राजकाज

आजादी का संघर्ष

Kundan Pandey, Bhagirath

झारखंड में इन दिनों आदिवासियों और प्रशासन के बीच शीत युद्ध जैसा माहौल है। एक तरफ गांव स्वशासन की घोषणा करते जा रहे हैं, दूसरी तरफ सरकार इसे गैरकानूनी और सख्ती से कुचलने की बात कह रही है। इस तनावपूर्ण माहौल में किसी भी दिन सरकार और आदिवासियों के बीच संघर्ष छिड़ सकता है। कुंदन पाण्डेय और भागीरथ की रिपोर्ट

झारखंड के खूंटी जिले के कांकी गांव में चर्चा है कि गांव वालों ने पिछले साल अगस्त में पुलिस वालों को कई घंटे बांधकर रखा क्योंकि उन्होंने गांव में प्रवेश करने के पहले ग्रामसभा से इजाजत नहीं ली थी। इसी गांव के सामने खड़े होकर हम ग्रामसभा से प्रवेश करने की अनुमति चाह रहे थे।

हमने बगल से गुजरते हुए युवक को बुलाया। उसका नाम बिरसा मुंडा था। हमने उसे समझाया कि हम दिल्ली से आए हैं और गांव वालों से बात करना चाहते हैं। इतने में एक और अजनबी (शायद उसी गांव का) आया और उसने उस लड़के से पूछा कि क्या इन लोगों ने ग्रामसभा से इजाजत ली है। हमारे नहीं कहने पर उसने बिरसा मुंडा को हमसे बात करने से मना किया पर बिरसा ने उसे समझाया कि अगर ये लोग किसी से बात नहीं करेंगे तो आखिर ग्रामसभा से इजाजत भी कैसे मिलेगी।  

बिरसा हम लोगों को आश्वस्त करके गांव में गया। संयोग से वह मंगलवार का दिन था। सारे गांव वाले पत्थर से बनाए एक बोर्डनुमा सरंचना के सामने मौजूद थे। उस पत्थर पर हरे बैकग्राउंड पर सफेद रंग का इस्तेमाल कर हाथ से संविधान के कुछ अनुच्छेद का जिक्र था जिसके तहत संविधान, पांचवी अनुसूची और उसके अनुच्छेद के हवाले से आदिवासी इलाके में ग्रामसभा की ताकत समझाया गया है। यह भी बताया गया है कि आदिवासी गांवों में बाहरी लोगों का बिना अनुमति के प्रवेश वर्जित है।  

प्रत्येक मंगलवार को इस गांव के निवासी इस संरचना के सामने जमा होते हैं। वहां पूजा पाठ करते हैं और गांव से जुड़ी समस्या और विकास के लिए जरूरी विमर्श करते हैं। पत्थर गाड़कर इस तरह से अपने अधिकार और नियम की बात करने को वहां स्थानीय भाषा में पत्थरगड़ी कहते हैं। झारखंड में यह मामला इन दिनों काफी गरम है।

बिरसा ने गांव वालों को समझाया कि दिल्ली से एक पत्रकार आए हैं और पत्थरगड़ी पर आप लोगों से बात करना चाहते हैं। हम कुछ दूरी पर खड़े होकर उनकी बात समझने की कोशिश कर रहे थे। गांव वालों ने फिर पूछा कि दिल्लीवाले के साथ एक दूसरा आदमी कौन है? उस लड़के ने बताया कि वह यहीं के स्थानीय मीडिया से जुड़े हैं। बातचीत के बाद गांव वाले डाउन टू अर्थ से बात करने को तो तैयार हो गए पर उन्होंने स्थानीय मीडिया के साथी से बात करने से इनकार कर दिया। जब मैंने उन लोगों से इसकी वजह जाननी चाही तो सबने एक स्वर में कहा, “सर, इन अखबारों को बंद हो जाना चाहिए। ये बेईमान लोग हैं। बोलना तो छोड़िए, हम अगर इनको लिख कर भी कुछ देते हैं तो भी दूसरे दिन ठीक उसके उल्टा छपता है। ये लोग अखबारों में लिखते हैं कि हम गांव में किसी को प्रवेश नहीं करने देते। जबकि ऐसा नहीं है। अगर हम लोग किसी को घुसने नहीं देते तो आपलोग कैसे घुस गए? हमने अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल कर बस इतना कहा है कि आप ग्रामसभा के महत्व को समझिए और गांव में आना है तो इजाजत लेकर आइए। बस।”



बातचीत की शुरुआत में ही गांववालों ने निवेदन किया कि उनका नाम न छापा जाए। वजह कि “पुलिस को बांधने” वाली घटना से हालात तनावपूर्ण है। गांव वालों का कहना था कि पुलिस प्रशासन ने एक खबर फैलाई कि गांव वालों ने इन लोगों का बांधकर बैठा दिया था जबकि कहानी एकदम अलग है। 24 अगस्त को कुछ पुलिस वाले बिना नम्बरप्लेट की गाड़ियों में बिना अनुमति आए। हम लोगों ने उन्हें बैठने को कहा और साथ में ग्रामसभा से इजाजत लेने की बात की। यह सुनकर वे भागने लगे, भागते-भागते उन्होंने छः राउंड फायर किए और कुछ महिलाओं से गलत व्यवहार भी किया। अगले दिन अखबारों में प्रकाशित हुआ कि गांव वालों ने पुलिसवालों को बंधक बनाकर रखा।  

इस गांव ने चार जून, 2017 को अपने गांव के सामने एक पत्थर गाड़ दिया या कहें कि पत्थरगड़ी कर दी। अखबारों में रोज किसी नए गांव में इससे संबंधित खबरें प्रकाशित हो रही हैं। ये खबरें अमूमन नकारात्मक होती हैं जिसमें पत्थरगड़ी को देश की स्वतंत्रता और संप्रुभता पर खतरे के तौर पर पेश किया जाता है। जैसे दैनिक जागरण के 27 फरवरी 2018 को पहले पन्ने पर सबसे बड़ी खबर थी, “मोमेंटम झारखंड में कोरियाई कंपनी के लिए चिन्हित जमीन पर पत्थरगड़ी।” इसका उप शीर्षक था “पुलिस मुख्यालय से महज आठ किलोमीटर दूर स्थित गांव में ग्रामसभा का सरकार को ठेंगा, 210 एकड़ जमीन पर की गई पत्थरगड़ी।”

