राजकाज

कितनी कारगर नशामुक्ति की युक्ति

पंजाब में नशे की समस्या की जटिलता को समझने से पहले थोड़ा विषय परिवर्तन करते हैं। बौद्ध दर्शन का पहला पाठ पढ़ते हैं। संसार की जटिलता को समझने के लिए बुद्ध ने चार आर्यसत्यों की बात की है। ये इस प्रकार हैं - संसार में दुख है। दुख का कारण है। इसका निवारण है। इसके निवारण का मार्ग भी है। बुद्ध ने दुख के निवारण के लिए अष्टांग मार्ग सुझाया था, जिनमें सम्यक दृष्टि से लेकर समाधि तक के आठ सोपान हैं। यह बात यहां सिर्फ संदर्भ पूरा करने के लिए लिखी जा रही है।

पंजाब में नशे की समस्या को अगर इन चार आर्यसत्यों के फरमे में कसकर समझना चाहें तो अब पहले दो बिंदुओं, यानी पंजाब में नशा है, नशे का कारण भी है, इन पर कोई विवाद नहीं है। कुछ साल पहले तक इन प्रश्नों पर राजनैतिक बहस होती थी। मगर बाकी दो बिंदु यानी नशे के निवारण के प्रश्न उलझा रहे हैं। नशे का निवारण है या नहीं, इस पर सत्ताधारी और सियासतदान बंट गए हैं। नशे का निवारण मार्ग क्या है - यही सबसे बड़ा सवाल है। जवाब इसका किसी के पास नहीं दिखता है। इसीलिए पटियाला के सांसद धर्मवीर गांधी ने, जो पेशे से डॉक्टर हैं, राज्य में यह मुद्दा उछाल दिया है कि पंजाब में भांग और खसखस जैसे प्राकृतिक सॉफ्ट ड्रग की सीमित खेती की इजाजत दे देनी चाहिए, जैसा चलन अमेरिका और कनाडा के कुछ प्रांतों में भांग को उगाने की इजाजत देने के साथ ही हाल-फिलहाल शुरू हुआ है। उन्होंने कहा कि जो भांग का सेवन करना चाहें, उन्हें अपने घरों में पांच से 35 पौधे तक उगाने की इजाजत दे देनी चाहिए। फिर उन्होंने मशहूर छपार मेले में खसखस के बीज बांटकर कहा भी कि अगर सरकार चाहे तो मुझ पर मुकदमा भी दायर करवा सकती है।

इस बहस को खुद सरकार के नुमाइंदों ने ही आगे बढ़ा दिया। गांधी के विचार को लपकने में कांग्रेस सरकार के कैबिनेट मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने देर नहीं की। उन्होंने कहा, मेरा ताया भी अफीम लेता था। उसे कोई बीमारी नहीं थी। वह लंबा जीया। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह के हवाले से पहले तो मीडिया में यह बयान आया कि इस पर विचार किया जाना चाहिए। मगर जल्द ही उन्होंने कह दिया कि नशीले पौधों की खेती करने की इजाजत उनकी सरकार हरगिज नहीं देगी। राज्य की स्पेशल टास्क फोर्स नशे को रोकने के लिए पूरी तरह सक्षम है। उनका यह फैसला शायद नशे को तत्काल नया राजनैतिक मुद्दा बनाने से रोकना था। विरोधी यह कहने भी लगे थे कि चार हफ्तों में नशे को खत्म करने का वादा कर सत्ता में आई कांग्रेस अब खुद नशे की खेती करवाने की बात करने लगी है। इसलिए मुख्यमंत्री को तो कुर्सी छोड़ देनी चाहिए।

इस घटनाक्रम से दो नई बातें सामने आई हैं। एक ओर पंजाब में नई ड्रग पॉलिसी बनाने का मुद्दा बहस के केंद्र में आ गया है, जिसमें भांग, खसखस की सीमित खेती का प्रावधान किया जा सकता है। वहीं यह भी साबित कर दिया है कि नशे का कोई ठोस इलाज सरकार के पास नहीं है। चार हफ्तों में नशा खत्म करने का वादा भी जुमला था।

