राजकाज

जीवन की आहुति

प्रोफेसर जी.डी. अग्रवाल गंगा नदी के एक कर्मठ योद्धा थे। उनका अवसान आने वाली कई पीढ़ियां याद रखेंगी। उन्होंने अपने जीवन का आधा समय गंगा नदी की रक्षा में लगा दिया। उन कर्मवीर से मेरी पहली मुलाकात का अवसर आज से दस साल पहले 2008 में आया। जब वह पहली बार गंगा को बचाने के लिए मातृसदन (हरिद्वार स्थित एक आश्रम) में अनशन के लिए आए थे। एक वैज्ञानिक होते हुए भी वह गंगा नदी को अपनी मां मानते थे। यही कारण है कि एक बेटे का अपनी मां को बचाने के लिए जो भी करना पड़ता है, वह उन्होंने अपने जीवन काल में किया।

उनका गंगा को मां मानना भी एक वैज्ञानिक कसौटी थी। उन्होंने गंगाजल को पिछले दो दशकों तक कई बार परखा और उसकी विलक्षणता को वैज्ञानिक तरीके से अपने शिष्यों के साथ साबित भी किया। यह बात अलग है कि उनकी इन बातों का देश के नीतिकारों पर कोई असर नहीं हुआ। गंगा के प्रति उनकी आस्था या भक्ति का यह मामला नहीं था। वह शुद्ध रूप से वैज्ञानिक थे और अंत तक इस स्थिति को बरकरार रखा। वे वास्तव में वर्तमान और आने वाली पीढ़ी के लिए गंगा को बचाना चाहते थे।

अग्रवाल गंगा के प्रवाह को बचाने के लिए कटिबद्ध थे। 2008 में उन्होंने गंगा के प्रवाह को बचाने के लिए तपस्या शुरू की। शुरू से अंत तक एक ही मांग थी कि गंगा कि सभी 6 प्रमुख धाराओं के प्रवाह को बनाए रखना और इनके प्रवाह की अविरलता गंगा सागर तक बनी रहनी चाहिए। मुझे लगता है कि उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथॉरिटी का गठन और गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी का दर्जा पाना। अग्रवाल हमेशा कहते आए थे कि गंगा शास्त्रों में वर्णित होने और हमारी परंपराओं में पूजित होने या आधुनिक चिंतन में मां की भांति अपनी घाटी का सृजन-पालन करने और उसका मल ढोने के कारण नहीं अपितु इस कारण महत्वपूर्ण हैं कि गंगा जल गुणवत्ता में अति विशेष व अनुपम है।

एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि स्वतंत्रता पूर्व की हमारी पीढ़िया इस अनुपमता, विशेषकर गंगा जल के न सड़ने और इसकी रोग नाशक क्षमता को केवल परंपरा से मानती ही नहीं थी बल्कि अपने अनुभव से जानती भी थी। जब भी उनके शिष्य यहां आते थे तो वह उनसे गंगाजल की गुणवत्ता पर कई-कई दिनों तक बातचीत करते रहते थे। उनके एक शिष्य काशी प्रसाद ने अपने शोध में यहां तक बताया था कि कानपुर से 20 किलोमीटर ऊपर बिठूर से लिए गंगा जल में कॉलीफार्म नष्ट करने की विलक्षण शक्ति थी, जो कि कानपुर वाटर सप्लाई वाले पानी में आधी रह जाती है।

उसका निष्कर्ष था कि यह गंगा जल में निलंबित सूक्ष्म कणों के कारण है। यही नहीं उनके एक और शिष्य एस.भार्गव ने अपने शोध कार्य में यह पाया था कि गंगाजल (हरिद्वार) में जैविक प्रदूषण (बीओडी)को नष्ट करने की अत्यधिक क्षमता है। बीओडी क्षय का रेट कांसटेंट (वेग नियतांक) सामान्य से 15-16 गुणा अधिक था। यह संभवत: हिमालय की वनस्पति से आए बहुरूपी जीव कोशिय (सेल्यलर पाॅलीमर) के कारण था। तब बांध नहीं बने थे।

वह ताउम्र इस बात के लिए जाने जाते रहे कि वह हर बात का वैज्ञानिक प्रमाण मांगते थे। गंगा के मामले में उन्होंने पग-पग पर वैज्ञानिक शोधों को आधार बनाया। यही नहीं अपने स्वयं व शिष्यों के शोध के अलावा वह देश के नामी संस्थानों द्वारा गंगा पर किए जाने वाले शोधों पर भी वे कड़ी नजर रखते आए थे। प्रोफेसर विलक्षण प्रतिभा के धनी ही नहीं थे, लोगों के लिए प्रेरणा के बड़े स्त्रोत भी थे।

(लेखक हरिद्वार स्थित मातृसदन से जुड़े हुए हैं)