“मोदी सरकार जब से सत्ता में आई है, उसके द्वारा पेश हर बजट में सबसे प्रमुखता से हम गरीबों का नाम लिया जाता है। लेकिन यह गरीब, बजट में इतनी प्रमुखता से आने के बावजूद अंत में ठगा ही जाता है। मोदी सरकार का चौथा बजट भी गरीब मय होने का दावा कर रहा है। लेकिन इससे कुछ आता जाता तो नहीं है। बस मंत्री गरीबों की दशा पर बोला नहीं कि उनके आसपास बैठे दूसरे मंत्री-सांसद मेज थपथपाते दिखाई पड़ते हैं।” यह बात राजधानी दिल्ली से लगभग 900 किलोमीटर दूर मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल इलाके सीधी से 30 किलोमीटर दूर बसे हिनौती नामक गांव में अपने घर पर दूरदर्शन के चैनल पर वित्तमंत्री का बजट भाषण सुनने के बाद 55 वर्षीय बंभोलिया कोल ने कही। कोल कहता हैं कि इस बार तो यह बजट हमारी कुछ समझ में भी आ गया क्योंकि इस बार मंत्री ने हम गरीबों की हित के लिए की जानी अधिकतर घोषणाएं हिन्दी में जो की। नहीं तो पिछले सालों में तो हम बजट को बस इसलिए देखने पर मजबूर रहते थे क्योंकि हमारे टीवी में केवल दूरदर्शन ही आता है और दूसरा चैनल नहीं आता है। मैं अंगूठा छाप हूं। मेरी पिछले चार-पांच पीढ़ी बस बंधुआ मजूरी पर ही जीवित रहती आई है। हमारी तरक्की बस इतनी हुई है कि अब हम अपने घर में टीवी देख पा रहे हैं। नहीं तो यहां के किसी ब्राम्हण जमीदार के यहां देखने जाना पड़ता था। साथ ही वह व्यंग कहते हुए यह भी कहते हैं कि इसे भी तरक्की कह सकते हैं कि अब मैं यहां गांव में बैठा हुआ हूं और फोन से मुफ्त में दिल्ली से बात कर पा रहा हूं। क्या टीवी देखने और मोबाइल से बात करने भर से हमारा पेट भर जाएगा?
बजट को लेकर यह अकेले बंभोलिया कोल की ही बात नहीं है बल्कि इसी जिले के बटौली नामक गांव में सब्जियों का धंधा करने वाले लगभग पचास किसानों में से एक अशोक कुमार कहते हैं, “बजट में हम जैसे किसानों के लिए कोई राहत नहीं है। आखिर हमारी सब्जियां कोल्ड स्टोरेज नहीं होने के कारण मुश्किल से एक से दो दिन बाद सड़ने लगती हैं। शहर के कोल्ड स्टोरेज न के बराबर है। यही नहीं हमारे यहां परिवहन के भी बकायदा साधन नहीं हैं।” वह कहते हैं कि इस गांव के सत्तर फीसदी से अधिक लोग सब्जियों की ही खेती करते थे। लेकिन पिछले तीन-चार सालों में लगातार हो रहे घाटे के बाद अब हमारे गांव के युवा सूरत या मुंबई की ओर जाने का रुख कर रहे हैं। इसी गांव के एक युवा रमाकांत कहते हैं कि तीन साल पहले तक हम अपने गांव में ठीक-ठाक सब्जी का धंधा कर अच्छा खासा मुनाफा कमा लेते थे लेकिन पिछले कुछ सालों से जब भी हम अपनी सब्जी मंडी में ले जाते हैं तो रेट इतना नीचे होता है कि अपना माल बेचने की हिम्मत नहीं होती है और इंतजार करने का परिणाम यह निकलता है कि हमारी मेहनत ही सड़ जाती है। यानी हमारी सब्जियां ही खत्म होने लगती हैं। ऐसे में कैसे हम यह काम करें।
चेन्नई के गांधीवादी आर्थिक चिंतक अन्नामलई कहते हैं “देखिए बजट तो पेश होता है लेकिन इसका असर साल के अंत तक जिसके लिए घोषणाएं की गई होती हैं तक नहीं पहुंच पाता है। कारण लालफीताशाही पर सरकार का नियंत्रण न होना। इस बजट में भी घोषणा बहुत अहम हैं लेकिन यहां भी यक्ष सवाल वही है कि क्या इन घोषणाओं पर सरकारी मशीनरी ईमानदारी से क्रियान्वयन कर पाएगी? पचास करोड़ गरीब के लिए पांच लाख की बीमा सुविधा बहुत बड़ी घोषणा है लेकिन यहां सवाल है क्या अस्पताल या डॉक्टर की मनोदशा ऐसी है कि वे गरीबों का इलाज करें। शायद नहीं।” हालांकि अन्नामलई की बात पर गाजियाबाद के जिला सराकरी अस्पताल के सर्जन डॉ. राजेश कुमार कहते हैं, “देखिए हम इलाज करने से कभी पीछे नहीं हटते लेकिन इस प्रकार की बड़ी घोषणा के बाद अस्पतालों के ढांचागत में भी तो सुधार की आवश्यकता है। जब इलाज के लिए जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर ही नहीं तो इलाज कैसे संभव होगा।” आईआईटी मद्रास के पूर्व छात्र एम. षणमुगा कहते हैं “मोदी सरकार पिछले तीन-चार सालों में लगातार युवाओं के लिए तमाम प्रकार की योजनाओं घोषणाएं करती आ रही है। लेकिन मुसीबत यह है कि सरकारी घोषणाएं बस अखबरों की हेडलाइन तक ही सिमटकर रह जाती हैं। स्टार्टअप योजना का खूब प्रचार-प्रसार हो रहा है लेकिन इसकी वस्तुस्थिति यह है कि इसके लिए भी अधिकतर आवेदन ऑनलाइन ही भरे जाते हैं। मैं चेन्नई जैसे महानगर में रहकर पिछले डेढ़ साल से ऑनलाइन फार्म नहीं भर पा रहा हूं कि क्योंकि कभी सरकारी सर्वर डाउन होता है तो कभी नेट की स्पीड कमजोर होती है।” वह कहते हैं कि सरकार को यह बात समझनी चाहिए वह जब इस प्रकार की योजना लाए तो पहले तो उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि योजना में आवेदन के लिए तमाम प्रकार की जो आवश्यकताएं उसे पहले वह पूरा करे। जब एक शहरी युवा आवेदन नहीं कर पा रहा तो कल्पना की जा सकती है एक ग्रामीण युवा को इस योजना से लाभ लेने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते होंगे।