राजकाज

लोकतंत्र की हत्या कर सत्ता पर काबिज रहने की जुगत

बिहार में ग्राम पंचायत स्तर पर अगड़ी जाति के पुरुष सत्ता बचाने के लिए दलित महिलाओं से शादी कर रहे हैं। क्या इसे लोकतंत्र के बाईपास का संकेत मानें

Anil Ashwani Sharma, Ishani Kasera

क्या बिहार में अगड़ी जाति के मुखिया अपना राजनीतिक वजूद बचाने के लिए दलित महिला से ब्याह रचा रहे हैं? अविश्वसनीय सी लगने वाली यह बात बिहार के उत्तर व दक्षिण क्षेत्र के आधा दर्जन से अधिक जिलों में अब हकीकत का रूप ले चुकी है। मैंने जब अपनी फोटो पत्रकार साथी के साथ इस प्रकार की घटनाओं की हकीकत जानने के िलए पटना से यात्रा शुरू की तो हम ऐसी घटनाओं को अपवाद मानकर चल कर रहे थे। लेकिन जब भागलपुर के नौगछिया ब्लॉक पहुंचे तो यह जानकर दंग रह गए कि यह अपवाद नहीं है। यहां के स्थानीय लोग इसे सामान्य घटना करार दे रहे हैं। अकेले इस ब्लॉक में आधे दर्जन से अधिक ग्राम पंचायतों में इस प्रकार के मामले सामने आए हैं। इसकी भनक राज्य सरकार, प्रशासन, बुद्धिजीवी और यहां तक कि सामाजिक संगठनों को भी नहीं लगी है।

राज्य के गामीण विकास मंत्री श्रवण कुमार से जब इस संबंध में पूछा गया तो उन्होंने सीधे कहा, “ऐसा मैं पहली बार सुन रहा हूं। इस संबंध में कोई भी सूचना मेरे पास अब तक नहीं है। यदि ऐसा कुछ हो रहा है तो हम देखेंगे।” अकेले मंत्री ही नहीं महिला आयोग की वर्तमान सदस्य उषा विद्यार्थी ने भी इस संबंध में मंत्री जी वाले सुर में ही अनभिज्ञता जाहिर की। उन्होंने कहा कि उन्हें अब तक इस तरह के मामले की कोई जानकारी नहीं है। हां, यदि यह सच है और ऐसा कोई मामला हमारे संज्ञान में लाया जाता है तो हम अवश्य इस पर ध्यान देंगे। हालांकि वह यह कहने से नहीं चूकीं कि मामला काफी गंभीर है।

इसके ठीक उलट अमरपुर गांव निवासी स्थानीय ग्रामीण और आसपास के गांव के सामाजिक कार्यकर्ता इस प्रकार की घटना का होना आम बता रहे थे। अमरपुर गांव के शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता शंभु कुमार ने बताया, “पंचायतों पर नियंत्रण रखने के लिए कई उच्च जाति के पुरुष दलित महिलाओं से शादी कर रहे हैं, जो कि सुरक्षित सीट होने के कारण पंचायत प्रमुख हैं। इसे मैं कायदे से लोकतंत्र के बाईपास का संकेत की तरह मानता हूं।” उन्होंने इसे सीधे-सीधे प्रजातंत्र की हत्या भी करार दिया और कहा कि इस प्रकार की हत्याएं बिना किसी शोर-शराबे के दबे पांव की जा रही है। इसका इल्म किसी को नहीं है। 

वहीं गांव के दूसरे छोर पर स्थित एक दूसरे घर के प्रमुख 80 वर्षीय मसेंदु देव कुंवर से जब इस प्रकार की घटना की असलियत जाननी चाही तो वह बोले, “इस प्रकार की शादी में एक नई बात और सामने आई कि यहां पर यह काम अगड़ी जाति के लोग ही नहीं कर रहे बल्कि कई बार पिछड़ी जाति के लोग भी इसमें शामिल हैं। इसी गांव के पिछड़े वर्ग के मुखिया ने दलित महिला से शादी कर अपने मुखिया के प्रभुत्व को बचाया है।” वह कहते हैं, यहां यह देखना भी जरूरी है कि पैसा और बाहुबल यदि अन्य जातियों के पास भी आ जाता है तो वह भी इस काम को करने से पीछे नहीं रहते। इसी गांव की सामाजिक कार्यकर्ता प्रभा देवी कहती हैं, “देखिए पिछड़ी जाति की महिला के साथ शादी करके अपने वर्चस्व को बनाए रखना अब इस इलाके में बहुत बड़ी बात नहीं रह गई है। हालांकि वह अब भी आपसे सीधे-सीधे बात करने से कतराएंगे। क्योंकि उन्हें कहीं न कहीं तो मन में यह अपराध बोध है ही।”

