राजकाज

किस करवट बैठेगी कवायद?

क्या राइट टु रिकॉल यानी प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार जनता को मिलना चाहिए, यदि हां तो कैसे मिल सकता है यह अधिकार?

Anil Ashwani Sharma

लोकसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान हो चुका है। कुल सात चरण में मतदान होना है। पहले चरण में लगभग 30 फीसदी मतदाताओं ने मतदान में भाग नहीं लिया। वजह कई हो सकती हैं, लेकिन एक वजह यह भी है कि लोगों को अपने जन प्रतिनिधियों पर भरोसा कम हो रहा है। इसके लिए पिछले दिनों एक व्यवस्था करने की बात सामने आई थी कि लोगों को यह अधिकार दे दिया जाए कि वे बीच में ही अपने जन प्रतिनिधि को वापस बुला लें। इसे राइट टू रिकॉल कहा गया, लेकिन यह कैसे होगा, इसकी क्या प्रक्रिया होगी, इस पर हमेशा से ही सवाल उठ रहे हैं। इस विषय पर विशेषज्ञों के विचार इस प्रकार हैं -  

दो साल पहले भाजपा सांसद वरुण गांधी ने एक निजी विधेयक पेश किया था। वरुण के निजी विधेयक में प्रस्ताव किया गया था कि किसी क्षेत्र के 75 फीसद मतदाता अगर अपने सांसद और विधायक के काम से संतुष्ट नहीं हैं तो उन्हें निर्वाचन के लिए दो साल बाद वापस बुलाया जा सकता है। इसमें जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 में संशोधन करने की मांग की गई थी और इसका नाम जनप्रतिनिधित्व अधिनियम संशोधन विधेयक 2016 का प्रस्ताव था। विधेयक में प्रस्ताव किया गया कि जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने की प्रक्रिया उस क्षेत्र के कुल मतदाताओं की संख्या के एक चौथाई मतदाताओं के हस्ताक्षर के साथ लोकसभा अध्यक्ष के समक्ष याचिका दायर करके शुरू की जा सकती है। हस्ताक्षर की प्रामाणिकता की जांच करके लोकसभा अध्यक्ष उक्त याचिका की पुष्टि के लिए चुनाव आयोग के समक्ष भेजेंगे। आयोग हस्ताक्षरों की पुष्टि करेगा और सांसद या विधायक के क्षेत्र में 10 स्थानों पर मतदान कराएगा। अगर तीन चौथाई मत जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने के लिए पड़े तब उक्त सदस्य को वापस बुलाया जाएगा। इसमें कहा गया है कि नतीजे हासिल होने के 24 घंटे के भीतर ही लोकसभा अध्यक्ष इसकी अधिसूचना जारी करेंगे और सीट खाली होने के बाद चुनाव आयोग उपचुनाव करा सकता है।


राइट टु रिकॉल मुहिम से जुड़े कार्यकर्ता राहुल मेहता इस प्रस्तावित विधेयक को खामियों से भरपूर बताते हैं। उन्होंने कहा कि आरटीआर के लिए हमने जो मसविदा तैयार किया है उसमें मतदाता सीधे पटवारी के पास जाएंगे और अपनी सहमति जता कर अप्रत्यक्ष रूप से रिकॉल चुनाव के लिए कहेंगे। इसकी जगह वरुण गांधी हस्ताक्षर मुहिम की बात करते हैं। सारे हस्ताक्षर वैध तरीके से ही जुटाए गए हैं, यह साबित करना मुश्किल होगा। वहीं ये नाम सरकारी अधिकारियों के पास पहुंचने के बाद कानूनी या गैरकानूनी तरीके से वर्तमानन जनप्रतिनिधि के पास भी पहुंचेंगे जो मतदाताओं के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। मान लीजिए कि किसी क्षेत्र में 20 लाख मतदाता हैं तो कार्यकर्ताओं को पांच लाख हस्ताक्षर जुटाने होंगे। लेकिन इन हस्ताक्षरों को सत्यापित कैसे किया जाएगा? वहीं आंकड़े बताते हैं कि बहुत जगहों पर लगभग 50 फीसद मतदाताओं को अपना नाम लिखना नहीं आता है। फिर वे इस मुहिम से कैसे जुड़ेंगे? वे शिक्षितों द्वारा नियंत्रित हो सकते हैं। इसके साथ ही वरुण का विधेयक सिर्फ सांसदों और विधायकों को ही वापस बुलाने की बात करता है। लेकिन अगर जनता प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को वापस बुलाना चाहे तो उसका क्या? मेहता कहते हैं कि नि:संदेह इस विधेयक के पीछे वरुण गांधी की नीयत नेक है। लेकिन खामियों से भरा यह विधेयक उन्हीं लोगों के मत को मजबूती प्रदान करेगा जो राइट टु रिकॉल की मुखालफत करते हैं। प्रस्तावित विधेयक की खामियों के साथ यह महज एक लोकलुभावन कवायद साबित होगी।

