में स्थानांतरित कर दें। ऐसे में क्या कहा जा सकता है कि आज के गरीब बच्चे वही अगली पीढ़ी हैं जिसका उल्लेख अध्ययन में किया गया है?
अगर हां तो विकास कार्यक्रमों की संरचना में भारी बदलाव की जरूरत है। बच्चों के लिए चल रहे हमारे कार्यक्रम अस्थायी सोच वाले हैं। इनसे गरीबी की समस्या का निदान नहीं हो सकता। इनका ध्यान केवल अल्पकाल के लिए चंद सुविधाएं मुहैया कराना भर है। इसीलिए बच्चा पूरक पोषक तत्त्व तो ले लेता है लेकिन भोजन की उन समग्र जरूरतों से वंचित रहता है जिनके लिए कभी वह वनों पर निर्भर था। इस समस्या के निदान की जरूरत है। सरकारों को वन कानून में बदलाव लाना होगा। साथ ही जन वितरण प्रणाली तंत्र को भी सुधारने की जरूरत है। इसके अलावा गरीबी को राष्ट्रीय चुनौती के तौर पर देखना होगा।