वैज्ञानिक रूप से भी यह एक हद तक सच है। अमृतसर मेडिकल कॉलेज में मनोचिकित्सा के प्रोफेसर और पंजाब दोआबा (सतलज-व्यास नदी के बीच का स्थान) में डि-एडक्शिन केंद्रों के इंचार्ज निदरेष कुमार गोयल कहते हैं, जब करोड़ों रुपए के अभियान और टीकाकरण भी टीबी खत्म नहीं हो पा रही है जो सिर्फ एक इंफेक्शन है, तो ड्रग एडिक्शन कैसे खत्म होगा, जिसके पीछे कई और सामाजिक कारण भी होते हैं। हालांकि दोनों समस्याएं तो काफी भिन्न हैं। इस पर वह सिद्धांत समझाते हैं कि एडिक्शन होती ही ऐसी बीमारी है, जो क्रॉनिक भी है और रीलैप्सिंग भी। यानी दीर्घकालिक और बार-बार होने वाली। अमेिरका में भी जहां बहुत अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर है, वहां भी 60 फीसदी रीलैप्सिंग रेट है। इसके मुकम्मल इलाज के लिए लंबा समय चाहिए और पुनर्वास का बंदोबस्त भी। हमारे पास इतने अस्पताल नहीं हैं कि लंबे समय तक मरीज को रख सकें। पुनर्वास का तो विचार अभी शुरू ही हुआ है। वह मानते हैं कि ड्रग एडिक्शन खत्म करने के लिए इलाज के साथ पुनर्वास का इंतजाम होना बहुत जरूरी है। अभी पंजाब में सरकारी स्तर पर कोई पुनर्वास केंद्र नहीं चल रहा है।

अमृतसर और तरनतारन जिलों में जरूर एक सामाजिक संगठन के साथ मिलकर यह काम शुरू किया जा रहा है। सरकार का दावा है कि उसने पिछले डेढ़ साल में दो लाख से ज्यादा नशा पीड़ितों का इलाज किया है। अगर सुविधासंपन्न अमेरिका में 100 में से 60 नशा पीड़ित दुबारा इसके आदी बन जाते हैं तो फिर यहां क्या आंकड़ा होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। जालंधर के एक केंद्र में औसतन 500 से ज्यादा मरीज रोज आते हैं। सरकारी छुट्टियों में भी ये केंद्र खोले जाते हैं।

आखिरकार पंजाब में नशे के मरीजों का इलाज हो कैसे रहा है? अमृतसर और जालंधर जैसे बड़े शहरों में मॉडल नशा मुक्ति केंद्र बने हैं। यहां मरीज को भर्ती करने से लेकर मुफ्त इलाज का भी बंदोबस्त है। वह कहते हैं, हर कोई परेशान है, घरवाले पूछते नहीं है। वह इलाज के लिए अस्पताल पहुंच जाए, क्या यही कम है। ऐसे में हमारा धर्म है कि मरीज को ठीक कर घर भेजें। मगर हकीकत जुदा है। फंड की सख्त कमी है। वह कहते हैं कि सिविल अस्पताल में सारी दवाइयां नहीं आती हैं। अलग-अलग मरीज को कुछ खास दवाइयां भी देनी पड़ती हैं। नशा करने वाले मरीजों के परिवार बर्बादी की कगार पर पहुंचकर ही अस्पताल पहुंचते हैं। सबके पास दवाइयों के लिए पैसा नहीं होता है। इसलिए कौन कब अपने मरीज को घर ले जाए, पता ही नहीं चलता है।

फिर एक शॉर्टकट भी निकाला गया है। सरकार ने द आउट पेशेंट ओपियाइड असिस्टेड ट्रीटमेंट (ओओएटी) केंद्र हर जिले में खोल दिए हैं। इनमें हर नशे के मरीज का रजिस्ट्रेशन किया जाता है। आधार से इन्हें लिंक कर दिया गया है। इन केंद्रों में रोज मरीज आते हैं। वहीं दवा पीसकर उसे खिलाई जाती है। जालंधर जैसे बड़े जिले में ऐसे तीन केंद्र खोले गए हैं। एक दिन में औसतन 500 मरीज यहां आते हैं। इन्हें अभी जिलों के मुख्यालय में खोला गया है। फिर हर कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर में यह दवा दी जाएगी।