इसी तरह हिन्दुस्तान अखबार के दिल्ली संस्करण में 12 मार्च को प्रकाशित किया गया कि “झारखंड में पत्थरगड़ी चुनौती बनी।” दैनिक भास्कर के 27 फरवरी के पहले पन्ने के पहली खबर का उपशीर्षक था, “पूर्वी सिंहभूम के गांव में स्कूलों व सार्वजनिक स्थानों पर संविधान विरोधी स्लोगन लिखे गए।”

इसी गांव के पड़ोस में एक गांव है भंडरा। उस गांव के कुदा टोली के रहने वाले बाली मुंडा संविधान की पुस्तक लेकर हमसे बात करने बैठते हैं। जब तब उसके पन्ने पलट कर अपने संवैधानिक अधिकारों को लिखित में दिखाते हैं। उनका कहना है कि पत्थरगड़ी हमारी एक पुरानी परम्पराओं में से एक है और सदियों से होती आई हैं। हम लोग पत्थर को उन खास जगहों पर गाड़ते हैं जो हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं। जैसे एक पूरी पीढ़ी अगर खत्म हो जाती है तो उसकी याद में पत्थर गाड़ते हैं।

यह पूछने पर कि जब यह अधिकार और परंपरा इतनी पुरानी है तो अचानक पिछले साल ऐसे करने का खयाल क्यों आया, इस पर बाली मुंडा कहते हैं, “आजादी को सत्तर साल हो गए और हम लोगों को कोई अधिकार नहीं मिला। न कोई सुविधा, न रोजगार और न ही किसी तरह का विकास। हमारे गांव में सारे घर कच्चे हैं। सरकारी तो छोड़िए, हमारे गांव में किसी कि पास एक प्राइवेट नौकरी तक नहीं है।” इन सारे वाक्यों से बाली मुंडा यह बताना चाह रहे थे कि कैसे आदिवासियों को अब तक सिर्फ छला गया है।

इस गांव के प्रधान जिनकी उम्र 70 थी और उनका नाम भी बिरसा मुंडा ही बताया गया, वह कहते हैं कि प्रशासन सिर्फ फरेब करता है। किसी आदिवासी को कहीं पकड़ता है और दिखाता है कि कहीं और पकड़ा है। कुछ भी इल्जाम लगा दिया जाता है। अगर शौचालय का पैसा आता है तो अधिकारी उसका आधा हमसे मांगते हैं। ऐसे में शौचालय नहीं बन पाता, उलटे हमसे पूछा जाता है कि पैसा लिया तो शौचालय क्यों नहीं बनाया।

ग्राम प्रधान ने कहा कि यह सब देखते हुए आदिवासी अब अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल कर अपना विकास खुद करना चाहते हैं। गांव वालों का कहना है कि पिछले सालों में पूर्वी सिंहभूम, चाईबासा और अन्य कुछ जगहों को मिला दिया जाए तो कम से कम 200 गांव ने पत्थरगड़ी की है और अभी कई गांव ऐसा करने का प्रयास कर रहे हैं। खबर लिखते हुए यह सूचना मिली कि लातेहार जिले में भी आदिवासियों ने पत्थरगड़ी करना शुरू कर दिया है।   

अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के स्थानीय अध्यक्ष मुकेश बरुआ का कहना है कि इसको सही या गलत साबित करने के लिए सरकार और सिविल सोसाइटी कई तरह की वजह बता रहे हैं। सरकार कह रही है कि आदिवासी अफीम की खेती करते हैं और पुलिस कार्रवाई नहीं करे, इस डर से ये लोग संविधान से मिले कानूनी सुरक्षा का सहारा ले रहे हैं। वहीं सिविल सोसाइटी का कहना है कि सरकार को राज्य के कुछ इलाकों में सोना होने की बात पता चल गई है इसलिए सरकार जमीन लेने के लिए पुरजोर प्रयास कर रही है। सरकार अब तक भूमि बैंक के नाम पर 20 लाख 81 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन ले चुकी है (देेेखें जमीन की जंग)। जानकार बताते हैं कि इस कारण भी लोगों में असुरक्षा की भावना घर कर रही है और स्वशासन की मांग जोर पकड़ रही है।



कानूनी या गैरकानूनी

अगर मीडिया में छप रही खबर या मुख्यमंत्री की बातों का तस्दीक किया जाए तो लगेगा कि देश में वृहत स्तर पर एक गैरकानूनी कार्य हो रहा है। जैसे मुख्यमंत्री उन लोगों को नेस्तनाबूद करने की बात कर रहे हैं ऐसी चीजों को बढ़ावा दे रहे हैं। 18 मार्च को झारखंड पुलिस ने आदिवासी महासभा के थिंकटैंक तथा पत्थरगड़ी मामले को जोर शोर से उठाने वाले विजय कुजूर को दिल्ली के महिपालपुर से गिरफ्तार कर लिया। कुछ लोग फोन पर बात करने से इसलिए मना कर दे रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि पुलिस उनको ट्रैक कर लेगी।  

दिल्ली में भी अंग्रेजी अखबार इसे भारत की संप्रभुता का खतरा बता रहे है। हाल ही में अंग्रेजी अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स ने कुछ ऐसी ही खबर चलाईं। पिछले साल 17 जून को इस अखबार ने खबर लिखी जिसका शीर्षक था “Death stalks outsiders in Jharkhand village” और इस खबर ने आदिवासी ग्रामीणों द्वारा पत्थरगड़ी करने पर सवाल खड़ा किया। इसके जवाब में डाउन टू अर्थ 30 जून को ‘The Media and The Republic’ लेख में बताया कि कैसे एक समय महाराष्ट्र के राज्यपाल को भी गांव में प्रवेश करने के लिए ग्रामसभा की अनुमति लेनी पड़ी थी। उन्होंने लिखा कि ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है जब ग्रामीण गांव को स्वशासित बनाने की घोषणा कर रहे हैं। यह भारतीय संप्रभुता को चुनौती नही है बल्कि स्वशासन को प्रोत्साहन देना है। अंग्रेजी अखबार की खबर के हवाले से उन्होंने लिखा कि इस तरह की रिपोर्टिंग अज्ञानता की वजह से है।

