राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के दो गांव के लोग इन दिनों लगभग रोजाना धरने-प्रदर्शन कर रहे हैं, क्योंकि उनकी ग्राम पंचायतें भंग कर नगर परिषद में शामिल कर ली गई हैं। ये गांव हैं सतीपुरा एवं 2 केएनजे। 10 जनवरी 2025 को राज्य के स्वायत शासन विभाग ने अधिसूचना जारी कर सतीपुरा ग्राम पंचायत के चक 45 व 50 एनजीसी (ग्रामीण) तथा 2 केएनजे पंचायत के चक 1 एवं 2 को नगर परिषद में शामिल कर दिया। लेकिन ग्रामीणों को “शहरी” बनना रास नहीं आ रहा है। इस फैसले का विरोध कर रहे ग्रामीणों की सबसे बड़ी चिंता रोजगार की है। देश के सभी गांवों की तरह अब तक उन्हें मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम) योजना के तहत काम मिल जाता है, लेकिन अब उन्हें काम मिलेगा या नहीं, इसकी गारंटी से वे वंचित हो जाएंगे। ग्रामीण इकट्ठा होकर रैली निकालते हैं और जिला कलेक्ट्रेट को ज्ञापन देकर मांग करते हैं कि उन्हें फिर से ग्राम पंचायत का दर्जा दे दिया जाए।
दरअसल राज्य सरकारें अकसर ग्राम पंचायतों को भंग करके नगर निकायों जैसे नगर पंचायत या नगर परिषद, नगर पालिका व नगर निगम में शामिल करती रहती हैं। दावा किया जाता है कि ऐसा करने से गांवों को शहर का दर्जा मिल जाता है और इससे गांव के साथ-साथ ग्रामीणों का आर्थिक व सामाजिक विकास होता है। लेकिन सतीपुरा व 2 केएनजे के ग्रामीण इससे इत्तेफाक नहीं रखते। राजस्थान के जोधपुर, राजसमंद, टोंक, जैसलमेर, बारां व उदयपुर जिलों में भी हनुमानगढ़ जैसा विरोध हो रहा है। राजस्थान के बाहर हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक व तमिलनाडु में भी पंचायतों को नगर निकायों में शामिल करने से आक्रोशित ग्रामीण विरोध कर रहे हैं (देखें, विरोध के स्वर)।
उल्लेखनीय है कि भारत में तेजी से शहरीकरण बढ़ रहा है, जबकि ग्रामीण क्षेत्र का दायरा कम हो रहा है। जनगणना के आंकड़ों पर नजर डालें तो साल 2011 में शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या की वृद्धि दर 31.8 प्रतिशत थी, जबकि साल 2001 से 2011 के बीच ग्रामीण आबादी का प्रतिशत 72.19 से घटकर 68.84 प्रतिशत हो गया था। यह सिलसिला और तेज होने की उम्मीद जताई जा रही है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन काम कर रहे राष्ट्रीय जनगणना आयोग के मुताबिक, देश में 2036 तक शहरी आबादी बढ़कर 38.2 प्रतिशत होने की संभावना है। इसी शहरी आबादी को समायोजित करने के लिए गांवों को शहरी निकाय में तब्दील किया जा रहा है। भारतीय संविधान के 74वें संशोधन अधिनियम, 1992 के अनुच्छेद 243क्यू से 243जेडजी नगरपालिकाओं के गठन, उनके कार्य, शक्तियां और प्रशासनिक ढांचे से संबंधित हैं। इन संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर प्रत्येक राज्य अपनी आवश्यकताओं के अनुसार नगर निकाय अधिनियम बनाते हैं, जो ग्राम पंचायतों को नगर निकायों में परिवर्तित करने की प्रक्रिया और मानदंडों को निर्धारित करते हैं। हालांकि गांवों को शहर बनाने या शामिल करने का यह सिलसिला ब्रिटिश काल से जारी है। आजादी के बाद यह सिलसिला और तेज हुआ। लंबे समय तक ग्रामीणों ने इसका स्वागत भी किया, लेकिन अब कई इलाकों में ग्रामीण इसका खुलकर विरोध कर रहे हैं। अदालतों तक के दरवाजे खटखटाए जा रहे हैं तो आखिर इसकी मूल वजह क्या है?