प्रभा देवी की बात से ही अहसास होता है कि इस प्रकार के कृत्य करने वाले क्या सचमुच में अपराध बोध से ग्रस्त हैं? या कोई और कारण है जिसके चलते वे बात नहीं करना चाहते हैं। डाउन टू अर्थ ने ऐसे कृत्य करने वाले लोगों से सीधे तौर पर भी संपर्क करने की कोशिश की और स्थानीय ग्रामीणों के माध्यम से बात करने का भरसक प्रयत्न किया गया लेकिन वे सामने आने में कतराते रहे।

हालांकि जब हमने दूसरी ग्राम पंचायत की ओर जाने के लिए रुख किया तो अब तक सुबह से शाम होने तक इस प्रकार की घटनाओं को बढ़चढ़ कर बताने वाले अमरपुर के कई ग्रामीण युवाओं ने यहां तक सुझाव दे डाला कि अब आप इस बात को बहुत अधिक न उछालें तो अच्छा है, नहीं तो हमारे गांव का सामाजिक तानाबाना ही बिगड़ जाएगा। ग्रामीणों को आशंका थी कि अब इस प्रकार के मामले को और उछाला गया तो हमारे गांव में परेशानी बढ़ जाएगी। हालांकि ग्रामीणों की बात पर बिहार महिला संगठन की अध्यक्ष व पटना वाणिज्यिक कॉलेज की सेवानिवृत्त प्राध्यापिका सुशीला सहाय कटाक्ष करते हुई कहती हैं, इस प्रकार की घटना के बाद गांव का तानाबाना बचा कितना है कि वह और खराब हो जाएगा। उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया कि इस प्रकार की वीभत्स बातें तो वे पिछले कई सालों से सुनती आ रही हूं, लेकिन आपने तो मेरी बात ही मुझे ही बता दी। वह कहती हैं, “खामोशी इस प्रकार के कृत्य का एक करारनामा ही है।”

शाम ढलते ही जब हम इस गांव से लगभग पांच किलोमीटर दूर स्थित दूसरी ग्राम पंचायत पहंुचे तो बड़ी संख्या में ग्रामीण कड़कड़ाती ठंड में खुले आसमान के नीचे गांव की चौपाल पर अलाव जलाकर तापते नजर आए। उनकी शारीरिक भाषा यह संकेत कर रही थी कि वे इस विषय पर बात करने के िलए उतावले हैं। जब हमने अपनी जिज्ञासा बताई तो ग्रामीणों ने समवेत स्वर में कहा, यह कहानी अकेले इस गांव की ही नहीं है। इस प्रकार की घटनाएं तो कई और ग्राम पंचायतों में भी हुई हैं। अमरपुर के साथ बिहपुर, सैदपुर, लतीफपुर सहित आधे दर्जन से अधिक गांवों में पिछले कुछ सालों से ऐसा कुछ घट रहा है, जिसकी भनक आप जैसे बाहरी लोगों को न के बराबर है।

इस ग्राम पंचायत का नाम बभनगामा है। गांव के सामाजिक कार्यकर्ता निरंजन चौधरी ने बताया कि इस प्रकार की घटनाओं की सबसे बड़ी वजह यह है कि जब से बिहार के पंचायती राज में (2006) में 50 फीसदी आरक्षण महिलाओं के लिए लागू हुआ तब से ऊंची जाति के लोगों को अपना साम्राज्य ढहता नजर आया और उन्होंने इसकी काट के िलए यह घिनौना तरीका अख्तियार किया। वह बताते हैं कि ऊंची जाति के लोग बकायदा एक सुनियोजित और सोच समझकर निम्न वर्ग की महिला से शादी करते हैं और अपनी स्थिति को अगले पांच सालों तक बनाए रखने में सफल होते हैं। यह तो संविधान का माखौल उड़ाने जैसा जघन्य अपराध है।



पहला राज्य

राज्य में यह स्थिति तब है जब बिहार देश का पहला ऐसा राज्य था जहां, पंचायत में 50 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित की गईं हैं। नवादा जिले के लोहारपुरा पंचायत से चुनी गई मुखिया बीना देवी ने कहा था, “पंचायत राज वास्तव में महिला नेताओं को तैयार करने की एक नर्सरी है और महिलाएं वास्तव में पुरुषों की तरह ही सक्षम नेतृत्व प्रदान कर सकती हैं।” लेकिन इस नर्सरी को ही अब कुचलने के लिए बाहुबली जमीन पर उतर आए हैं। इस प्रकार की घटना पर बिहार राज्य महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष अंजुम आरा ने कहा, “यह मेरे लिए चौंकाने वाली बात है। सरकारी एजेंसियों को इस पर ध्यान देना चाहिए।”