आदिवासी कार्यकर्ता जेरोम जेराल्ड कुजूर का कहना है कि खूंटी इलाकों के आदिवासियों और जिला प्रशासन के बीच नासमझी की मुख्य वजह है पुलिस प्रशासन द्वारा भारतीय संविधान में उल्लेखित 5वीं अनुसूची के तहत आदिवासियों के अधिकारों को न समझना। उन्होंने बताया कि अनुच्छेद 244 (1) और (2) में पूर्ण स्वशासन व नियंत्रण की शक्ति दी गई है। उनके अनुसार, झारखंड के 13 अनुसूचित जिलों में राज्यपाल को शासन करना है लेकिन आजादी के सात दशक बाद भी किसी राज्यपाल ने इन क्षेत्रों के लिए अलग से कोई कानून नहीं बनाया। इसका परिणाम यह हुआ कि गैर अनुसूचित (अर्थात सामान्य) जिले के नियम कानून ही आज तक आदिवासियों के ऊपर लादे जाते रहे हैं।

इस विषय पर काम कर रहे लोग बताते हैं कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और पेसा कानून के प्रणेता दिवंगत बीडी शर्मा अपने जीवन के अंतिम दिनों में झारखंड के पांचवी अनुसूचित इलाकों में घूमते हुए गांव गणराज्य की बैठकें और पत्थरगड़ी करते थे। न केवल शर्मा बल्कि एसटी/एससी आयोग के पूर्व अध्यक्ष बन्दी उरांव भी इन चीजों को बढ़ावा देने के लिए झारखंड के इलाकों में घूमते थे। उन्होंने कई दफा शर्मा के साथ राज्य का भ्रमण किया। इन लोगों ने खूंटी जिले में भी ऐसे प्रयास किए।

विजय कुजूर की गिरफ्तारी, मुख्यमंत्री के बयान इत्यादि पर झारखंड विकास मोर्चा के केंद्रीय महासचिव और पूर्व मंत्री बंधु तिर्की का कहना है कि यह सरासर गलत है। अपने अधिकारों के प्रति लोगों को जागरुक करना कहीं से गलत नहीं है। पत्थरगड़ी आदिवासियों की एक सामाजिक परंपरा है और सदियों से चली आ रही है। तिर्की कहते हैं कि इस क्षेत्र में पांचवी अनुसूची लागू है और अगर सरकार इसे नहीं मान रही है तो इसका मतलब सरकार संविधान को नहीं मान रही है।

उतार-चढ़ाव
 

भारत के गांव गणराज्यों ने अंग्रेजी हुकूमत से लेकर अब तक कई उतार-चढ़ाव देखे हैं

  • 1800-1820 गांव गणराज्य गांव के मामलों का खुद ही निपटरा करते थे। ये गांव पूरी तरह स्वतंत्र थे
  • 1830-1850 अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए अंग्रेजों ने गांव गणराज्य को कमजोर करने की कोशिश की
  • 1860-1900 वनों और भूिम से संबंधित केंद्रीय कानूनों ने गांव गणराज्यों की ताकत को कमजोर किया
  • 1900-1920 विकेंद्रीकरण के लिए बने रॉयल कमीशन ने सरकार की पंचायतों का समर्थन किया
  • 1930-1940 आजादी के आंदोलन में ग्राम स्वराज मुद्दा बनकर उभरा लेकिन 1935 के इंडिया गवर्नमेंट कानून ने गांवों पर नौकरशाही थोप दी
  • 1950-1960 विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन शुरू किया, बलवंत राय मेहता ने त्रिस्तरीय पंचायत का सुझाव दिया
  • 1970-1980 अशोक मेहता कमिटी ने पंचायतों की आलोचना की
  • 1990 सरकार ने त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था लागू की। शक्तियों का विकेंद्रीकरण नहीं हुआ
  • 1996 पांचवी अनुसूची के क्षेत्रों के लिए पेसा कानून बना
  • 2002-2010 देशभर के गांवों में स्वशासन घोषित करने की घटनाओं में तेजी आई
  • 2017 झारखंड में स्वशासन के लिए आंदोलन तेज हुआ



जल, जंगल, जमीन की लड़ाई

ग्रामसभा का अधिकार सालों से है और पत्थरगड़ी की परंपरा भी। पर अचानक पिछले दो साल से पत्थरगड़ी की घटनाओं में इजाफा हुआ है, साथ ही इसके खिलाफ बातचीत भी। जब कुछ स्थानीय लोगों से इस पर बात की गई तो उनका कहना था कि जब से यह सरकार आई है तब से आदिवासियों की जमीन हड़पकर उद्योगपतियों को देने की कोशिश की जा रही है।

बीडी शर्मा इत्यादि के प्रयासों का हवाला देते हुए, रांची के गैर सरकारी संगठन जल-जंगल-जमीन से जुड़े संजय बासु मलिक कहते हैं कि ऐसे प्रयास बहुत सालों से हो रहे हैं। पिछले दो सालों में इस दिशा में हो रहे प्रयास तेज हुए हैं। सरकार के येन केन प्रकारेन आदिवासियों की जमीन लेने के प्रयास में है।
 
उन्होंने बताया “जब से यह सरकार आई है, तब से आदिवासियों के जमीन लेने के लिए कई सारे कानून में संशोधन के प्रयास किए गए, जैसे छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी), 1908 और संथाल परगना अधिनियम (एसपीटी), 1949। सरकार ने 2016 में इसे संसोधित करने के प्रयास किए।

इससे लोग उद्वेलित हो गए। बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ और उसी समय लोगों को लगने लगा कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि सरकार इस क्षेत्र को पांचवी अनुसूची के अंतर्गत मान्यता ही नहीं दे रही है।” पेसा कानून का भी प्रतिपालन नहीं हो रहा है।