विरोध कर रहे कुछ खास इलाकों को छोड़ दें तो देश के ज्यादातर गांवों में विरोध की प्रमुख वजह मनरेगा है। मनरेगा मंदी के बड़े से बड़े दौर में भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बचाए रखने में कामयाब रहा है। यह अधिनियम साल 2005 में लागू हुआ, जिसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका सुरक्षा प्रदान करना है। यह अधिनियम हर परिवार को प्रति वर्ष 100 दिन का न्यूनतम रोजगार गारंटी देता है। यह योजना ग्रामीण भारत के लिए संजीवनी बनी हुई है। कोविड-19 महामारी के वक्त तो मनरेगा ने पूरे देश की अर्थव्यवस्था को संभालने में अहम भूमिका निभाई।
गांव सतीपुरा के जसराम लगभग 15 साल से मनरेगा से जुड़े हैं। उनका पूरा परिवार मनरेगा में काम करता है। वह लोग खेतों में भी काम करते हैं, लेकिन जब खेतों में काम नहीं रहता तो मनरेगा की मजदूरी से उनके परिवार का भरणपोषण हो जाता है, लेकिन पिछले एक माह से उन्हें काम नहीं मिला। जसराम ने डाउन टू अर्थ से कहा, “ऐसे ही चला तो उनके परिवार के सामने आर्थिक संकट खड़ा हो जाएगा।” सतीपुरा मेंं मनरेगा में 1,435 परिवार और 2 केएनजे पंचायत में 1,666 परिवार पंजीकृत हैं। वहीं, इसी जिले की गांव गोलूवाला सिहागान की 65 वर्षीय सरस्वती मेघवाल विधवा हैं। उनके दो शादीशुदा बेटे मजदूरी कर अपना पेट पालते हैं। बेटी की भी शादी हो चुकी है। सरस्वती कहती हैं, “मैं मनरेगा में काम करती हूं। इससे मेरे हाथ में पैसा आता है। मुझे जरूरत के समय किसी के आगे हाथ नहीं फैलाने पड़ते। पिछले साल जब मनरेगा बंद कर दी गई तो मेरे सामने मुश्किल खड़ी हो गई। गांव में नगर पालिका की जरूरत नहीं, मनरेगा की है। मनरेगा जारी रहनी चाहिए।” गोलूवाला सिहागान ग्राम पंचायत और गोलूवाला निवादान को 26 जून 2023 को नगर पालिका में परिवर्तित कर दिया गया था, लेकिन ग्रामीणों ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया तो अदालत ने 25 जुलाई 2023 को स्थगन आदेश जारी कर दिया।
लगभग चार दशक से देश की पंचायतों पर काम कर रही संस्था पार्टिसिपेटरी रिसर्च इन एशिया (प्रिया) के गर्वनेंस एंड क्लाइमेट एक्शन के लीड अंशुमान कारोल बताते हैं, “पंचायतों का सबसे बड़ा संसाधन मनरेगा है। ग्राम पंचायतें मनरेगा पर ही सबसे अधिक खर्च करती हैं और यह ग्रामीणों की जरूरत बन गया है।” मनरेगा की वेबसाइट के मुताबिक, साल 2024-25 में (19 फरवरी 2025 तक) देश में सक्रिय मनरेगा मजदूरों की संख्या 13,48,07,739 थी। हालांकि कुल मजदूरों की संख्या 26,37,97,538 बताई गई है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के कुल बजट में मनरेगा की हिस्सेदारी सबसे अधिक रहती है। केंद्रीय बजट 2025-26 में ग्रामीण विकास मंत्रालय का कुल बजट 1,87,754.53 करोड़ रुपए है, इसमें से 86 हजार करोड़ रुपए मनरेगा के लिए निर्धारित हैं।