राज्य में अपना राजनीतिक वर्चस्व कायम रखने के लिए पूर्व मेें भी रसूखदार अपने घर के नौकर-चाकरों को पंचायत चुनाव में खड़ा कर अपनी स्थिति को मजबूत कर लेते थे। अब ऐसा क्यों नहीं कर रहे हैं? चौपाल की खटिया पर बैठे चौधरी बताते हैं, महिलाओं को ही प्राथमिकता देने का एक बड़ा कारण यह था कि ऊंची जाति के लोग पहले अपने नौकर-चाकरों (पिछड़ी जाति) को सीट सुरक्षित घोषित होने पर खड़ा कर देते थे लेकिन कई बार हुआ ये कि जैसे ही नौकर अपने अधिकारों से जागरूक हो जाता, वह उनसे छिटक जाता था। ऐसे में वह पंचायत उनके हाथ से निकल जाती थी। वह एक उदाहरण देेते हुए बताते हैं कि पास सैदपुर गांव में गुड्डु मुखिया ने अपने नौकर मंडल को मुखिया बना दिया लेकिन दो-तीन साल बाद वह अपने पद के अधिकारों से वाकिफ हुआ तो उसने विरोध शुरू किया। हालांकि उसे इसका बुरा परिणाम भुगतना पड़ा। इस प्रकार की कई घटनाओं के बाद ही ऊंची जाति के लोगों ने एक नया पैंतरा निकाला, जिससे उन्हें भविष्य में इस प्रकार की घटनाओं से दो-चार न होना पड़े। यह नया पैंतरा था नीची जाति की महिला के साथ शादी कर लो। यह सबसे सुरक्षित और आसान तरीका है। यही कारण है कि अब इस प्रकार की गतिविधियों धीरे-धीरे ही सही, लेकिन राज्य में बढ़ रही हैं।

महिला को सुरक्षित मानकर ही क्यों इस प्रकार की घटनाएं हो रही हैं? इसके पीछे का कारण बताते हुए तेलगी ग्राम पंचायत के बुजुर्ग राजेंद्र सिंह बताते हैं, अक्सर हम यह देखते हैं कि ग्रामीण इलाके में अपना राजनीतिक भविष्य बचाने के लिए ऐसी प्रक्रिया अपनाई जाती है। अगर वे उस जाति विशेष से न भी हों तो उसके साथ इस प्रकार का संबंध या शादी के लिए एक संबंध विकसित किया जाता है जो उस जाति विशेष लिए आरक्षित होती है। यदि इसमें यह सीट महिला के लिए आरक्षित हो जाए तो और वहां शादी का संबंध दिखाना और आसान व सुरक्षित होता है।

हालांकि इस प्रकार की बातों से राज्य सरकार द्वारा महिला सशक्तिकरण की बात बेमानी सािबत हो रही है। वास्तव में यह प्रजातंत्र पर सीधे कुठाराघात है। यह आरक्षण की अवमानना है क्योंकि महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण मिला है, ऐसे में इस प्रकार के कुकृत्य उसकी स्थिति को नकार दे रहे हैं। इस संबंध में शंभु कुमार सवाल करते हैं, चुनी गई महिला की सोच क्या है, वह क्या करना चाहती है, इसके बारे में कोई जानकारी ही नहीं हो पाती है। क्योंकि वह चुनकर भी आम लोगों के बीच नहीं आ पाती।

यह राज्य प्रगतिशील नहीं है बल्कि एक प्रतिगामी राज्य है। यहां महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण मिला, इसका पूरा लाभ महिलाओं को नहीं मिल पा रहा है। यहां की राजनीति के शुरुआती चरण में बड़ी संख्या में महिलाएं थीं लेकिन उन्होंने महिलाओं को सबल बनाने की कोई ठोस नीति नहीं बनाई। इसका नतीजा है कि यहां महिलाओं की हैसियत गौण होती गई। उनकी हैसियत केवल अपने बाहुबली पिता, भाई, पति के दम पर ही कायम है। यह बहुत ही सामंती मिजाज का राज्य है। इस संबंध में उत्तर बिहार के पूर्णिया जिले सहित आधा दर्जन जिलों में भूमि सुधार के लिए काम करने वाले भूमि सुधार कार्यकर्ता रंजीव बताते हैं कि इस प्रकार की घटनाओं के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि यहां भूमि सुधार चालू हुआ और इसके कारण भी बड़े भूमि मालिकों ने इस प्रकार की शादी कर अपनी जमीन बचाने की कोशिश की है। राज्य के पूर्णिया जिले के कई ब्लॉकों में इस प्रकार की असंख्य घटनाएं पिछले कई सालों से हो रही हैं।