वर्ष 2016 में सरकार ने अंग्रेजों द्वारा बनाए गए सीएनटी और एसपीटी में फेरबदल की कोशिश की। सरकार ने सीएनटी कानून की धारा 49, 21 और 71ए में संशोधन की कोशिश की। इसके अलावा सरकार ने निजी कंपनियों के जमीन अधिग्रहण के मामले में हाथ मजबूत करने के लिए एसपीटी कानून में नई धारा 13ए जोड़ने की भी पहल की। सरकार के इस प्रयास का स्थानीय लोगों ने पुरजोर विरोध किया और राज्यपाल को विभिन्न समूहों द्वारा 96 ज्ञापन दिए गए। आखिरकार राज्यपाल को लोगों के प्रतिरोध के आगे झुकना पड़ा और उन्होंने झारखंड के विधानसभा के द्वारा पास बिल को राष्ट्रपति के पास भेजने से मना कर दिया।   

उस समय तो लोगों ने राहत महसूस की पर उन्हें महसूस हुआ कि जब तक इन कानूनों को लागू नहीं कराया जाएगा तब तक सरकार जमीन लेने के लिए कुछ न कुछ हथकंडा अपनाती रहेगी। वर्तमान में भूमि अधिग्रहण कानून में भी संशोधन कर सरकार जमीन लेना चाहती है। इन सब को देखते हुए आदिवासियों भी अपनी जमीन बचाने के लिए जो कुछ कर सकते हैं वह कर रहे हैं। अपनी जमीन बचाने के लिए जो भी कानून है उसका सहारा लिया जा रहा है। लोग पांचवीं अनुसूची में आने वाला कानून, फिर पेशा और वनाधिकार कानून 2006 का इस्तेमाल लोग कर रहे हैं। इन्हीं कानूनों की मदद से अकेले खूंटी जिले में पिछले 6 महीने के दौरान करीब 200, पूर्वी-पश्चिमी सिंहभूम में 50-50 और गुमला में 70 गांव पत्थरगड़ी कर चुके हैं।

अब सरकार ने इससे निपटने के लिए नया तरीका खोजा। जमीन तो सरकार को चाहिए थी तो इसलिए उसने लैंड बैंक बनाने की घोषणा की। सरकार ने अधिकारियों को आदेश दिए और कुछ ही दिन में पूरे राज्य से 21 लाख एकड़ जमीन इस लैंड बैंक में डाल दी गई और कंपनियों के सामने पेश कर दी गई।

फरवरी 2017 में सरकार ने मोमेंटम झारखंड नाम से उद्योगपतियों का एक आयोजन किया था और इसका प्रतीक उड़ता हाथी था। उसमें मुख्यमंत्री ने उद्योगपतियों को बताया कि सरकार के पास कितनी जमीन मौजूद है। जमीन लेने की मंशा इतनी मजबूत है कि सरकार आदिवासियों के पूजा स्थलों तक को भी नहीं छोड़ रही है।

आदिवासी कार्यकर्ता और लेखक सुनील मिंज कहते हैं कि खूंटी जिले में 531 सरना की जमीन इस बैंक में डाल दी गई। सरना से तात्पर्य उस हिस्से से है जहां आदिवासी पूजा पाठ करते हैं।

बंधु तिर्की का कहना है कि सरकार की नजर जमीन पर है और लोग अपनी जमीन बचाने के लिए इस तरह के कदम उठाने के लिए बाध्य हैं। सरकार ने पहले कानून बदलने की कोशिश की फिर गैर मजुरवा (सामूहिक) जमीन की सूची तैयार की है। विकास के नाम पर सरकार यह जमीन उद्योगपतियों को देना चाहती है। अगर ये जमीन चली गई तो आदिवासी अपने मवेशी कहां ले जाएंगे? इनका जीवनयापन कैसे चलेगा? यही सब सोचते हुए लोगों ने अपने तरीके से अपनी जमीन बचाने की कोशिश शुरू कर दी है।  



सरकार का नया पैंतरा

झारखंड सरकार ने हाल ही में एक नया शिगूफा छोड़ा है जिसमें राज्य के प्रत्येक गांव में सरकार ने विकास समिति गठित करने की घोषणा की है।

इस घोषणा के अनुसार, जिन गांव में आदिवासियों की संख्या पचास प्रतिशत या उससे अधिक है वहां आदिवासी विकास समिति बनाने की बात की गई है।

मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि इस विकास समिति की अध्यक्ष महिला ही बनेगी और उसके सदस्य युवा होंगे। मुख्यमंत्री ने चन्दनकियारी में स्वर्गीय पार्वती चरण महतो की जयंती पर विकास मेले में 26 फरवरी को बोलते हुए कहा कि अप्रैल से गांव के विकास का पैसा सीधे गांव समिति को दिया जाएगा।  

यह एक तरह से पंचायती राज संस्था के समानांतर एक और संस्था खड़ा करने जैसा है।  ऐसे प्रयास कई राज्यों में पहले भी हो चुके हैं। जिसके तहत राज्यों ने गांव में कई तरह की अलग समिति बनाने के प्रयास किए जो कानूनन पंचायत के निगरानी में किया जाना चाहिए था। 2001 में खुद एनडीए के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को 27 अप्रैल, 2001 को पत्र लिखकर ऐसा करने से मना करना पड़ा था। उन्होंने पत्र में लिखा, “कानून पास होने के बाद पंचायती राज और ग्रामसभा को संवैधानिक वैधता मिल गई है... पंचायती राज के समानांतर ऐसी संस्था नहीं बनाई जानी चाहिए जो संवैधानिक संस्था के लिए ही खतरा बन जाए।”

