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मजदूर दिवस : जारी है शोषण, न्यूनतम मजदूरी अब भी सपना

दिल्ली में न्यूनतम मजदूरी सर्वाधिक है लेकिन मजदूरों को उनका हक नहीं मिल रहा, श्रमिकों को 6,000 से 10,000 रुपए का मासिक वेतन दिया जा रहा है

Bhagirath

“मुझे सात हजार रुपए मिलते हैं। हमें साप्ताहिक छुट्टी मिलती है लेकिन बीमार होने पर कोई छुट्टी नहीं मिलती। अगर हम कोई छुट्टी लेते हैं तो हमारी मजदूरी काट ली जाती है।” यह दर्द दिल्ली के वजीरपुर में काम करने वाले मजदूर राजन का है। राजन मुकुंदपुर में रहते हैं और स्टील की फैक्ट्री में काम करते हैं। दिल्ली और देशभर में ऐसे मजदूर बड़ी तादाद में हैं जिनके लिए न्यूनतम मजदूरी अब भी सपना ही है। यह स्थिति तब है जब दिल्ली सरकार ने अकुशल श्रमिकों के लिए 14,000 रुपए का न्यूनतम वेतन निर्धारित कर रखा है जो देश में सर्वाधिक है।

हालांकि कानून के डर से कुछ फैक्टरियां रिकॉर्ड में मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी दे रही हैं, लेकिन यह महज दिखावा ही होता है। ओखला स्थित एक गारमेंट फैक्ट्री में काम करने वाले एक कामगार ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया, “कंपनी मुझे हर महीने 21,000 रुपए का चेक देती है लेकिन तीन-चार दिन बाद ही 11,000 रुपए कैश के रूप में ले लेती है। ऐसे में मेरे हाथ में केवल दस हजार रुपए ही आते हैं।” उनका कहना है कि कंपनी ने कानून से बचने के लिए यह हथकंडा अपनाया है।

उल्लेखनीय है कि दिल्ली में न्यूनतम मजदूरी को सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने पिछले साल 10 दिसंबर को 10 दिन तक खास मुहिम “ऑपरेशन मिनिमन वेजेज” चलाया था। इस दौरान सरकार द्वारा की गई रेड में 20 ऐसे अस्पताल, स्कूल, निजी कंपनियां और सरकारी दफ्तर मिले थे जहां न्यूनतम मजदूरी के नियमों का पालन नहीं किया जा रहा था। दिल्ली सरकार के तमाम उपाय भी न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित नहीं कर पाए हैं। ओखला का उदाहरण बताता है कि कंपनियों ने सरकार की कार्रवाई से बचने का तोड़ भी निकाल लिया है। ओखला की गारमेंट फैक्टरी में काम करने वाले कामगार ने बताया कि उन्हें आधे से ज्यादा पैसे कंपनी को लौटाने पड़ते हैं। ऐसा न करने पर नौकरी से निकाल दिया जाएगा।

हाल ही में ऑक्सफेम द्वारा प्रकाशित “ माइंड द गैप, द स्टेट ऑफ इम्प्लॉयमेंट इन इंडिया” रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली समेत संपूर्ण भारत में मजदूरों की स्थिति बेहद दयनीय है।  रिपोर्ट के अनुसार, वजीरपुर में चल रहीं स्टील पिकलिंग यूनिट्स में अकुशल श्रमिकों को 6,000 रुपए से 10,000 रुपए का मासिक वेतन दिया जा रहा है। पॉलिश करने जैसे श्रमसाध्य काम के लिए प्रति पीस के आधार पर भुगतान किया जा रहा है। चाक मिट्टी के काम से जुड़े श्रमिकों को करीब 7,500 रुपए की मासिक मजदूरी मिलती है। यह राशि सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी की करीब आधी राशि है।

इन औद्योगिक इकाइयों में मजदूरों को भविष्य निधि और ईएसआई (इम्प्लॉयी स्टेट इंश्योरेंस) जैसी योजनाओं का भी लाभ नहीं मिलता। पॉलिश से जुड़ी औद्योगिक इकाइयों में स्वास्थ्य जोखिम बहुत अधिक रहता है क्योंकि भारी प्रदूषण के बीच काम करना पड़ता है। पॉलिश की धूल कर्मचारियों के फेफड़ों में पहुंचकर बीमार करती है।

रिपोर्ट बताती है कि गारमेंट के गढ़ यानी गुड़गांव में दिहाड़ी मजदूरी करने वाली महिलाओं को नौ घंटे के काम के लिए 318.40 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से भुगतान होना चाहिए लेकिन उनसे दस घंटे से भी ज्यादा काम लिया जा रहा है। इन महिलाओं को बमुश्किल 250 से 280 रुपए के बीच भुगतान किया जा रहा है।  

रिपोर्ट बताती है कि सेवा क्षेत्र में भी नियमों की उपेक्षा हो रही है। दिल्ली में सिक्युरिटी एजेंसी से जुड़े एक गार्ड ने बताया कि उन्हें 14,000 रुपए का मासिक वेतन मिलता है। न्यूनतम मजदूरी कानून के मुताबिक, मासिक मजदूरी 26 दिनों के लिए निर्धारित होनी चाहिए और काम के घंटे भी प्रतिदिन आठ होने चाहिए। गार्ड ने बताया कि उन्हें पूरे महीने काम करना पड़ता है और वह भी बारह घंटे। गार्ड ने बताया “सिक्युरिटी एजेंसी जिस दस्तावेज में हस्ताक्षर करवाती है उस पर लिखा होता है कि हम 26 दिन काम आठ घंटे के हिसाब से काम करते हैं। हमें साप्ताहिक अवकाश और अन्य सरकारी छुट्टियां मिलती हैं। लेकिन सच यह है कि पिछले एक साल के दौरान मुझे एक भी छुट्टी नहीं मिली है।” गार्ड ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि अगर कोई बीमार होने पर छुट्टी करता है कि उसका वेतन काट लिया जाता है।

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा 2018 में प्रकाशित “ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट” बताती है कि “एक ही काम के लिए मजदूरी में असमानता” के मामले में भारत 149 देशों में 72वें स्थान पर है। यह अंतर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार देखा जा रहा है।

उदाहरण के लिए गारमेंट फैक्टरियों में मजदूरी में असमानता नौकरी देने के साथ शुरू हो जाती है। अधिकांश पुरुषों को सुपरवाइजर स्तर पर नौकरी दी जाती है और उन्हें महिलाओं के मुकाबले अधिक वेतन मिलता है। दूसरी तरफ महिलाएं टेलर, ट्रिमर और कटर के तौर पर नियुक्त की जाती हैं। यही काम करने वाले पुरुषों को महिलाओं से अधिक वेतन मिलता है।

बता दें कि इसी साल फरवरी में सरकार द्वारा बनाई गई विशेषज्ञ समिति ने राष्ट्रीय स्तर पर न्यूनतम मजदूरी 4576 रुपए से बढ़ाकर 9750 रुपए करने का प्रस्ताव दिया था। फिलहाल विभिन्न राज्यों में यह मजदूरी अलग-अलग है। ऑक्सफेम की रिपोर्ट के अनुसार, केवल निजी क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि मनरेगा के तहत निर्धारित मजदूरी भी 14 राज्य नहीं दे रहे हैं।