बिहार में भूमि सर्वेक्षण का अभियान राज्य के भूमि विवादों को सुलझाने के उद्देश्य से शुरू किया गया था, लेकिन यह प्रक्रिया विवादों और विरोधों से घिर गई है। 2020 में शुरू हुआ यह सर्वे अब समयसीमा विस्तार के बाद छह महीने तक बढ़ा दिया गया है।
हालांकि, इसे लेकर आम जनता और सरकार के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है, खासकर उन लोगों के लिए जिनके पास पुराने दस्तावेज या मौखिक बंटवारे के आधार पर भूमि का अधिकार है। भ्रष्टाचार, कैथी लिपि की समस्या और भूमि विवादों ने इस सर्वेक्षण की प्रक्रिया को और जटिल बना दिया है। बिहार में भूमि सर्वे को लेकर बढ़ते विवादों के बीच यह सवाल उठता है कि क्या यह अभियान शराबबंदी की तरह विफल होगा, या फिर यह नया इतिहास रचेगा।
जनगणना 2011 के जनसंख्या घनत्व डेटा के अनुसार बिहार सबसे घनी आबादी वाला राज्य है। इस वजह से सभी लोगों के लिए भूमि की उपलब्धता नहीं होने के कारण बिहार में जमीन विवाद के मामले हर साल बड़ी संख्या में दर्ज होते हैं। इस समस्या से निपटने के लिए राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग बिहार में करीब 45,000 गांवों में भूमि सर्वे यानी जमीन के कागजात और नाम को अद्यतन करवा रही है। 2020 में शुरू हुए इस सर्वे की चर्चा अचानक तब ज्यादा होने लगी जब इसे एक निश्चित समय का लक्ष्य देकर पूरी करने की बात सरकार के द्वारा कही जाने लगी। इसके बाद सदन से लेकर सड़क तक इस सर्वे का विरोध होने लगा।
जिसके बाद बिहार सरकार 21 सितंबर, 2024 को राज्य में चल रहे भूमि सर्वेक्षण पर तीन महीने के लिए रोक लगा दी। राज्य के भूमि सुधार मंत्री दिलीप कुमार जायसवाल ने इस फैसले पर स्पष्ट रूप से कहा है कि 100 से अधिक वर्षों के बाद किए जा रहे इस अभियान में सर्किल ऑफिस स्तर पर भ्रष्टाचार की शिकायत सामने आई हैं। इसलिए कागजात सुधारने के लिए तीन महीने का समय दिया गया है,क्योंकि लोगों को दस्तावेज़ प्राप्त करने में समस्या आ रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी अधिकारियों को विशेष निर्देश दिया है कि जितनी जल्दी हो सके, वे अपना काम पूरा कर लें।
फिर दिसंबर 2024 को कैबिनेट बैठक में सर्वे मामले में नया फैसला लिया। सरकार ने सर्वे की अवधि को सीधे 6 महीने तक बढ़ा दिया है। बिहार सरकार की ओर से सर्वे के लिए दिए गए समय में बढ़ोतरी की गई है। अब लोगों को स्व घोषणा प्रमाण पत्र देने के लिए 180 दिन का समय और दावा करने का 90 दिन और निपटारा के लिए भी 60 दिन का समय मिलेगा। पहले यह अवधि क्रमशः 30-15-15 दिन था। वरिष्ठ पत्रकार राजेश ठाकुर के मुताबिक आने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर यह फैसला लिया गया है. उन्होंने कहा कि “विधानसभा चुनाव के बाद ही जमीन सर्वे बिहार में कराया जाएगा।”
नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनने के बाद लगातार जनता दरबार लगाते रहे हैं। इस दौरान सबसे ज्यादा मामला भूमि विवाद से संबंधित आता था। बिहार सरकार के द्वारा इस सर्वे का मूल मकसद मूलतः जमीन विवाद खत्म करने के लिए भूमि के मालिकाना हक का प्रॉपर कागज तैयार करना और पुराने नक्शे और खतियान को अद्यतन करने की है। ऐसे में सरकार के इस बेहतरीन कदम का क्यों विरोध हो रहा है? हम इसकी पड़ताल करते है।
लोगों की जुबानी-सर्वे की कहानी
बिहार सरकार के द्वारा गठित डी बंदोपाध्याय की अध्यक्षता में ‘भूमि सुधार आयोग’ के रिपोर्ट के मुताबिक 1999-2000 तक भूमिहीन लोगों का आंकड़ा 75 प्रतिशत था। एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में 104.32 लाख किसानों के पास कृषि भूमि है। जिसमें 82.9 प्रतिशत भूमि जोत सीमांत किसानों के पास है और 9.6 प्रतिशत छोटे किसानों के पास है और केवल 7.5 फीसदी किसानों के पास ही दो हेक्टेयर से ज्यादा की जमीन है।
ऐसे में राज्य के अधिकांश भूमिहीन तबके पर जहां इस सर्वे का कोई खास असर नहीं हो रहा है। वहीं जिसके पास थोड़ी भी जमीन है, वो नीतीश सरकार के द्वारा शुरू हुआ जमीन सर्वे के अभियान पर काफी गुस्सा में है। बिहार के लोगों के मुताबिक जमीन सिर्फ स्वामित्व से जुड़ा मसला नहीं है बल्कि सामाजिक इज्जत को प्रदर्शित करता है।
सिविल वकील कुणाल कश्यप बताते हैं कि सर्वे के दौरान रैयतों को अपनी जमीन के कागज दिखाने होते हैं, जिनका पुराने खतियान से मिलान किया जाता है। मिलान हो जाने के बाद प्रशासन की तरफ से जमीन की नापी कर के रैयतों को लैंड पार्सल मैप यानी एलपीएम दिया जाता है। अगर जमीन सर्वे कर्मचारियों के द्वारा कोई गलती होती हैं तो जमीन मालिकों को अपील करने का अधिकार है।
बिहार के सुपौल जिला स्थित पिपरा प्रखंड के रहने वाले अविनाश कुमार बताते हैं कि, “मेरे पास लगभग 10 बीघा जमीन है। जिसमें दो बीघा जमीन पापा ने खरीदा था, जिसका पूरा कागज मेरे पास है। बाकी सारी जमीन पुश्तैनी जमीन है। दादाजी के समय में इसका बंटवारा मौखिक रूप से किया गया था। जिस वजह से कोई लिखित कागजात नहीं है। कुछ जमीन तो बेच भी दी गई है। बिहार से बाहर रहने की वजह से किसी ने भी पुश्तैनी जमीन की मुटेशन नहीं हो पाया है। पहले के जमाने में गांव में अधिकांश जमीन का बंटवारा मौखिक आधार पर होता था।”
