राजकाज

पंचायतों पर डोरे डालने के निहितार्थ

Richard Mahapatra

यह असामान्य नहीं है कि प्रधानमंत्री पंचायतों की कार्यप्रणालियों में गहरी दिलचस्पी ले रहे हैं। पंचायतों को त्रिस्तरीय निर्वाचित सरकार के रूप में सांवैधानिक मान्यता देने के 25वें साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान की शुरुआत की है। इसका मकसद है पंचायतों को टिकाऊ और प्रभावी बनाना। मोदी से पहले अटल बिहारी वाजपेयी और राजीव गांधी ने पंचायत की कार्यप्रणाली में दिलचस्पी दिखाई थी। राजीव गांधी ने पंचायतों को निर्वाचन और सांवैधानिक मान्यता प्रदान करने की पहल की थी। पंचायत की प्रभावकारिता से इतर एक बात बेहद स्पष्ट है कि पंचायतों में राजनीतिक दिलचस्पी काफी बढ़ी है। यह अच्छा संकेत है।

पंचायत चुनावों ने राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित किया है। राज्य के विधानसभा चुनावों की तरह ही पंचायत चुनाव ने भी राजनीति और मीडिया को लुभाया है। मोदी हमेशा भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को स्थानीय चुनाव जीतने पर बधाई देते रहे हैं। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल पंचायत चुनाव में अपने संसाधनों को झौंकते रहे हैं। ऐसा तब है जब सांवैधानिक रूप से स्थानीय चुनाव दलगत बैनर तले नहीं लड़े जा सकते। राजनीतिक दल इन चुनावों में अपने उम्मीदवार नहीं उतार सकते, इसलिए वे सिर्फ समर्थन करते हैं।

ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर स्थानीय निकाय चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर इतने अहम क्यों हो गए हैं? इसका बड़ा कारण यह है कि पंचायती राज तंत्र ग्रामीण स्तर पर मजबूत राजनीतिक मंच के रूप में परिपक्व हो गया है। 25 साल से लगातार हो रहे चुनाव और स्थानीय विकास में पंचायतों की बढ़ती भूमिका ने क्षेत्रीय और राजनीतिक दलों को ऐसा मंच दे दिया है जिसकी अनदेखी संभव नहीं है। पंचायतें ऐसी जगह बन गई है जहां राष्ट्रीय नेता डेरा डाले रहते हैं और यहीं से राज्य के भविष्य की रूपरेखा बनती है।

अक्सर पंचायत नेता राज्य और राष्ट्रीय चुनावों के वक्त राजनीतिक दल के सिपाही के रूप में काम करते हैं। केरल और पश्चिम बंगाल में राजनीतिक प्रभाव स्थापित करने के लिए पंचायत नेताओं का इस्तेमाल किया जाता रहा है। वर्तमान में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की बूथ प्रबंधन रणनीति भी पंचायतों के नेताओं के जरिए लागू की जाती है। इसलिए राजनीतिक दलों के प्रभाव को स्थापित करने के लिए पंचायतें एक तरह का सिस्टेमैटिक इन्वेस्टमेंट प्लान (एसआईपी) बन गई हैं।

दूसरा कारण यह है कि पंचायतें विकास को जमीन पर उतारने वाली इकाइयों के रूप में बदल गई हैं। सभी लोक कल्याण कार्यक्रम पंचायत के जरिए ही संभव हैं। पंचायत प्रमुख ही ऐसे निर्वाचित प्रतिनिधि हैं जिनके पास कार्यकारी शक्तियां हैं। कोई प्रधानमंत्री चेक पर दस्तखत नहीं करता लेकिन एक सरपंच के पास यह शक्तियां हैं। इसका तात्पर्य यह है कि राज्य और केंद्र सरकार विकास कार्यक्रम बनाती हैं लेकिन उन्हें पंचायतें ही लागू करती हैं।

पंचायतों पर नियंत्रण के बिना सत्ताधारी दल विकास कार्यक्रमों का श्रेय लेने में पिछड़ जाता है। राजनीतिक रूप से पंचायतें ऐसे हालात पैदा कर देती हैं कि सत्ताधारी दल द्वारा इनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। पंचायत स्तर पर भी यह भावना घर करने लगी है कि राज्य और केंद्र में एक ही दल की सरकार होने पर बेहतर विकास होता है। यह चलन भी देखा गया है कि राज्य में सत्ताधारी दल यह तर्क देते हैं कि विकास के लिए बेहतर समन्वय जरूरी है।

लेकिन क्या यह जरूरी है? पंचायती राज अधिनियम दलों को स्थानीय चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं देता। इस कानून के बनने के दौरान हुई लंबी बहस के कारण यह संभव हुआ था। बहुत से लोगों की दलील थी कि राजनीतिक दलों के दखल से स्थानीय निकाय प्रभावित होंगे। माना जाता है कि इस दलील की मूल भावना सामुदायिक सौहार्द था जो राजनीतिक दखल से बिगड़ सकता था। लेकिन स्थानीय निकायों में राजनीतिक दलों की दिलचस्पी के हाल के चलन शायद ही कहीं विरोध हो रहा हो। क्या यह लोकतंत्र की परतों में दबा सत्ता के विकेंद्रीकरण का मार्ग है? आखिरकार अंत में सब राजनीतिक हो जाना है।