संजय बासु मलिक कहते हैं कि सरकार ने पहले पुलिस बल का इस्तेमाल कर आदिवासियों को डराना चाहा पर सफल नहीं हुए तो अब आपसी मतभेद कराकर इन आदिवासियों को नियंत्रित करना चाहते हैं। अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के स्थानीय अध्यक्ष मुकेश बरुआ का कहना है कि सरकार ने यह प्रयास पहले ही शुरू कर दिया है। गांवों में कमल क्लब बनाया जा रहा है जो वैसे तो युवाओं के उज्ज्वल भविष्य की बात करता है लेकिन उसका उद्देश्य लोगों को बांटना ही है। इस क्लब के माध्यम से सरकार कुछ लोगों को फायदा पहुंचाकर अपने खेमे में करना चाहती है।

संघर्ष के मायने

पत्थरगड़ी करने वाले या कहें खुद को स्वायत्त घोषित करने वाले ज्यादातर गांव ऐसे हैं जो गरीबी का दंश झेल रहे हैं। आजादी के बाद जो फायदा इन्हें मिलना चाहिए थे, वे इससे वंचित हैं। यही वजह है कि ये गांव खुद को स्वायत्त घोषित कर गांव का शासन और स्थानीय संसाधन जैसे जंगल, जमीन, खनिज और जल स्रोत अपने हाथ में ले चुके हैं।

दरअसल ग्रामीणों में स्वशासन की इच्छा अस्तित्व पर संकट का नतीजा है। मसलन कर्नाटक के नागरहोल में राजीव गांधी राष्ट्रीय उद्यान से 125 गांवों के अस्तित्व पर खतरा मंडराया तो वे एकजुट हो गए और उन्होंने स्वशासन घोषित कर क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले लिया। हर गांव में एक टास्क फोर्स गठित कर दी गई। क्षेत्र में साइन बोर्ड लगाकर बाहरी लोगों को हिदायत दी गई कि गांव में व्यापार करने से पहले यजमान ले अनुमति लें। इन गांव गणराज्यों के लिए आजादी के संघर्ष का अर्थ जल, जंगल और जमीन पर नियंत्रण से है।

पांचवीं अनुसूची

भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची 10 राज्यों के आदिवासी इलाकों में लागू है। यह अनुसूची स्थानीय समुदायों का लघु वन उत्पाद, जल और खनिजों पर अधिकार सुनिश्चित करती है। कुछ क्षेत्रों में लोग संविधान प्रदत्त अपने इन अधिकारों को हासिल करने के लिए ग्राम सभा की मदद से स्वशासन को अंगीकृत कर रहे हैं। राजस्थान बांसवाडा जिले के डूंगरपुर में स्वायत्तता की घोषणा कर जंगल और खनिजों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। राज्य के आदिवासी इलाकों में ग्राम गणराज्य आंदोलन ने गहरी पैठ बनाई। गुरुंडा तहसील में पहले गांव गणराज्य तलैया ने 1997 में स्वायत्तता घोषित कर दी और एक तालाब को अपने नियंत्रण में ले लिया। यह तालाब वन विभाग के तहत आने वाले संरक्षित क्षेत्र में था। इससे पहले ग्रामीणों ने वन विभाग को पत्र लिखकर कहा था कि वह उन्हें तालाब का इस्तेमाल करने दे नहीं तो वे उसे अपने नियंत्रण में ले लेंगे। जब वन विभाग ने कोई कार्रवाई नहीं तो ग्रामीणों ने तालाब अपने कब्जे में ले लिया।

अंग्रेजों हुकूमत में गांव गणराज्य

लार्ड रिपन ने 1832 को हाउस ऑफ कॉमन्स की चयन समिति को लिखा था “ग्रामीण समुदाय कुछ हद तक गणराज्य हैं। इन्हें जिस चीज की जरूरत होती है, उसका इंतजाम खुद कर लेते हैं। किसी भी विदेशी संपर्क से वे लगभग अछूते हैं।”

रिपन की चेतावनी और 1857 के विद्रोह के बाद गांव गणराज्य अंग्रेजों के निशाने पर आ गए। ब्रिटिश सरकार ने व्यवस्थित तरीके से गांवों का नियंत्रित करने की कोशिश की ताकि वे अपना महत्व खो दें। अंग्रेजों ने सबसे पहले गांव क परंपरागत प्रशासनिक व्यवस्था और कानूनी शक्तियों को कमजोर करने की कोशिश। हालांकि इसमें वे पूरी तरह सफल नहीं हो सके क्योंकि इसके लिए हर गांव में पूरे समाज से लड़ने की जरूरत थी। अंतत: वे आदिवासी क्षेत्रों से पीछे हट गए और इसे एक्सक्लूडेड क्षेत्र के रूप में संबोधित किया (बाद में भारतीय संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची में इस क्षेत्र को स्वायत्तता का दर्जा हासिल हुआ)।

भारत के दूसरे गांवों को 1856 में उस वक्त झटका लगा जब भारत में वनों के पहले इंस्पेक्टर जनरल व जर्मन वनस्पतिशास्त्री डेट्रिक ब्रेंडिस ने वनों का लेखाजोखा तैयार किया। इसके नौ साल बाद 1865 में वन कानून अस्तित्व में आया। भारत के गांव गणराज्य में तब केंद्रीयकरण और बाहरी लोगों का हस्तेक्षप शुरू हुआ। कानून के तहत सरकार का वनों और इसमें मौजूद उत्पादों पर अधिकार स्थापित हो गया और ग्रामीण ब्रिटिश सरकार की दया पर निर्भर हो गए। इसके बाद सरकार ने परंपरागत व्यवस्था को बदलने के लिए ग्रामीण स्तर के संगठन तैयार किए। 1907 में गठित रॉयल कमिशन ने तय किया कि जिला स्तर के बजाय ग्रामीण स्तर से स्थानीय शासन शुरू होना चाहिए लेकिन उसने सरकार द्वारा गठित संगठन जैसे पंचायत को कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने के लिए जरूरी बताया। गांवों पर शासन करने के लिए अंग्रेजों द्वारा बनाई गई पंचायतें 1947 से अस्तित्व में हैं। भारत के स्वतंत्रता सैनानियों ने इसका विरोध किया था। यही वजह है कि स्वाधीनता के संग्राम में ग्राम स्वराज मुख्य अजेंडे के रूप में उभरकर सामने। 1940 के दशक में भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त इन पंचायतों की काट के रूप में गांव आधारित समानांतर व्यवस्था खड़ी की गई। ऐसे बहुत से गांव खुद को अब स्वायत्त घोषित कर चुके हैं।