वहीं सुपौल जिला स्थित वीना पंचायत के रहने वाले रोहित मिश्रा बताते हैं कि,”मेरे पास 8 कट्ठा जमीन है। जिसका कीमत अभी लगभग 80 लाख रुपया होगा। जब सर्वे की खबर आई तो हमने जमीन की कागज खोजी, तो पता चला कि गांव के ही दूसरे व्यक्ति से यह जमीन हमारे पूर्वज को अदला बदली में मिली थी। हमने जिसको जमीन दी थी उसकी कीमत 10 लाख भी नहीं होगी। ऐसे में सर्वे के वक्त वह हमारे साथ बेईमानी कर सकता हैं, क्योंकि जमीन उसके पूर्वज के नाम पर है। जबकि पूरा समाज जानता है कि वर्षों से उस जमीन पर हमारे परिवार का आधिपत्य रहा है।”
सुपौल जिला स्थित चंद्र नाथ झा, पेशे से वकील है। वह बताते हैं कि,”बिहार के कई घरों में पहले मौखिक रूप से बंटवारा हुआ है। वहीं पहले के जमाने में जमीन अदला बदली होती थी। यानी जमीन का आदान-प्रदान कागज नहीं बल्कि मौखिक रूप से ही किया जाता था। सर्वे के वक्त यह दोनों स्थिति सबसे ज्यादा लोगों के लिए मुश्किल खड़ी कर रही है। वहीं सर्वे फार्म के साथ खतियान और वंशावली भी जमा करना होता है। जिसमें बहन का हस्ताक्षर भी जरूरी है। बिहार में आज भी बेटियों को हिस्सेदार के रूप में नहीं रखा जाता है। सर्व आने के बाद कई घर में इसको लेकर भी समस्या खड़ी हो रही है।”
सर्वे नियम के मुताबिक यदि किसी रैयत को जमीन आपसी बंटवारा के आधार पर मिली है तो उससे संबंधित कागजात उन्हें जमा करना होगा। वहीं मौखिक बंटवारा यानि बगैर स्टांप पेपर के हुए बंटवारे के नाम पर वह किसी जमीन को अपना नहीं बता सकेंगे। बंटवारा नहीं हुआ है तो जो जिस जमीन पर रह रहे हैं या बेच दी है, अगर आपसी सहमति का कागज बना दिया गया है तो सर्वे में इस तरह से नाम चढ़ा दिया जाएगा। अगर किसी का टाइटल सूट या कोर्ट में विवाद है तो पहले फेज में इसपर होल्ड रखा जाएगा।
समाजसेवी और स्थानीय नेता धर्मेंद्र जी के मुताबिक रोहतास जिला स्थित उनके अकबरपुर गांव का खतियान सरकारी दस्तावेज से गायब है। धर्मेंद्र जी बताते हैं कि, “लगभग सभी जिले की कमोबेश यहीं स्थिति है। खतियान के लिए रोज-रोज भीड़ बढती जा रही है। ऑनलाइन जमाबंदी में भी 80%से ज्यादा गलतियां हैं, जिसे सुधारने के नाम पर खुब आम जनता का दोहन किया जा रहा है। सर्वे की स्थिति भी शराबबंदी जैसी ही होगी।”
नोएडा की प्राइवेट कंपनी में काम कर रहें सहरसा जिला के अविनाश मंडल अपनी जमीनी कागज को खोजने में व्यस्त हैं। वह बताते हैं कि,”सरकार लोगों को जमीन सर्वे के नाम पर अनावश्यक रूप से परेशान कर रही है। रैयत लोग, जिन्होंने जमीन अपने पूर्वजों से स्वाभाविक रूप से हासिल की ओर जिन्होंने कभी खतियान देखा तक नहीं, वे आज खतियान कहां से प्रस्तुत करें! सरकार को यदि सर्वे करवाना ही है, तो कोई विकल्प निकाले और लंबा समय ले।” कई लोगों से बात करने के बाद यह पता चलता है कि इस जमीन सर्वे ने दशकों से शिथिल पड़े पारिवारिक एवं ग्रामीण विवादों को खड़ा कर दिया है।
जमीन सर्वे को लेकर शुरू हुआ खूनी खेल?