आजाद भारत में राइट टु रिकॉल की पहली आवाज इंदिरा गांधी के शासन के खिलाफ खड़े हुए जेपी आंदोलन में उठी थी। जय प्रकाश नारायण ने 4 नवंबर 1974 को “संपूर्ण क्रांति” के आह्वान के दौरान “राइट टु रिकॉल” की भी बात कही। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष व वामपंथी नेता सोमनाथ चटर्जी ने भी जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए इसका समर्थन किया था। स्वतंत्रता पूर्व औपनिवेशिक भारत में क्रांतिकारी सचिन सान्याल ने राम प्रसाद बिस्मिल के साथ मिलकर 1923-24 में क्रांतिकारी संगठन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) बनाया। सान्याल ने इसके घोषणात्र में राइट टु रिकॉल की बात कही। 1944 में मानवाधिकारी एमएन रॉय ने ऐसी सरकार का प्रस्ताव रखा था।

भारत में कितना कामयाब?

राइट टु रिकॉल मतदाता को वह अधिकार प्रदान करता है जिससे वह अगले तयशुदा चुनाव के पहले ही निर्वाचित प्रतिनिधियों का सत्र समाप्त कर सकता है। यही कारण है कि राजनीतिज्ञ, सरकारें, यहां तक कि सरकारी संस्थान भी इस फैसले के पक्ष में खड़े नहीं हैं। जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार मुख्यत: मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और राजस्थान में अमल में लाया गया है। इन राज्यों में पंचायत एवं नगरपालिका के स्तर पर ऐसे कई चुनाव संचालित किए गए हैं।

मध्य प्रदेश पहला राज्य है जहां साल 2000 से ही यह अधिकार इस्तेमाल में लाया जा रहा है। अफसोसजनक यह है कि यह अधिकार केवल आंशिक रूप में उपलब्ध है और मतदाताओं को सशक्त करने में नाकाम रहा है। इस अधिकार में उल्लिखित प्रावधानों के मुताबिक, नगर पार्षदों को नगरपालिका अध्यक्ष के खिलाफ एक अविश्वास प्रस्ताव लाना होता है। प्रस्ताव के सफलतापूर्वक पारित हो जाने की सूरत में अध्यक्ष पद के लिए ताजा चुनाव आयोजित किया जाता है। अंतत: आम मतदाता नगरपालिका अध्यक्ष को सीधे तौर पर वापस बुला पाने में अक्षम है।