आजादी के बाद

स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माताओं ने गांव गणराज्य पर बहस की और बहुतों ने इसकी जरूरत पर जोर दिया। लेकिन संविधान के अंतिम प्रारूप में अंग्रेजों की नीति को अपनाने का निर्णय किया गया, वह भी और आक्रामक रूप में। संविधान सभा परंपरागत ग्रामीण संस्थानों को शासन की ईकाई के रूप में कानूनी मान्यता देने में असफल साबित हुई। तब संविधान के रचयिता बीआर आंबेडकर ने कहा था “मुझे खुशी है कि संविधान के मसौदे में गांव के बजाय व्यक्ति को एक इकाई के रूप में स्वीकार किया गया है।” संविधान में केंद्र सरकार के महत्व के साथ राज्यों को अनेक शक्तियां दी गई हैं। जबकि गांवों में स्वशासन पर जोर नहीं दिया गया है। केवल अनुच्छेद 40 में प्रावधान किया गया कि ग्राम पंचायत की पुनर्संरचना के लिए कदम उठाए जाएं और उन्हें ऐसी शक्तियां दी जाएं जिससे वे एक इकाई के रूप में स्वशासन कर सकें।

पिछले कई दशकों से एक तरफ जहां केंद्र और राज्य सरकारों के बीच इन गणराज्यों के भविष्य पर बहस हो रही है, वहीं दूसरी तरफ ऐसी नीतियां बनाई जा रही हैं जिससे उनके सीमित संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित किया जा रहा है। सरकार के व्यवसायिक हितों की पूर्ति का माध्यम वन कानून बन गया है।

इस कानून के जरिए भूमि का बड़ा हिस्सा वन में तब्दील कर दिया गया है। 1871 का कैटल ट्रेसपास एक्ट अब भी बना हुआ है। यह कानून में वन क्षेत्र को संरक्षित करने की वकालत करता है।  इस कानून के कारण ग्रामीण चारा लेने के लिए वन में जाने से वंचित कर दिए गए। पशुओं की भी वनों में चरने की मनाही है। वनों से लकड़ी का व्यवसाय करने के लिए वन निगम गठित कर दिए गए। स्थानीय लोगों का इन निगमों से संघर्ष बढ़ रहा है (देखें वजूद पर सवाल, फरवरी अंक 2018)। ग्रामीणों का मजबूरी में इन निगमों का अपने वन उत्पाद बेचने पड़ रहे हैं।



इसी तरह 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून की मदद से सरकार ने आदिवासी गांवों में भूमि का अधिग्रहण शुरू कर दिया। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की नीति के तहत पानी का केंद्रीयकरण कर दिया गया। सभी जलस्रोत सिंचाई विभाग के अधीन कर दिए गए। पंचायत ऐसे विभागों के लिए एजेंट के रूप में काम करती रही।

1960 के दशक के मध्य में राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान ने एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण किया और यह पाया कि ये संस्थान सरपंच की जागीर बन गए हैं। सर्वेक्षण में स्वशासन के लिए नोडल एजेंसी के रूप में ग्रामसभा के पुनरोद्धार की सिफारिश की गई। 1957 में जाने माने समाजसेवी बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई। समिति को ग्रामीण स्तर की सामुदायिक कार्यक्रमों के पतन के कारणों का पता लगाना था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सिफारिश की। सरकार को आधिकारिक रूप से इस व्यवस्था को अपनाने में 35 साल लग गए। 1992 में पंचायती राज अधिनियम के बाद इसे लागू किया गया। स्वशासन के संवैधानिक प्रावधान के बावजूद राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते इसे लागू नहीं किया जा सका। राजीव गांधी फाउंडेशन की स्टेटस रिपोर्ट के अनुसार, पंचायतों पर प्रभाव डालने क लिए ग्रामसभा को आवश्यक अधिकार नहीं दिए गए।

पेसा का प्रावधान

1996 में पंचायती (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) कानून अर्थात पेसा लागू हो गया। यह कानून पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों के लिए है। यह कानून सैद्धांतिक रूप से गांवों को स्वायत्तता देता है। भूरिया समिति की सिफारिशों के बाद यह कानून बन पाया। पेसा ग्रामसभा को सशक्त बनाता है और उसे लघु वन उत्पाद, सिंचाई और लघु खनिजों पर स्वामित्व प्रदान करता है। इसके तहत ग्राम सभा की सिफारिशें मानने क लिए पंचायतें बाध्य हैं। सही अर्थों में इसकी व्याख्या की जाए तो पता चलेगा कि गांव में प्रवेश के लिए ग्रामसभा की अनुमति की जरूरत है।

1996 में उच्चतम न्यायालय के एक आदेश के बाद पांचवी अनुसूची के प्रावधान प्रकाश में आए। न्यायालय का आदेश था कि अनुसूचित क्षेत्रों में सभी प्रकार के खनन और उद्योग गैरकानूनी हैं क्योंकि इसके लिए ग्रामसभा की इजाजत नहीं ली गई। न्यायालय ने ग्रामसभा की भूमिका को परिभाषित किया और खनन व अन्य कंपनियों को आदेश दिया कि वे अपने राजस्व को कोऑपरेटिव के माध्यम से स्थानीय लोगों के साथ साझा करें।

एक तरफ जहां उच्चतम न्यायालय ने ग्रामसभा के महत्व पर प्रकाश डाला वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार ने 2001 में संविधान में संशोधन कर ग्रामसभा के अधिकारों को सीमित करने की कोशिश की लेकिन पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायण के कारण अपने मकसद में सफल नहीं हो पाई।