यह दवा क्या है? यह एक तरह का अफीम आधारित इलाज है। यानी एक नशे का इलाज दूसरे नशे से। इसकी भी लत लगती है, लेकिन डॉक्टर गोयल कहते हैं कि इसके साइड इफेक्ट कम होते हैं। एक तरह का स्पेशल इफेक्ट जरूर होता है। इसे वह सीलिंग इफेक्ट कहते हैं। यानी एक सीमा तक ही इसका नशा होता है। इसे वह अमेरिकी तरीका मानते हैं, जो पंजाब के अलावा दिल्ली और मणिपुर में अपनाया जा रहा है। उससे पहले एड्स कंट्रोल प्रोग्राम के तहत इसी तरीके को अपनाया जाता था। तब यह सोचा गया था कि एड्स का एक बड़ा कारण नशे में इस्तेमाल होने वाली सुइयां हैं। इसलिए मरीजों को एड्स से बचाना है तो उन्हें यह अफीम-आधारित दवा देते रहो। धीरे-धीरे वे इसके आदी होने लगते हैं। वैसे, डॉक्टर कहते हैं कि कोई इस दवा की आदत को भी छुड़वाना चाहे तो उसका भी इलाज है। जाहिर है, उसमें भी दूसरी दवाइयां भी खानी ही पड़ेंगी।


मगर इस तरीके के दूसरे सामाजिक फायदे भी हेल्थ अफसर गिनाते हैं। यह इस विचार पर आधारित है कि ड्रग एडिक्शन को खत्म करना मुश्किल है। जितने एडिक्ट हैं, उन्हें पैसे चाहिए। इसके लिए वे सही-गलत काम करते हैं। इसलिए एक तरीका निकाला गया है। ओओएटी केंद्र में आओ, दवा लो और चले जाओ। इससे दो उम्मीदें हैं। चोरी-चकारी, चेन स्नैचिंग, लूटपाट जैसे अपराध रुकेंगे। फिर, नशे की डिमांड भी कम होगी। इससे ड्रग माफिया का सप्लाई चेन टूटेगी तो नशे पर दीर्घकाल में रोक लगेगी। इस सबके बावजूद नशे से जुड़ी भयावह कहानियां सामने आ ही रही हैं। अकेले जून महीने में तीस से ज्यादा मौतें नौजवान नशा पीड़ितों की हुई। लूटपाट तो आम बात थी। अब तो हत्याएं तक हो रही हैं।

इसी चार अक्तूबर को पुलिस ने पंजाब आर्म्ड पुलिस के जालंधर मुख्यालय में तैनात एक सहायक पुलिस महानिरीक्षक (एआईजी) सरीन प्रभाकर की 80 वर्षीय मां शीला प्रभाकर का हत्या का पर्दाफाश किया तो हर किसी की आंखें फट गईं। पड़ोस में रहने वाले एक रिश्तेदार के जवान बेटे ने उन्हें मार डाला था। सिर्फ इसलिए कि झाई जी (वृद्धा) ने उसका नशा छुड़ाने के लिए उसे नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती कराया था। हत्यारोपी युवक ने कहा, मैं नशा करता था, यह मेरी मां जानती थी। वृद्धा ने मां पर दबाव डालकर मुझे नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती करवा दिया। वहां चार महीने कैद रहा। मेरी जिंदगी नरक बन गई थी। वह इसके लिए उस महिला को जिम्मेदार मानने लगा।

जेल से बाहर निकला तो एक दोस्त उधार के चार हजार रुपए मांगने लगा। बस बहाना मिला। दोस्त के साथ मिलकर महिला की हत्या कर दी। कुछ जेवर भी लूट लिए। जाहिर है कि नशा मुक्ति केंद्र में न तो नशा छूट रहा है। न ही मनोदशा दुरुस्त हो रही है। यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है। अमृतसर के एक पार्क में चंद हफ्तों में अलग-अलग तीन लोगों की हत्या हो गई। ये सारे गरीब लोग थे, इसलिए कोई शोर भी नहीं मचा। इन्हीं में एक रिक्शाचालक की हत्या की जांच के दौरान अमृतसर पुलिस ने जिस युवक को गिरफ्तार किया, वह भी नशे का आदी निकला। पता चला कि रिक्शे वाले को उसने पार्क तक छोड़ने को कहा और सिर्फ कुछ रुपये की खातिर मार डाला। वह रिक्शे वाले को वीरान पार्क में लाया ही मारने के लिए था। यही नहीं, पुलिस के अनुसार वही बाकी दो हत्याएं भी उसी ने इसी तरह की थीं। शायद इसीलिए कहते होंगे कि सच्चाई तो गल्प कथाओं से भी ज्यादा चौंकानेवाली होती है।