छत्तीसगढ़ में यह कानून अविभाजित मध्य प्रदेश के समय से ही आया और सही मायनों में इसे 2007 से लागू किया गया है। यहां के पूर्व राज्य निर्वाचन आयुक्त सुशील त्रिवेदी कहते हैं कि उनके समय में इस पर काफी काम हुआ। राज्य में नगर निकाय के स्तर पर राइट टु रिकॉल पूरी तरह से लागू है। इसमें नगर पंचायत, नगरपालिका निगम और परिषद तीनों शामिल हैं। कानून के तहत अब तक 14 नगर निकायों के चुने हुए जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के लिए पार्षदों ने कलक्टर को पत्र भेजा और निर्वाचन आयोग ने संज्ञान लिया। ऐसा नहीं है कि राज्य में पंचायत और नगर निकायों में राइट टु रिकॉल लागू करने से सभी लोग संतुष्ट हो गए। आम आदमी पार्टी के पूर्व राज्य संयोजक संकेत ठाकुर ने 2014 में बिलासपुर में “नसबंदी कांड” के बाद तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल के खिलाफ जनमत संग्रह तक कर डाला जिसमें 33,282 लोगों ने भाग लिया। यानी 86.74 फीसद लोगों ने स्पष्ट रूप से कहा कि उन्हें ऐसा मंत्री नहीं चाहिए। इसका असर यह हुआ कि सरकार ने छह महीने बाद उन्हें स्वास्थ्य मंत्री पद से हटा दिया।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मार्च 2011 में बिहार नगर पािलका अधिनियम को संशोधित कर उसमें राइट टु रिकॉल शामिल किया गया है। बिहार की पंचायती राज व्यवस्था में निर्वाचित मुखिया को वापस बुलाए जाने का अधिकार पहले से ही है। नगर निकायों के लिए लागू राइट टु रिकॉल में प्रावधान है कि किसी निर्वाचित निकाय प्रतिनिधि से संबंधित वार्ड के 50 फीसद से अधिक मतदाताओं को एक हस्ताक्षरित आवेदन नगर विकास विभाग को देना है। अगर विभाग इस बात से सहमत है कि संबंधित वार्ड काउंसलर ने दो तिहाई मतदाताओं का विश्वास खो दिया है तो वह उक्त काउंसलर को हटा सकता है।

निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार आम जनता को न दिए जाने के पक्ष में कई दलीलें दी गई हैं। उदाहारण के तौर पर, कई लोगों का मानना है कि ऐसा अधिकार प्रदान किए जाने की सूरत में भी वह आम नागरिकों के एक बड़े तबके की पहुंच से बाहर रहेगा। एक दूसरी दलील यह भी दी जा रही है कि प्रतिस्पर्धी राजनैतिक दल इस प्रावधान का दुरुपयोग कर सकते हैं। एक तीसरा तबका यह कह रहा है कि यह अधिकार देश में राजनैतिक अस्थिरता का कारण बन सकता है। ये दलीलें निराधार भी साबित हो सकती हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध कर रहीं कोटा नीलिमा कहती हैं कि 17 सालों में मध्य प्रदेश में इस तरह के महज 33 चुनाव हुए हैं जिनका आयोजन राज्य निर्वाचन आयोग एवं प्रशासन द्वारा कुशलता से किया गया। जोड़तोड़ की आशंका हमेशा रहती है। इन मामलों में मतदाताओं ने समझदारी का परिचय देते हुए सारे पदस्थ प्रतिनिधियों को बाहर का रास्ता नहीं दिखाया। मध्य प्रदेश में ऐसे जितने भी चुनाव हुए हैं उनमें से आधी बार मतदाताओं ने वर्तमान प्रतिनिधियों को ही फिर से निर्वाचित किया। इस प्रक्रिया के नतीजतन अव्यवस्था तो नहीं ही फैली, इसके उलट यह आंशिक “वापसी” निर्वाचित प्रतिनिधियों को और भी सक्षम बनाने में सफल हुई। मतदाताओं पर भरोसा रखना होगा। उन्होंने कहा कि मतदाताओं की बुद्धिमत्ता का साक्षी इतिहास रहा है। जो जनता चुनाव फोटो पहचान पत्र, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन, यहां तक कि नोटा के साथ भी आसानी से कदमताल कर गई हो वह निश्चित रूप से इस प्रावधान को एक सशक्त जनतांत्रिक औजार बनाने में सक्षम है।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश (गिल बनाम चुनाव आयुक्त,1978) में कहा है  “एक अदने से इंसान की अदनी सी पेंसिल जो कि उसकी इच्छा के अनुरूप अपनी स्वीकृति या असहमति जाहिर करती है, वह उसका मताधिकार है।” सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार यह जनतंत्र का बेशकीमती अधिकार है। वापसी के प्रावधान के मुकम्मल रूप अख्तियार कर लेने की सूरत में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उल्लिखित यह अधिकार सतत एवं मतदाता के विवेक द्वारा संचालित होगा। इसके उपरांत मतदाता अपने निर्वाचित प्रतिनिधि के रहमोकरम पर पलने को मजबूर नहीं होगा।

