राजकाज

भूमि अधिग्रहण कानून पर ग्रहण

सरकारें भूमि अधिग्रहण कानून को कमजोर कर जमीन हथिया रही हैं और लोगों को अधिकारों से वंचित किया जा रहा है

Ishani Sonak

भूमि बैंक बढ़ाने की हड़बड़ी में राज्य भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 (संक्षेप में भूमि अधिग्रहण कानून, 2013) को कमजोर कर रहे हैं। यह कानून सही दिशा में उठाया गया कदम माना गया था, लेकिन पांच साल बाद भी विरोध प्रदर्शन और न्यायालय में बढ़ते मुकदमों से यह साबित होता है कि अधिग्रहण प्रक्रिया सही रास्ते पर नहीं है। इसके कारणों को समझने के लिए दिल्ली स्थित गैर लाभकारी संगठन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने नवंबर 2017 को सूचना के अधिकार के तहत 28 राज्यों से इससे संबंधित जानकारियां मांगीं। गुजरात, मध्य प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश ने सूचनाएं उपलब्ध ही नहीं कराईं। कुछ ने आधे अधूरे जवाब दिए। सूचनाओं के विश्लेषण से पता चलता है कि आखिर राज्य क्यों सटीक जानकारी मुहैया कराने में आनाकानी कर रहे हैं। दरअसल, वे कानून को लागू ही नहीं करना चाहते।  

कानून और विधेयक

भूमि अधिग्रहण कानून पांच महत्वपूर्ण स्तंभों पर टिका है। ये स्तंभ हैं सामाजिक प्रभाव आकलन (एसआईए), लोगों की सहमति, मुआवजा, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन। यह कानून सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए निजी जमीन लेने की सरकारी शक्तियों को सीमित करता है। वहीं अनावश्यक सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए सरकार द्वारा भेदभावपूर्ण अधिग्रहण भी रोकता है। कानून पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण से प्रभावित 70 प्रतिशत लोगों की स्वीकृति अनिवार्य बनाकर लोगों की व्यापक भागीदारी सुनिश्चित करता है। प्राइवेट परियोजनाओं के लिए 80 प्रतिशत लोगों की स्वीकृति जरूरी है। कानून के अनुसार, ग्रामीण भूमि का मुआवजा बाजार मूल्य का चार गुणा होगा, जबकि शहरी भूमि के लिए बाजार मूल्य का दोगुना मुआवजा मिलेगा। रोजगार गंवाने और जमीन देने वाले लोगों का पुनर्वास और पुनर्स्थापन भी अनिवार्य है।

सरकार 1894 के पुराने कानून में किसी भी सरकारी उद्देश्य के लिए अर्जेंसी क्लॉज का इस्तेमाल कर भूमि अधिग्रहित कर लेती थी। नए कानून में इसे सीमित कर दिया गया है। सरकार अब केवल राष्ट्रीय सुरक्षा, प्राकृतिक आपदा या संसद द्वारा मान्य अन्य किसी आपात स्थिति में ही अर्जेंसी क्लॉज के माध्यम से जमीन ले सकती है। इन श्रेणियों के तहत ली जाने वाली जमीन के लिए लोगों की स्वीकृति और एसआईए जरूरी नहीं है। अगर पांचवी या छठी अनुसूची वाले क्षेत्रों में इस तरह का अधिग्रहण होता है तो ग्रामसभा अथवा स्वायत्त परिषद की स्वीकृति जरूरी है। नया कानून कई फसलों वाली सिंचित जमीन का अधिग्रहण भी रोकता है। विशेष परिस्थितियों में जमीन लेने पर सरकार को उतनी ही जमीन विकसित करके देनी होगी।

इस तरह कानून सरकार से शक्तियां लेकर भूमि मालिकों को सौंपता है। यही वजह है कि राज्यों ने इस कानून के तोड़ के रूप में एक आसान रास्ता खोज लिया है। 1 जनवरी 2014 को इस कानून के लागू होने के बाद नवनिर्वाचित राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने अध्यादेश लाकर इस कानून को कमजोर करने की कोशिश की। इसके पीछे दलील थी कि नया कानून जटिल, समय लेने वाला और लागत बढ़ाने वाला है। अध्यादेश रक्षा, ग्रामीण आधारभूत संरचना, वहनीय आवास, औद्योगिक कॉरिडोर और औद्योगिक परियोजनाओं के लिए सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया को आसान बनाता है। इसके तहत हुए अधिग्रहण में एसआईए, लोगों की सहमति और सिंचित भूमि के प्रावधानों से छूट मिलती है।