न्यायालय के आदेश और सांवैधानिक प्रावधान के बावजूद राज्यों ने अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभा को अधिकार नहीं दिए हैं। केवल मध्य प्रदेश ने इस दिशा में पहल की है और ग्रामसभा के अधिकारों को स्पष्ट किया। पेसा कानून के तहत वन और भूमि से संबंधित कानूनों में संशोधन की जरूरत है क्योंकि इस संसाधनों पर ग्रामसभा का अधिकार है। इसके उलट सरकार ने इंस्पेक्टर जनरल एससी चड्डा की अध्यक्षता में एक समिति गठित कर दी। समिति को यह देखना था कि पेसा के तहत लघु वन उत्पाद ग्रामसभा को सौंपने कितना कारगर है। समिति ने न केवल ग्रामसभा को यह अधिकार सौंपने का विरोध किया बल्कि सरकार को इसे अपने अधीन रखने की सिफारिश कर दी। यही वजह है कि बहुत से गांव गणराज्यों ने लघु वन उत्पाद को अपने हाथों में लेने के लिए संघर्ष शुरू कर दिया है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि देश में एक के बाद एक गांव विकेंद्रीकृत व्यवस्था की मांग कर रहे हैं। सरकार को इतिहास से सबक लेते हुए सत्ता का विकेंद्रीकरण करना चाहिए ताकि विकास का स्वाद गांव का अंतिम आदमी भी चख सके। स्वशासन की मांग को विद्रोह नहीं कहा जाता सकता, यह तो ग्रामीणों का संविधान प्रदत्त अधिकार है। सरकार अगर अब भी नहीं चेती तो बहुत देर हो चुकी होगी।

“आजाद भारत आदिवासियों के लिए सबसे बुरा”
 

आदिवासी अधिकारों के लिए जीवनभर लड़ने वाले समाजसेवी बीडी शर्मा अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उन्होंने जो अलख जगाई थी, वह अब भी बरकरार है। उन्होंने मृत्यु से पूर्व डाउन टू अर्थ को अपने जीवन का अंतिम साक्षात्कार दिया था। उसी साक्षात्कार से चुनिंदा अंश

बस्तर में कलेक्टर की नौकरी छोड़ने के बाद से क्या नहीं बदला?

आदिवासियों द्वारा खुद तय की गई विकास की व्यवस्था नहीं बदली है। वे अब भी प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर जिंदगी गुजार रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके चारों ओर जल, जंगल और जमीन पर्याप्त मात्रा में हैं। यही संसाधन संघर्ष की जड़ भी हैं। आदिवासियों की दुनिया के बाहर के लोग इन संसाधनों पर अधिकार चाहते हैं और खुद के विकास के मॉडल थोपना चाहते हैं। जब मैं बस्तर का कलेक्टर था, तब मैंने बड़ी परियोजनाओं को आदिवासियों पर नहीं थोपा था। यकीन मानिए, इसके बाद माओवादी दूर हो गए थे।

क्या आपको लगता है कि आदिवासी क्षेत्रों में पहुंच को नियंत्रित करने की जरूरत है?

हां। मुझे लगता है कि हम लोगों ने संविधान की धारा 19 को मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में लागू न करके गलती की है। यह धारा पूरे भारत में घूमने फिरने का मौलिक अधिकार देती है लेकिन कुछ क्षेत्रों में इसे सीमित करती है। हमने पूर्वोत्तर के राज्यों में इन सीमाओं को लागू किया है।

लेकिन संविधान में तो आदिवासियों के अधिकारों का उल्लेख है।

यह संविधान के व्याख्या की एक और समस्या है। पेसा क्रांतिकारी कानून है। लेकिन इसके बनने के 16 साल बाद भी राज्यों ने इसे सही ढंग से लागू करने के लिए दिशानिर्देश जारी नहीं किए हैं। हमें धारणा में बदलाव लाना होगा। इस कानून को लेकर राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के बीच खींचतान की स्थिति है। पेसा केंद्रीय कानून नहीं है बल्कि यह संविधान की पांचवी अनुसूची के तहत बना है जो आदिवासियों को प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व प्रदान करता है। पेसा को ठीक से लागू करने में किसी की दिलचस्पी नहीं है। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने एक बार मुझसे कहा था कि पेसा पर संसद में वोट हुआ था क्योंकि किसी ने उसे नहीं पढ़ा था। इससे पता चलता है कि हमारे कानून निर्माता कितने गंभीर हैं।

पंचायतों में लोगों को कम भरोसा है। इसके बावजूद विकास कार्यों के लिए उनके पास पर्याप्त निधि है। आप इस विडंबना को कैसे देखते हैं?

पंचायतों ने लोगों को सशक्त बनाने के लिए कुछ नहीं किया है। आदिवासियों के पास शासन की परंपरागत व्यवस्था है। इसे संवैधानिक मान्यता प्राप्त है। आप इन परंपरागत व्यवस्था को मजबूत क्यों नहीं करते? अंग्रेजों के शासन के दौरान भी आदिवासी क्षेत्रों का एक्सक्लूडेड क्षेत्र घोषित किया गया था जिसमें स्थानीय संसाधनों पर लोगों का अधिकार था। आजाद भारत आदिवासियों के लिए सबसे बुरा
साबित हुआ है।

स्वराज की सीख
 

कामयापेटा, विशाखाट्टनम, आंध्र प्रदेश



पूर्वी घाट में बसे इस गांव ने मार्च 1999 को पत्थरगड़ी कर खुद को स्वायत्त घोषित किया था। यह गांव करीब 5 दशकों तक सरकारी रिकॉर्ड में नहीं था। मानसून में कामयापेटा दूसरे इलाकों से पूरी तरह कट जाता था। सड़क न होने पर न तो ग्रामीण बाजार जा सकते थे और न ही अपने वन उत्पाद या उपज बेच सकते थे। ग्रामीण जब भी सरकारी अधिकारियों के पास मदद की गुहार लगाते, उन्हें पुलिस द्वारा खदेड़ दिया जाता था। पत्थरगड़ी कर स्वायत्त घोषित करने के बाद हालात बदल गए। ग्रामीणों ने पहली बैठक में सरकार को पुल बनाने और प्राकृतिक संसाधनों जंगल, जमीन और जल स्रोतों पर अधिकार देने को कहा।