दिसम्बर 2020 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग की समीक्षा बैठक में बयान दिया था कि बिहार में 60% क्राइम जमीन विवाद के कारण होता है। बिहार में भूमि अधिकारों को लेकर लंबे समय से संघर्ष होता रहा है। 2000 ईस्वी के अंत तक बिहार में भूमि को लेकर कई नरसंहार हुए है। बिहार के कई स्थानीय पत्रकार इस बात को मानते हैं कि जमीन सर्वे की खबर के बाद बिहार में अखबारों के पन्ने भूमि पर कब्जे और कागजात के लिए होने वाली मारपीट से भरे जा रहे हैं।
18 सितंबर को बिहार के नवादा में दलित बस्ती के 80 घरों को जला दिया गया था। स्थानीय पत्रकार सृजन बताते हैं कि पूरा मामला जमीन विवाद को लेकर था। पूरा दलित बस्ती यहां बसा हुआ है जबकि दूसरा पक्ष इस जमीन को लेकर अपना दावा करती आई है।
लेकिन इस घटना के बाद गृह विभाग के समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि राज्य में भूमि को लेकर हत्याओं की संख्या में कमी आ रही है—मार्च 2024 तक के आंकड़े में हत्याओं में कमी हुई है, यह 60% से घटकर 46.69% हो गई है।
सत्ता पक्ष में बैठे नेता सर्वे के पक्ष में खुलकर कहते हैं कि इस सर्वे से आम जनता को नहीं बल्कि भू माफियाओं को परेशानी हो रही है। राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री डॉ. दिलीप कुमार जायसवाल ने मीडिया में बयान दिया था कि राज्य सरकार की करीब 52 हजार एकड़ जमीन पर अवैध कब्जा है।
सर्वे की बाधा पर सरकार की तैयारी
तमाम विरोध के बावजूद बिहार सरकार लगातार जमीन सर्वेक्षण का काम कर रही है। राज्य के भू-अभिलेख एवं परिमाप निदेशक जे प्रियदर्शिनी ने बताया कि बिहार में जमीन सर्वे के तहत अब तक 38 लाख लोगों ने ऑनलाइन और ऑफलाइन स्वघोषणा पत्र दायर कर अपनी भूमि का ब्योरा दिया है। वहीं, राज्य के लगभग 9889 गांवों का नया खतियान लिखा जा चुका है, बचे हुए करीब 25 हजार गांवों का नया खतियान लिखने का काम जारी है। सबसे अधिक आवेदन रोहतास और गया जिले से आए है।
बिहार विशेष सर्वेक्षण एवं बंदोबस्त नियमावली 2012 के नियम 3 (1) के तहत लोगों को जमीन के कागजात के साथ एक स्व-घोषणा पत्र (सेल्फ डिक्लेरेशन) भी जमा करना होता है। नियम के मुताबिक अधिसूचना के प्रकाशन की तिथि से 30 दिनों के भीतर स्व-घोषणा प्रस्तुत की जानी चाहिए, हालांकि, विशेष परिस्थितियों में अवधि को 10-15 अतिरिक्त दिनों तक बढ़ाया जा सकता है। हालांकि अब इस अवधि को बढ़ा दिया गया है।
नाम न बताने की शर्त पर भूमि सुधार विभाग के एक अधिकारी बताते हैं कि विभाग के अधिकारी की मांग थी कि समय को और बढ़ाया जाए। एक बार स्वघोषणा पत्र वाला विवाद समाप्त हो जाए तो सर्वे अभियान सरपट बढ़ जाएगा। सरकार के द्वारा इसे अब तक की सबसे बड़ी बाधा के रूप में चिह्नित किया गया है।
वहीं दूसरी सबसे बड़ी समस्या कैथी भाषा को लेकर हो रही है। अधिकांश भू स्वामियों के जमीनी कागजात और खतियान के दस्तावेज कैथी लिपि में लिखे हुए हैं। बीएनएमयू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर शशी झा के मुताबिक आजादी से पहले कैथी बिहार में एक प्रचलित लिपि रही है, इसलिए आजादी के डेढ़ दशक बाद तक जमीन से जुड़े कागजात इसी लिपि में लिखी गई।
वर्तमान में इस लिपि को पढ़ने वाले लोग कम हैं. सर्वे के दौरान इसको लेकर जमीन के मालिक और जमीन सर्वे करने वाले कर्मचारियों को अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। ग्रामीणों के मुताबिक जो कुछ लोग कैथी जानते भी हैं, वे कैथी लिपि में लिखे दस्तावेज पढ़ने के लिए मोटी रकम की डिमांड कर रहे हैं।