भारतीय परिवेश में जनप्रतिनिधियों की वापसी की अवधारणा को लेकर विशेषज्ञ चिंता भी जताते रहे हैं। पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने अपनी किताब “ए अनड्रॉडेंडेड वंडर : द मेकिंग आॅफ द ग्रेट इंडियन इलेक्शन” में इस पर भी चर्चा की है। वे इस प्रस्ताव के खिलाफ तर्क में कहते हैं कि यह निर्वाचित प्रतिनिधियों के पक्ष में नहीं है। वे चेतावनी देते हुए कहते हैं, “ऐसा कोई भी चुनावी नियम देश को अस्थिर करेगा। भारत जैसे विशाल देश में यह व्यवस्था कारगर नहीं होगी।” वे कहते हैं कि ऐसे नियमों के कारण हमारे जनप्रतिनिधि अलोकप्रिय फैसले लेने से डरेंगे। जाति और मजहब को लेकर मुखर भारत जैसे मुखर देश में यह और हानिकारक होगा। वहीं हमारे यहां चुनावी व्यवस्था भी बहुत खर्चीली है। आरटीआर भारत के चुनावी तंत्र की खामियों का हल नहीं हो सकता है।

विदेशों में कितना कारगर?

जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार को कई देशों ने अपने संविधान में शामिल किया है। 1903 में अमेरिका के लास एंजिल्स की म्युनिसपैलिटी, 1908 में मिशिगन और ओरेगान में पहली बार राइट टु रिकॉल राज्य के अधिकारियों के लिए लागू किया गया। अमेरिका में पिछले सालों में अब तक आठ सौ गवर्नर बने और इनमें से केवल दो को ही वापस बुलाया गया है। अमेरिका में पुलिस कमिश्नर हजारों हुए लेकिन इनमें से अब तक केवल चार को ही वापस बुलाया गया।

1998 से भारत में राइट टु रिकॉल आंदोलन चला रहे राहुल मेहता कहते हैं कि यह व्यवस्था वास्तव में अमेरिका में भ्रष्टाचार और व्यवहार सुधार में मील का पत्थर साबित हुई है। उनका कहना है कि पूरी दुनिया में अभी अमेरिका में ही यह व्यस्था ठीक ढंग से कार्य कर रही है। अमेरिका के 11 राज्यों में यह लागू है। स्विटजरलैंड सहित अन्य देशों जैसे कनाडा, वेनेजुएला, फिलीपींस आदि देशों में यह व्यवस्था लागू है लेकिन वस्तुस्थिति बहुत अच्छी नहीं है। मशहूर हॉलिवुड एक्शन सुपरस्टार और रिपब्लिक पार्टी की राजनीति में सक्रिय अर्नाल्ड श्वार्जनेगर आरटीआर के जरिए ही जनप्रतिनिधि चुने गए थे। साल 2003 में जनता ने ग्रे डेविस को वापस बुलाने की मांग की और इस प्रक्रिया के तहत 17 नवंबर 2003 को श्वार्जनेगर कैलिफोर्निया के 38वें गवर्नर चुने गए।

पहली बार राइट टु रिकॉल संसद में पेश किया जा रहा है। यह विधेयक ऐसे समय में रखा जा रहा है जब देशभर में राजनीतिज्ञों की साख तेजी से गिर रही है। यह देखने वाली बात होगी कि इस विधेयक से क्या उनकी साख में किसी तरह की सुधार की गुंजाइश होगी या यह बस एक लोकलुभावन राजनीतिक हथकंडा बनकर रह जाएगा।