तीन साल के भीतर सरकार ने ढाई करोड़ रुपए की लागत से पुल बनाने का काम शुरू कर दिया। अब अधिकारी ग्राम सभा के सम्मन को हल्के में नहीं ले सकते। कामयापेटा के लिए यह दूसरी आजादी जैसा था। कामयापेटा आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी मारी कामया का गांव है जो अपनी जमीन और जंगल बचाने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में शामिल हुए थे लेकिन आजादी के बाद मारी की जमीन और घर जब्त कर लिया और गांव को अपराधी का तमगा दे दिया गया। मारी को उम्मीद थी कि आजादी के बाद गांव का परंपरागत शासन तंत्र बहाल होगा लेकिन हुआ उलट। इस कारण भी लोगों के मन में असंतोष की भावना पनपी और उन्होंने खुद को स्वायत्त घोषित करने का निर्णय लिया।

डोंगरीपाडा, धमतारी जिला, छत्तीसगढ़



छत्तीसगढ़ का डोंगरीपाडा गांव “डोंगरीपाडा गांव गणराज्य” के नाम से चर्चित है। आजादी मिलने के करीब 50 साल बाद 18 अक्टूबर 1997 को इस गांव ने स्वायत्तता की घोषणा की। इस दिन में गांव में उत्सव मनाया जाता है और सभी ग्रामीण बेसब्री से इस दिन का इंतजार करते हैं। यह गांव हल्वा, गोंड और केवट जनजातियों का घर है। गांव की आबादी मुख्य रूप से खेती और वन उत्पादों पर निर्भर है। ग्रामीणों और प्रशासन के बीच संघर्ष उस समय बढ़ा जब पंचायत ने ग्रामीणों को परंपरागत अधिकारों से वंचित कर दिया। गांव का तालाब मछली का कारोबार करने के लिए ठेके पर दे दिया गया, साथ ही लोक निर्माण विभाग को पहाड़ियों से पत्थरों को निकालने का अधिकार दिया गया।



इसी संघर्ष ने ग्राम सभा को जन्म दिया। ग्रामसभा ने सबसे पहले सरकारी अधिकारियों के लिए गांव के दरवाजे बंद कर दिए फिर डोंगरी यानी पहाड़ी और तालाब को अपने कब्जे में ले लिया। गांव के संविधान (जो पत्थर पर अंकित कर दिया गया है) में सभी लोगों को बराबर कर अधिकार दे दिया गया। ग्राम सभा की पहल से 10 सदस्यीय वन रखवाली समिति गठित की गई, नतीजतन 10 साल के भीतर ही डोंगरी हरी-भरी हो गई। ग्राम सभा सामुदायिक मछलीपालन करती है और इससे जो पैसा मिलता है उसे गांव के विकास पर खर्च किया जाता है। लोक निर्माण विभाग को डोंगरी से एक टुकड़ा भी लेने की इजाजत नहीं है। डोंगरीपाडा में ग्राम सभा इतनी शक्तिशाली हो गई है कि वह गांव की हर गतिविधि पर नजर रखती है और कार्यकारी समिति के माध्यम से अपने निर्णय लागू कराती है।

मेंढा लेखा, गढ़चिरौली, महाराष्ट्र



“हमारे गांव में हमारी हम सरकार हैं, दिल्ली मुंबई में हमारी सरकार है” मेंढा लेखा के गांव के लोगों के मन में यह वाक्य रच-बस गया है। महाराष्ट्र का यह गांव ग्राम स्वराज की अवधारणा को फलीभूत कर रहा है। गोंड आदिवासी बहुल इस गांव का 80 प्रतिशत क्षेत्र घने जंगलों से आच्छादित है। यही वजह है कि 1950 में वन विभाग की नजरें इस गांव पर टिकी थीं। वन कानून का हवाला देकर विभाग ने इस पर नियंत्रण कर लिया था।

मेंढा लेखा की ग्राम सभा कितनी ताकतवर है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि साल 2000 में गांव में प्रवेश करने के लिए महाराष्ट्र के पूर्व उपराज्यपाल पीसी एलेक्जेंडर को ग्राम सभा से अनुमति लेनी पड़ी थी। यह गांव की स्वायत्तता का सम्मान था। यह भारत का शायद पहला ऐसा गांव है जहां सामुदायिक काम को निजी काम के तौर पर देखा जाता है और सभी को इसमें अपना योगदान देना होता है। गांव में हर व्यक्ति अपनी सालाना आय से 10 प्रतिशत ग्राम सभा के फैसलों का लागू करने के लिए देते हैं। गांव में कोई भी काम शुरू करने के लिए ग्रामसभा की अनुमति अनिवार्य है।



1950 में सरकार ने गांव को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर इसके वनों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। ग्राम सभा ने इसे चुनौती देने के लिए परंपरागत घोटूल तंत्र को विकसित करने का फैसला किया। घोटूल लकड़ी के एक बाडे जैसा होता है जिसके अंदर लड़के और लड़कियों को आदिवासियों की परंपराओं से अवगत कराया जाता है। वन विभाग ने दलबल के साथ पहुंचकर घोटूल को तोड़ दिया। इससे ग्रामीण भड़क उठे और उन्होंने 32 गांवों की महासभा बुलाई। इसमें वनों के अधिकार पर मेंढा लेखा की लड़ाई का समर्थन किया गया। विरोध स्वरूप 12 अन्य गांवों में घोटूल बनाया गया और वन विभाग को पीछे हटना पड़ा। 1992 में गांव ने वनों के अधिकार के लिए निर्णायक लड़ाई लड़ी।

उस समय 80 प्रतिशत जंगल संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया था। ग्राम सभा ने सरकार के इस निर्णय को चुनौती दी और वनों पर नियंत्रण और प्रबंधन के लिए वन सुरक्षा समिति का गठन किया। ग्राम सभा ने बड़ी संख्या वाटरशेड कार्यक्रम शुरू किए। इन प्रयासों के चलते मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार हुआ। अंतत: वन विभाग ने 1996 में वन विभाग ने वनों को प्रबंधन ग्रामीणों को सौंप दिया। बाद में राज्य सरकार ने सभी परंपरागत अधिकार ग्रामीणों को सौंप दिए। मेंढा लेखा की यह बड़ी जीत थी।