कानून का सबसे विवादित पहलू एक अनुच्छेद है। इसमें कहा गया है कि अधिग्रहण की प्रक्रिया ऐसी स्थिति में निरस्त हो जाएगी जब पांच साल पहले मुआवजे की घोषणा कर दी गई हो लेकिन न जमीन पर कब्जा किया गया हो और न ही मुआवजा मिला हो। ऐसी स्थिति में जमीन वापस मूल स्वामी को दे दी जाएगी अथवा नए कानून के तहत अधिग्रहण की प्रक्रिया फिर से शुरू होगी। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में लैंड राइट्स इनीशिएटिव की प्रमुख नमिता वाही बताती हैं, “इससे लोग अधिक मुआवजे की मांग को लेकर न्यायालय चले गए।” कानून प्रभावी होने के बाद उच्चतम न्यायालय ने इस अनुच्छेद के तहत ऐतिहासिक निर्णय दिए। इससे बहुत से लोगों को जमीन वापस मिल गई और बहुतों को अधिक मुआवजा मिला।

अध्यादेश इस अनुच्छेद को कमजोर बनाता है और न्यायालय के आदेश पर रुकी अधिग्रहण की प्रक्रिया के कारण निर्धारित अवधि में छूट देकर इसे सरकार के अनुकूल बनाता है। राज्यसभा सदस्य जयराम रमेश बताते हैं, “अध्यादेश नए कानून को भी 1894 के कानून जैसा बना देगा।” संशोधन विधेयक 24 फरवरी 2015 को संसद में लाकर लोकसभा में पास किया गया था। लेकिन यह राज्यसभा में पास नहीं हो सकता और इसे संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया। अब तक समिति किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकी है।

राज्यों की चाल

केंद्र सरकार कानून में बदलाव करने में नाकाम रही तो राज्य इसमें तब्दीली को आगे आए। संविधान कहता है कि राज्य सरकारें राष्ट्रपति की स्वीकृति से केंद्रीय कानून में संशोधन कर सकती हैं। सीएसई का विश्लेषण बताता है कि तमिलनाडु, तेलंगाना, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और आंध्र प्रदेश ने खुद का कानून बनाकर संशोधन लागू कर लिए। इस तरह केंद्रीय कानून को बाईपास का दिया।

हाल ही में आंध्र प्रदेश के कानून में बदलाव किया गया है। कुछ समय पहले तक राज्य केंद्रीय कानून का पालन कर रहा था। इसके तहत उसने एसआईए और लोगों की सहमति ली, लेकिन 23 जुलाई 2018 को संशोधन कानून को राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद यह बंद हो गया। अब रक्षा, ग्रामीण आधारभूत संरचना, वहनीय आवास, औद्योगिक कॉरिडोर और औद्योगिक परियोजनाओं के लिए यह जरूरी नहीं है। यह स्वैच्छिक अधिग्रहण अथवा आपसी बातचीत की व्यवस्था करता है और परामर्श देने में ग्रामसभा की भूमिका को सीमित करता है। आंध्र प्रदेश से करीब एक महीने पहले झारखंड ने भी कानून पारित कर दिया। राज्य का संशोधन विधेयक दो बार राष्ट्रपति को भेजा गया। अब झारखंड में भी स्कूल, अस्पताल, सिंचाई परियोजनाओं और आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के आवास हेतु अधिग्रहण के लिए एसआईए जरूरत नहीं है।

ग्रामसभा की भूमिका भी परामर्श देने तक सीमित है। तमिलनाडु संशोधन विधेयक कानून को भी राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल गई है। इसके मुताबिक, तमिलनाडु एक्विजिशन ऑफ लैंड फॉर हरिजन वेलफेयर स्कीम्स एक्ट 1978, तमिलनाडु एक्विजिशन ऑफ लैंड फॉर इंडस्ट्रियल परपज एक्ट 1997 और तमिलनाडु हाइवेज एक्ट 2001 के तहत अधिग्रहित होने वाली भूमि पर केंद्रीय कानून लागू नहीं होगा। राज्य में तीन चौथाई भूमि अधिग्रहण इन तीन कानूनों के माध्यम से ही किया गया है। महाराष्ट्र ने भी अपने चार कानूनों को केंद्रीय कानून के दायरे से बाहर कर दिया है।

मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन परियोजना के लिए भी गुजरात एमेंडमेंट एक्ट 2016 के माध्यम से अधिग्रहण किया जा रहा है। किसानों के हितों के लिए काम कर रहे गुजरात खेडूत समाज के अध्यक्ष जयेश पटेल कहते हैं, “यह परियोजना गुजरात के 192 गांवों को प्रभावित करेगी। उपजाऊ और सिंचित कृषि भूमि परियोजना के लिए ली जा रही है। इसके लिए न ग्रामसभा से स्वीकृति ली गई है और न एसआईए किया गया है।”

मामूली परिवर्तन

सात राज्यों ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में प्रस्तावित प्रावधानों को अपना लिया है, जबकि 14 राज्यों ने इसमें मामूली बदलाव किया है। इन बदलावों ने कानून को काफी हद तक निष्प्रभावी बना दिया है। रांची में रहने वाले और किसानों के अधिकारों के संघर्ष करने वाले संजय बासु मलिक बताते हैं, “पिछले कुछ सालों में उद्योगों के लिए जमीन अधिग्रहित करने में सरकार को दिक्कत हुई है, इसलिए राज्यों ने अधिग्रहण को आसान और शीघ्र करने के लिए कानून तोड़-मरोड़ दिया।” रांची स्थित गैर लाभकारी संस्था क्रेडल से जुड़े प्रणय कुमार बताते हैं, “केंद्रीय कानून ग्रामीण भू स्वामियों को इतना अधिक मुआवजा देता है कि सरकारें अधिग्रहण से बचती हैं, लेकिन मुआवजे में बदलाव के कारण यह उद्योगों के लिए लाभदायक हो गया है।”

मुआवजे के नए फॉर्म्युले के मुताबिक, ग्रामीण इलाके में यह भूमि के बाजार मूल्य का दोगुना, जबकि शहरी क्षेत्रों बाजार मूल्य के बराबर दिया जाएगा। आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और त्रिपुरा ने भी मुआवजा कम कर दिया।

एसआईए काफी हद तक इसे करने वाले निकाय पर निर्भर करता है। हरियाणा सरकार ने हरियाणा स्टेट इंडस्ट्रियल एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन (एचएसआईआईडीसी) को राज्य में हुए भूमि अधिग्रहण का एसआईए का निर्देश दिया है। एसचआईआईडीसी के एक अधिकारी ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि कारपोरेशन के पास इतनी क्षमता नहीं है कि इतने एसआईए और जनसुनवाइयां कर सके। कारपोरेशन तीसरे पक्ष को यह जिम्मेदारी सौंपता है। ऐसे मामलों में एसआईए रिपोर्ट्स की गुणवत्ता निम्न दर्जे की होती है। आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखंड, केरल, ओडिशा, सिक्किम, तमिलनाडु और त्रिपुरा ने जनसुनवाइयों के लिए नोटिस अवधि भी कम कर दी है। इससे जहां लोगों की भागीदारी कम होती है वहीं भूमि अधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा प्रभावितों को समझाने की संभावना भी कम हो जाती है।

कानून में जिला कलेक्टर की मनमानी शक्तियों को सीमित किया गया है। कानून जनहित में लाई जा रही परियोजना के लिए एक स्वतंत्र विशेषज्ञ समूह और एसआईए इकाई गठित करने का निर्देश देता है। लेकिन उत्तराखंड, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और केरल में सरकारी अधिकारी इस प्रक्रिया में जुड़े हैं और ऐसी इकाइयों के सदस्य हैं। मसलन, उत्तराखंड में विशेषज्ञ समूह की अध्यक्षता मुख्य विकास अधिकारी कर रहे हैं। कर्नाटक, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और केरल में पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन आयुक्त को एसआईए इकाई की जिम्मेदारी दी गई है। इस कारण हितों का टकराव होता है। ग्रामीण विकास मंत्रालय के पूर्व सचिव एनसी सक्सेना कहते हैं, “कानून को इस तरह तोड़ना मरोड़ना लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है।”

