विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का नागरिक होने के नाते, इस अस्तित्ववादी अतिशयोक्ति को लेकर कुछ स्पष्ट सवाल अक्सर हमारे दिमाग में कौंधते है कि क्या चुनावी लोकतंत्र पर्याप्त लोकतांत्रिक है? क्या निर्वाचित सरकार वास्तव में लोगों के जनादेश का प्रतिनिधित्व करती है? वर्तमान में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक असहज कर देने वाली “घुटन” महसूस होती है। वास्तव में, “स्वतंत्रता” की परिभाषा और कोई व्यक्ति इसे अभिव्यक्त करने के लिए किस तरह से ले सकता है,पर एक जोरदार बहस छिड़ी है। और इस बहस में, एक अतियथार्थवादी मोड़ पर, लोकतंत्र को भी नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है।
“लोकतंत्र ठीक है लेकिन विभाजन नहीं।” एक वरिष्ठ राजनेता के इस बयान ने इस दुविधा को बेहतर ढंग से परिभाषित किया है। पर्यावरणीय बहस में यह विशेष चेतना अधिक स्पष्ट है। एक पर्यावरणविद को हर दिन निश्चित रूप से ब्रांडेड होना चाहिए, चाहे वह ऐसा करना पसंद करे या न करे। यह उन सभी मुद्दों से जुड़ा मामला है जिनका संबंध शासन से है। इसलिए यह एक बहुत बड़ा सवाल उठाता है: हम एक लोकतंत्र हैं, हमारे पास एक संविधान है, और हमारे पास नियमित चुनाव हैं, लेकिन क्या यह बेहतर प्रशासन दे रहा है?
हाल ही में जारी विश्व विकास रिपोर्ट (डब्ल्यूडीआर) 2017 के केंद्र में शासन है जो इस जटिल मुद्दे के कुछ दिलचस्प या पूरक बिंदुओं की ओर ध्यान आकृष्ट करता है। “सामान्य” दुनिया में आमजन के लाभ के लिए सरकार की नीतियां किस तरह से काम करती हैं, इसका विस्तृत विश्लेषण इस रिपोर्ट में किया गया है। लेकिन दुनियाभर के देशों के दो साल के अध्ययन के आधार पर तैयार किए रिपोर्ट जवाब देने के बजाय सवाल ज्यादा उठाते हैं। हालांकि, लेखकों ने एक तथ्य को स्पष्ट रूप से समझाने की कोशिश की है कि चुनाव व्यवस्था, सुशासन का एकमात्र तरीका नहीं है और यह जनता के लिए उतना फायदेमंद भी नहीं है।
डब्ल्यूडीआर 2017 के अनुसार ऐसे देशों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है जहां संविधान है। यह दर्शाता है कि शासन के सिद्धांतों या कानूनों को कई देश अपना रहे हैं। वर्ष 1940 में दुनियाभर में खुद का संविधान वाले सिर्फ 65 देश थे। वर्ष 2013 में ऐसे देशों की संख्या बढ़कर 196 हो गई। इनमें से कई देश ऐसे भी हो सकते हैं जहां लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार या बहुदलीय प्रणाली न हो। इसका एक बड़ा उदाहरण चीन है। लेकिन बड़ी प्रवृत्ति देखने को यह मिल रही है कि एक संविधान का जीवनकाल सिर्फ 19 साल है। लैटिन अमेरिका और पूर्वी यूरोप में यह सिर्फ आठ साल है। 1940 के दशक के बाद संविधानों में संशोधन भी शुरू हो गए हैं।
इसी तरह पिछले तीन दशकों में चुनावी लोकतंत्र वाले देशों की संख्या दोगुनी से अधिक हो गई है- वर्ष 1980 में यह संख्या 40 थी जो 2012 में बढ़कर 94 हो गई। हालांकि इसके साथ ही चुनावी लोकतंत्र में विश्वास भी तेजी से घटा है। डब्ल्यूडीआर 2017 से पता चलता है कि चुनाव की निष्पक्षता पर सवाल उठाने वाले लोगों की संख्या बढ़ने लगी है। वर्ष 1979 तक चुनावों को सौ फीसदी स्वतंत्र और निष्पक्ष माना जाता था, लेकिन वर्ष 2012 तक यह धारणा घटकर सिर्फ 59 प्रतिशत रह गई। सामान्य धारणा के मुताबिक इस रिपोर्ट का यह सबसे महत्वपूर्ण पहलू है कि चुनावी लोकतंत्र आधुनिक दुनिया में शासन का सबसे लोकप्रिय तंत्र हो सकता है, लेकिन शुचिता के लिहाज से अब यह शायद ही भरोसेमंद रह गया है।
इस रिपोर्ट में एक अन्य खोज ने स्पष्ट किया है कि जब से चुनावी लोकतंत्र दुनियाभर में फैला और इसने लोगों की कल्पनाओं को जकड़ा है, तब से ही मतदान प्रतिशत (जिसे विश्वसनीयता का मूल संकेतक माना जाता है) में गिरावट आई है। वर्ष 1945 में औसत मतदान 77 प्रतिशत था। 2015 में यह घटकर 64 प्रतिशत रह गया। आशा के अनुरूप, उपर्युक्त प्रवृत्तियों के आधार पर लोग यह भी महसूस कर रहे हैं कि सरकारें कानूनी उपायों का इस्तेमाल करके शासन के लिए आवश्यक पब्लिक स्पेस को कम कर रही है। डब्ल्यूडीआर का कहना है, “कई सरकारें मीडिया और सामाजिक संगठनों के कामकाज को प्रतिबंधित करने और राज्य से अपनी स्वायत्तता कम करने के लिए के लिए कानून बना रही हैं।”
इसलिए लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप के प्रभाव पर बहस बिना किसी कारण के नहीं हो रही है। भारत में, जबकि हम बहस के दोनों पक्षों की आवाजें सुनते हुए “घुटन” महसूस करने लगे हैं, डब्ल्यूडीआर 2017 इस मुद्दे को कुछ स्पष्टता प्रदान करता है। इसलिए सिर्फ बयानबाजी के आधार पर इससे दूर होने से बेहतर है इस बहस में जानकारी के साथ गहराई से आगे बढ़ना।