हालांकि, इस समस्या से निजात दिलाने के लिए राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग के द्वारा कैथी भाषा से संबंधित जिला स्तरीय प्रशिक्षण कराया जा रहा है। 5 दिसंबर 2024 को राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग द्वारा कैथी लिपि से संबंधित पुस्तिका का विमोचन किया गया है।
नाम न बताने की शर्त पर कैथी भाषा का प्रशिक्षण ले रहे कर्मचारी बताते हैं कि, “नौकरी लेने के बाद काम को लेकर इतनी पुरानी भाषा सीखनी पड़ेगी सोचा नहीं था। इतने कम दिनों में सिर्फ इस भाषा को बुनियादी तरीके से ही पढ़ा और समझा जा सकता है।”
भूमि सर्वेक्षण को लेकर बिहार के कई जगहों से भ्रष्टाचार की खबरें आ रही हैं। कहीं अधिकारी रिश्वत के आरोप में गिरफ्तार हो रहे है तो कहीं वीडियो वायरल हो रहा है। विभाग में काम कर रहें अधिकारी बिना पहचान के बताते हैं कि बिहार के सरकारी कार्यालय में ज्यादातर भूमि के रिकॉर्ड व्यवस्थित ढंग से मौजूद नहीं है। बिहार सरकार भी इसपर रोक लगाने का फैसला ले रही है, जैसे बिहार सरकार ने राजस्व भूमि सुधार विभाग में 146 अधिकारियों का तबादला किया और विभाग के वरिष्ट अधिकारी इसका निरीीक्षण करेंगे।
सितंबर 2024 को भूमि एवं राजस्व विभाग ने सर्वे में आ रही दिक्कत को दूर करने के लिए 1800 345 6215 टोल फ्री नंबर जारी किया है। मैं पिछले 2 दिन से लगभग 10 बार इस नंबर पर फोन कर चुका हूं। हर बार यह नंबर बिजी बताई जा रही है।
सरकार और आम जनमानस के बीच टकराव
सर्वे के दौरान सरकार मठ-मंदिरों के साथ अपनी जमीन का भी पता लगा रही है। ऐसे में बिहार में कई ऐसी जमीन है, जिसको लेकर आम जनता और सरकार के बीच विवाद है, इसके अलावा गैरमजरूआ जमीन को लेकर भी संघर्ष की स्थिति पैदा हो रही है।
इसी क्रम में बिहार का रामसर साइट घोषित कांवर झील की 15780 एकड़ विवादित जमीन को लेकर सरकार और आम जनता के बीच टकराव हो रही है। बेगूसराय जिला स्थित मंझौल निवासी और पेशे से लेखक अजय कुमार बताते हैं कि, “झील की जमीन को लेकर 6 सालों से अनुमंडल कोर्ट में मामला चल रहा है। अब सर्वे के वक्त सभी जमीन को बिहार सरकार के वन विभाग के नाम पर किया जा रहा है, जबकि कोर्ट का डिसीजन आना बचा हुआ है। इसलिए हम सड़क पर उतरकर सरकार का विरोध कर रहे हैं।”
आम आदमी के अलावा राज्य की विपक्षी पार्टी भी इस सर्वे का विरोध कर रही है। राष्ट्रीय जनता दल पार्टी का आरोप है कि सरकार ने बिना किसी तैयारी के भूमि सर्वेक्षण का काम शुरू कर दिया है।
बिहार में कृषि व जोत वाली जमीन का पहला सर्वेक्षण ब्रिटिश शासन के अधीन 1890 से 1920 तक चला,जिसे कैडस्ट्रल सर्वेक्षण कहा जाता है। फिर दूसरा सर्वेक्षण 1952 में शुरू हुआ,जिसे रिविजनल सर्वे का नाम दिया गया, हालांकि इसे सिर्फ 23 जिलों में ही पूरा किया जा सका था। यह तीसरा जमीन सर्वेक्षण बिहार विशेष सर्वेक्षण बंदोबस्त नियमावली 2012 के तहत किया जा रहा है। बिहार के अलावा केंद्र एवं अन्य राज्य में भी इस तरह के प्रयास किए गए हैं। जिसमें गुजरात, आंध्र प्रदेश समेत कई राज्य शामिल है। अभी तक किसी भी राज्य में सर्वे का काम पूरा नहीं हो सका है। ऐसे में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसे पूरा कर पूरे देश में पहले लैंड सर्वे का रिकॉर्ड पूरा कर सकते हैं।
(यह स्टोरी लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच के लिए लिखी गई है, जो शोधकर्ताओं का एक स्वतंत्र नेटवर्क है और जमीन व प्राकृतिक संसाधनों पर शोध करता है)