अगर 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को देखें तो वह सिविल अदालतों को जमीन के विवाद निपटाने की शक्तियां देता है। नया कानून हर जिले में न्यायिक अदालत स्थापित करने का आदेश देता है। अदालत को भूमि अधिग्रहण, मुआवजा, पुनर्वास और पुनर्स्थापन से जुड़े मामलों को 6 महीने में निपटाना होता है। सीएसई की पड़ताल बताती है कि आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और उत्तराखंड ने ही न्यायिक अदालतों का गठन किया है, जबकि असम, झारखंड और कर्नाटक में जिला अदालतें ही यह काम कर रही हैं।



एक और रास्ता

जहां एक तरफ राज्य कानून में बदलाव कर जमीन अधिग्रहण कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ जमीन बेचने वालों से बातचीत के माध्यम से भी जमीन की सीधी खरीद हो रही है। उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे गाजीपुर और आजमगढ़ को लखनऊ से जोड़ेगा। उत्तर प्रदेश एक्सप्रेस-वे इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट एंड अथॉरिटी के डिप्टी कलेक्टर संजय चावला बताते हैं, “एक्सप्रेस-वे के लिए 93 प्रतिशत जमीन खरीदी जा चुकी है। जमीन हेतु केवल मुआवजा ही दिया है फिर भी इसे लेने में कोई दिक्कत सामने नहीं आई। लोगों का पुनर्वास या पुनर्स्थापन नहीं किया गया।”

महाराष्ट्र में सब डिवीजनल मैजिस्ट्रेट (भूमि अधिग्रहण) शिवाजी देवभट बताते हैं, “सीधी खरीद प्रक्रिया तेजी से पूरी होती है, इसलिए हम कानून में निर्धारित मुआवजे की राशि भी बढ़ा देते हैं।” महाराष्ट्र ने सीधी खरीद पर 25 प्रतिशत और चंडीगढ़ ने 10 प्रतिशत बढ़ा हुआ मुआवजा देने का वादा किया है। दूसरी तरफ जमीन के मालिकों को दूसरी जमीन खरीदने पर मुफ्त रजिस्ट्री और स्टांप ड्यूटी में छूट का भी फायदा मिलता है।

ओडिशा ने एक गांव में 10 हेक्टेयर तक जमीन लेने के लिए सीधी खरीद का निर्देश दिया है। दिल्ली, चंडीगढ़, गोवा, तेलंगाना और झारखंड ने बातचीत के माध्यम से जमीन खरीदने के लिए नीतियों बनाई हैं।

इसी तरह गोवा में प्राथमिकता वाले निजी-सार्वजनिक भागीदारी वाली परियोजनाओं हेतु जमीन की प्रत्यक्ष खरीद के लिए नीति है। इसमें लोगों की सहमति और पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन की जरूरत नहीं होती। राज्य ने गोवा रिक्विजिशन एंड एक्विजिशन ऑफ प्रॉपर्टी बिल बनाया है जो विचार विमर्श के लिए विधानसभा भेजा गया है।

यह स्पष्ट है कि केंद्रीय कानून में भी कमियां हैं। पहला, इसकी प्रक्रिया जटिल है, इसलिए अधिग्रहण की पूरी प्रक्रिया में साढ़े चार साल का समय लग सकता है और यह विभिन्न चरणों में होती है। समितियों की विस्तृत श्रृंखला गठित करनी पड़ती और कई अहम निर्णय लेने होते हैं। एसआईए के लिए एक स्वतंत्र निकाय बनाना पड़ता है। इसकी रिपोर्ट का मूल्यांकन एक दूसरी विशेषज्ञों की समिति द्वारा किया जाता है। निचली समितियों की रिपोर्ट का मूल्यांकन करने के लिए पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन समिति, एक राज्य स्तरीय समिति और एक राष्ट्रीय निगरानी समिति गठित करनी पड़ती है।