सांस्कृतिक झटका

इस प्रकार की घटनाओं के बढ़ने के संबंध में पटना के वरिष्ठ पत्रकार इमरान खान कहते हैं, “यह कई लोगों के लिए अविश्वसनीय होने के अलावा बिहार और बाहर के लोगों के लिए (मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों में) एक सांस्कृतिक झटका है।” वह बताते हैं कि शक्तिशाली उच्च जाति के पुरुषों ने पंचायती राज संस्थानों में अपने सत्ता समीकरण का प्रबंधन करने के लिए इस कुकृत्य का सहारा लिया है। ऐसा इसलिए किया गया है ताकि महिलाओं, दलितों एवं अति पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों को आरक्षण होने के बावजूद उच्च जाति के पुरुषों का चुनाव सुनिश्चित किया जा सके।

जाति व्यवस्था की गिरफ्त में फंसी बिहार की राजनीति में पंचायती संस्था संसद या राज्य विधानसभा से किसी मामले में कमतर नहीं होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में जातीय वर्चस्व के आधार पर विकास और निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने के हिसाब से महत्वपूर्ण है। यह सच है कि बिहार उन कुछ राज्यों में से एक है, जिन्होंने एक दशक तक 10 प्रतिशत की वृद्धि दर दर्ज की है।

इस प्रकार की घटनाओं का होना अचानक नहीं हुआ है। इसके विगत में कई कारण अहम हैं। इस संबंध में एएन सिन्हा शोध संस्थान के पूर्व निदेशक डीएन दिवाकर ने डाउन टू अर्थ को बताया कि बिहार में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण पंचायती राज में लागू हो जाना सीधे पुरुष सत्ता पर करारी चोट थी। यह शादी वाला मामला भी इसी की एक कड़ी के रूप में देखा व समझा जा सकता है।

महिला कल कहां थीं और अब कहां है? एक दौर था जब महिलाओं के हाथों में ही सब कुछ था। लेकिन ऐसा समविभाजन हुआ कि महिलाओं को खेती से अलग किया गया। दूसरे समविभाजन में पशुपालन से अलग किया गया। इस प्रकार से महिलाओं को एक उत्पादक इकाई के रूप में घर में कैद करके रख दिया गया। उत्पादन पर उनकी पकड़ थी, लेकिन उससे हटा दिया गया। उसे हथियार विहीन बना दिया गया। धीरे-धीरे महिलाओं की पढ़ाई का स्तर बढ़ा। भारत में आजादी के बाद महिलाओं को बराबरी का दर्जा संविधान द्वारा प्रदत्त किया गया। ऐसे में दिवाकर ने सवाल उठाया कि कानून में तो अधिकार मिल गया लेकिन समाज तो बंटा हुआ है। इसके अलावा एक और कारण था पंचायती राज संस्था की बढ़ती शक्ति।

राज्य सरकार प्रतिवर्ष एक ग्राम पंचायत को लगभग तीन दर्जन विकास योजनाओं को पूरा करने के लिए लगभग एक करोड़ से ऊपर का बजट स्वीकृत करती है। 14वें वित्त आयोग ने चालू वित्तवर्ष (2018-19) के लिए बिहार की ग्राम पंचायतों के लिए 4,200 करोड़ रुपए की सिफारिश की है। यह बजट गतवर्ष (2017-18) के बजट मुकाबले 569.31 करोड़ अधिक है। सांसद, विधायक और सबसे आखिरी पायदान पर निर्वाचित मुखिया के पास इतनी राजस्व शक्ति है कि ऊंचे तबके के लोग इस पर काबिज होने के लिए किसी भी हद को पार करने से गुरेज नहीं करते। इस संबंध में तेलगी गांव के अमीन संजीव सिंह कहते हैं कि आखिर यह राशि कोई लाख-दो लाख की नहीं होती है। 2015 से 2020 तक के बजट पर एक नजर डालें तो पता चलेगा राज्य को पंाच सालों में पंचायतों के िवकास कार्यक्रमों के लिए कुल बजट 18,916.05 करोड़ रुपए का है। इस बड़ी धन राशि पर गिद्ध नजर हर बाहुबली की होती है।