‘मतदाता सशक्तिकरण’
 

भारत की चुनावी व्यवस्था कुछ ऐसी है जिसमें निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए मतदाताओं को नजरअंदाज करना बहुत आसान हो जाता है। वास्तव में ऐसा होना निश्चय ही एक अधूरे जनतंत्र की निशानी है। राइट टु रिकाल का अधिकार मतदाता को वह अधिकार प्रदान करता है जिससे वह अगले निर्धारित चुनाव के पहले ही निर्वाचित प्रतिनिधियों का सत्र समाप्त कर सकता है।

यह अधिकार भारत में पहली बार मध्य प्रदेश में लागू हुआ। हालांकि यह अधिकार केवल राज्य में आंशिकतौर पर ही लागू है। इसके चलते राज्य के मतदाताओं को अपने नगरपालिका अध्यक्षों को सीधे तौर पर वापस बुलाने का अधिकार नहीं मिल पाया है। कहने के लिए तो राज्य में  पिछले डेढ दशक से अधिक समय से यह अधिकार लागू है।  राज्य के मतदाताओं ने बीतों सालों में जब भी इस अधिकार का उपयोग किया तब-तब अपनी समझदारी की परिपक्वता का परिचय दिया। इसका नतीजा यह हुआ है कि आंशिक ही सही लेकिन कम से कम जनप्रतिनिधियों की कार्यशैली में साकारात्मक बदलाव देखने को अवश्य मिला है।

 

‘अतिशय काल्पनिक’

मैं नहीं मानता कि इस देश में राइट टु रिकॉल पर कुछ होने जा रहा है। अगर वरुण गांधी इस संबंध में सदन में विधेयक लाते भी हैं तो यह संसद में सैद्धांतिक चर्चा बस होकर रह जाएगी। ऐसा कोई कानून नहीं बनने वाला है। ऐसे कानून बनाने के लिए पार्टी लाइन से हटकर बात करनी होगी। इसे पहले सिविल सोसायटी में स्वीकृत करना चाहिए। पार्टी लाइन की अपनी सीमाएं होती हैं।

राजनीतिक दल जिस वैचारिक मान्यता को आधार बनाकर उम्मीदवार उतारते हैं या गठबंधन सरीखे प्रक्रिया से उसे समर्थन देते हैं, उसमें राइट टू रीकॉल जैसी अवधारणा का कोई अर्थ नहीं है। पार्टी लाइन पर चुने एक प्रतिनिधि को राइट टू रीकॉल के जरिए हटाने की बात सोचना भी संभव नहीं है। कुछ भी बोल लीजिए, मगर पार्टी में रहने वाले प्रतिनिधि उससे प्रतिबद्ध ही रहेंगे।

इसलिए, इस विधेयक पर चर्चा ही हो सकती है। होना कुछ नहीं है। सबसे पहले दलगत राजनीति की अवधारणा को खत्म करना होगा, यह जनता ही करा सकती है। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक राइट टू रीकॉल अतिशय काल्पनिक है।

 

‘अवधारणा की समझ’

वास्तव में राइट टू रीकॉल जैसी अवधारणा को समझाने के लिए पहले जनता के पास जाना होगा और उन्हें इसके हर पहलु की बारीकियां विस्तार में जाकर समझानी होगी। कुल मिलाकर हमें मतदाता को राइट टू रीकॉल के कानून बन जाने पर उनके लिए यह कितना उपयोगी होगा और वे अपने इस अधिकार को किस प्रकार से उपयोग में ला सकेंगे आदि के बारे में जागरूक करना होगा।

यही नहीं इसके लिए संसद में बकायदा एक कानून बनेगा। यह इतना आसान काम नहीं है। इसके लिए जनता और इस मुद्दे पर काम कर रहे लोगों को एक लंबा संघर्ष करना होगा। तभी वे इसे कानूनी अधिकार देने के लिए सरकार पर दबाव बना सकेंगे।