दूसरा, भूमि अधिग्रहण कानून सैद्धांतिक रूप से सरकार को जमीन अधिग्रहण से रोकता है। साथ ही यह इसके प्रभाव को भी सीमित करता है। कानून में विशेषज्ञ समूह की सिफारिशों को मानना अनिवार्य नहीं है। अगर सिफारिशें अधिग्रहण के खिलाफ है, तब भी सरकार इस दिशा में आगे बढ़ सकती है। इससे सरकार को लोगों की आवाज दबाने की शक्ति मिल जाती है। इसके अलावा कानून में जब सार्वजनिक उद्देश्य की बात होती है, तो इसका व्यापक अर्थ होता है। रक्षा, आधारभूत संरचना, उद्योग, पर्यटन, खेल और स्वास्थ्य में सभी उद्देश्य सम्मिलित होते हैं। उदाहरण के लिए कर्नाटक के घने जंगल में पर्यटन रिजोर्ट सरकारी और निजी मापदंडों पर सार्वजनिक उद्देश्य के मापदंडों को पूरा कर सकता है। सार्वजनिक उद्देश्य का अर्थ अब तक पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हुआ है।

तीसरा, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए पंचवर्षीय विकास कार्यक्रम, जमीन खोने वाले लोगों को अधिकार प्रदान करता है। कानून की एक बड़ी कमी यह है कि यह स्पष्ट नहीं करता कि निगरानी समिति इसके क्रियान्वयन को देखे। एसआईए विशेषज्ञ मधुसूदन हनुमप्पा बताते हैं “इसकी निगरानी मुश्किल है और स्टेकहोल्डर्स इसमें सक्षम नहीं होते।” एक अच्छे अधिग्रहण कानून को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कीमतों के बीच संतुलन स्थापित करना चाहिए। प्रत्यक्ष कीमत वह है जो विकासकर्ता भूमि गंवाने वाले को मुआवजे के रूप में देते हैं और जिससे उनका पुनर्वास होता है। अप्रत्यक्ष कीमत वह है जो प्रक्रिया शुरू करने पर खर्च होती है और जिससे नौकरशाही का प्रबंधन किया जाता है। इससे अधिग्रहण में देरी के कारण राजस्व क्षति की भरपाई की जाती है। कानून इन दोनों कीमतों में इजाफा करता है। सक्सेना बताते हैं, “कानून में कोई भी संशोधन प्रत्यक्ष कीमत को बढ़ा देता है जबकि अप्रत्यक्ष कीमतों में भारी कमी करता है। अधिग्रहण की प्रक्रिया में देरी के कारण कानून बेहतर संतुलन नहीं स्थापित करता।”

विकासकर्ता प्रत्यक्ष कीमत का भुगतान करके संतुष्ट रहते हैं लेकिन अप्रत्यक्ष कीमत उन्हें परेशान करती है, खासकर जमीन अधिग्रहण में देरी से। इसी कारण राज्यों ने सीधी खरीद को प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया, भले ही मुआवजा अधिक देना पड़े। जमीन अधिग्रहण के अन्य उपाय भी लोकप्रियता हासिल कर रहे हें। आंध्र प्रदेश की राजधानी अमरावती के विकास हेतु जमीन देने के लिए लोग लाइन में लगे हैं। लैंड पूलिंग मॉडल के तहत विकास परियोजनाओं के लिए एक एकड़ जमीन देने पर, भूमि के मालिक को 1,000 वर्ग गज का विकसित भूखंड और 450 वर्ग गज का विकसित व्यवसायिक भूखंड मिलेगा। इस कारण किसानों ने स्वैच्छा से 13,354 हेक्टेयर भूमि आंध्र प्रदेश केपिटल डेवलपमेंट अथॉरिटी को दे दी है। नीति आयोग ने भी इस मॉडल की तरफदारी की है। पिछले साल 18 अक्टूबर को दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) लैंड पूलिंग नियमावली को अधिसूचित कर दिया। डीडीए सामूहिक भूमि का विकास परियोजनाओं में इस्तेमाल कर सकता है। हालांकि यह अब तक स्पष्ट नहीं हो पाया कि भूमि के मालिक अधिग्रहण के इस उपाय से लाभांन्वित हो रहे हैं या नहीं।

जयराम रमेश बताते हैं, “भूमि अधिग्रहण कानून एक ऐसा कानून है जिसके नियमों को लागू करना आसान नहीं है।” अगर इस कानून का मकसद अधिग्रहण को न्यूनतम करना और खरीद को बढ़ावा देना है तो कानून सही दिशा में है। हालांकि राज्यों द्वारा अपनाए जा रहे अधिग्रहण के तरीके भूमि के मालिकों के हित में नहीं हैं। सरकार को मूल कानून में कुछ सुधार करने की जरूरत है।

(ईशान कुकरेती के इनपुट के साथ)