ग्रामीण बिहार में शक्तिशाली और प्रमुख जातियां यह अच्छी तरह से समझती हैं कि केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित विकास योजनाओं के साथ-साथ राज्य सरकार की योजनाओं को पंचायत में मुखिया द्वारा कार्यान्वित किया जाता है। पंचायत में मुखिया के अधीन शिक्षक नियोजन, सोलर लाइटें लगाने की योजना, मनरेगा, इंदिरा आवास, वृद्धा पेंशन, बाढ़-सूखा से बर्बाद हुई फसल के मुआवजे की राशि, कबीर अंत्येष्टि योजना की राशि, छात्रवृत्ति की राशि का वितरण करने समेत ग्रामीण विकास से जुड़ी लगभग तीन दर्जन से अधिक योजनाएं हैं। ऐसे में एक निम्न जाति की महिला से विवाह करना और फिर मुखिया के रूप में उसका निर्वाचन कराना, शक्तिशाली जाति के पुरुषों के लिए वरदान साबित हुआ है। तभी तो राजेंद्र सिंह कहते हैं, “यह वर्चस्व बनाए रखने के पुरानी युग की रणनीति का ही एक एक्सटेंशन मात्र है।”



ग्राम स्तर पर मुखिया शक्ति का प्रतीक बन गए हैं। अधिकांश धनराशि का अनुमोदन मुखिया द्वारा ही होता है और स्थानीय सरकार के संसाधनों को नियंत्रित करने के लिए मुखिया सबसे शक्तिशाली जन प्रतिनिधि है। इस संबंध में महिलाओं का पक्ष रखते हुए स्वतंत्रता सेनानी बिमला देवी ने बताया, कोई संदेह नहीं है कि यह नई प्रवृत्ति निश्चित रूप से बढ़ सकती है। लेकिन, निचली जाति के लोगों द्वारा इस तरह की चीजों का विरोध किए जाने की संभावनाएं भी बढ़ी हैं क्योंकि वे चारदीवारी के अंदर रहते हुए भी अपनी राजनीतिक शक्ति के प्रति धीरे-धीरे जागरूक हो रही हैं।

इस प्रकार की घटनाओं से पंचायत राज व्यवस्था कमजोर हो रही है, लेकिन यह कमजोर होने की प्रक्रिया कोई आजकल में नहीं हुई।

कालजयी उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद की 1916 में लिखी “पंच परमेश्वर” नामक कहानी पंचायत की शक्ति को दर्शाती है। यह भी बताती है कि पंचायत व्यवस्था कितनी सुदृढ़ थी। लेकिन इस सुदृढ़ता को ब्रिटिश राज ने तोड़ने की भरसक कोशिश की। इस संबंध में तेलगी गांव के इतिहासकार मनोज कुमार बताते हैं,अंग्रेज पंचायती राज में दखलंदाजी करने से बाज नहीं आए। उनकी दखलंदाजी इतनी बढ़ गई कि 1786 में ब्रिटिश संसद में इसके ही सदस्य लार्ड वर्क उस समय भारत के गर्वनर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के विरुद्ध भारत में गांव की व्यवस्था तोड़ने का महाभियोग प्रस्ताव तक ले आए।

आगे चलकर इसी गांव स्तर की पंचायत व्यवस्था के विषय में तत्कलीन गर्वनर जनरल मेटकॉफ ने 1830 में ब्रिटिश संसद को भेजी रिपोर्ट लिखा था, “ग्राम समुदाय छोटे-छोटे गणराज्य हैं, जो अपने लिए सभी आवश्यक सामग्री की व्यवस्था कर लेते हैं। ये सभी प्रकार के बाहरी दबावों से मुक्त हैं। इनके अधिकारों व प्रबंधों पर कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ। एक के बाद एक साम्राज्य आते गए, क्रांतियां व परिवर्तन हुए पर, ग्राम समुदाय की व्यवस्था उसी तरह सुदृढ़ बनी रही।” यह सब इसलिए किया गया क्योंकि अंग्रेजों को हर स्थिति में पंचायतों की नकेल अपने हाथ में रखनी थी। इसीलिए सिंह कहते हैं, यही काम अब बाहुबली व ऊंचे तबके के लोग बिहार में कर रहे हैं। इस प्रकार की घटनाएं राज्य में और न बढ़ें और महिलाओं को दिए गए आरक्षण का लाभ कोई तीसरा न ले जाए, इसके लिए राज्य सरकार को समय रहते कार्रवाई करनी होगी व स्वत: संज्ञान लेने की जरूरत है न कि कोई फरियादी जाए तब ही कार्रवाई हो।