विशेषज्ञ बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक संकट के समय (जैसे कोविड-19 के बाद) अथवा मंदी के दौर में मनरेगा की मांग बढ़ जाती है। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर राजेंद्रन नारायणन ने डाउन टू अर्थ से कहा, “पंचायतें भंग कर नगर निकाय बनाने से ग्रामीणों का आर्थिक संकट खत्म होने की बजाय बढ़ेगा, क्योंकि शहरों में रोजगार उपलब्ध नहीं है, जबकि ग्राम पंचायत में रहते हुए उन्हें काम की गारंटी (मनरेगा) मिलती है।” राजस्थान में ग्रामीणों के विरोध ने मनरेगा समर्थकों को यह बात कहने का मौका दे दिया है कि शहरों में भी रोजगार की कानूनी गारंटी मिलनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि राजस्थान उन राज्यों में शामिल है, जहां राज्य सरकार शहरी इलाकों में भी रोजगार की गारंटी कार्यक्रम (मुख्यमंत्री शहरी रोजगार गारंटी योजना) चलाती है। प्रशासनिक अधिकारी ग्रामीणों को यह भरोसा दिलाते हैं कि उन्हें शहरी रोजगार गारंटी योजना का लाभ दिया जाएगा, लेकिन ग्रामीण फिर भी नहीं मानते। नारायणन कहते हैं कि मनरेगा एक कानून है, जबकि शहरी रोजगार गारंटी योजना है। ग्रामीणों को लगता है कि योजना कभी भी बंद की जा सकती है। यदि सरकारें शहरी रोजगार की गारंटी देना चाहती हैं तो उन्हें इसका कानून बनाना होगा।
ग्राम पंचायत लोकतंत्र की सबसे निचली, छोटी लेकिन मजबूत इकाई है। ग्राम पंचायत ग्रामीणों को सीधा भागीदार बनने का अवसर देती हैं। जहां हर व्यक्ति की आवाज सुनी जाती है और सामूहिक निर्णय लेने की परंपरा लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करती है। उत्तराखंड के मुराड़ी गांव के कृष्ण मुरारी रमोला कहते हैं, “गांव के हर छोटे-बड़े फैसले पंचायत लेती थी। गांव का हर व्यक्ति अपनी समस्या पंचायत को बताता था और उसका समाधान भी हो जाता था, लेकिन नगर पंचायत बनने के बाद हमारी सुनने वाला कोई नहीं है।” साल 2018 में मुराड़ी ग्राम पंचायत के साथ-साथ मुंगरा, नौगांव और धारी ग्राम पंचायत को भंग कर नगर पंचायत बनाई गई थी। पलायन के लिए बदनाम उत्तराखंड में मुराड़ी ऐसा गांव है, जहां से पलायन नहीं होता था। गांव के लोग पूरी तरह से उन्नत खेती पर निर्भर थे। खेती में दिक्कत आने पर पंचायत पूरा साथ देती है। खेतों की सिंचाई का काम हो, फसल को बंदर या अन्य जानवर से बचाना हो तो पंचायत लोगों की मदद करती थी। लेकिन अब नगर पंचायत के तहत कृषि कार्य नहीं किए जा सकते। किसान सिंचाई के लिए नहर तक ठीक नहीं करा पा रहे हैं।
खेतों की चौकीदारी के लिए जिस व्यक्ति को नियुक्त किया गया था, उसे भी हटा दिया गया है। रमोला कहते हैं कि अब खेती प्रभावित होने लगी है, इसलिए युवा पलायन करने लगे हैं। पंचायतों के संस्थागत विकास एवं सशक्तिकरण के लिए चलाए जा रहे तीसरी सरकार अभियान के संस्थापक चंद्रशेखर प्राण कहते हैं कि संविधान में पंचायतों को तीसरी सरकार का दर्जा दिया गया है, लेकिन पंचायतें भंग कर नगर निकायों में शामिल करना सैद्धांतिक रूप से सही नहीं है (पढ़ें, स्वशासन पर हमला)। अंशुमान कारोल कहते हैं कि अब ग्रामीण अपने गांव के विकास की योजनाएं खुद बनने लगे हैं। पंचायत स्तर पर विकास योजनाएं बनाने के लिए बैठकें होती हैं, जिनमें ग्राम पंचायत डेवलपमेंट प्लान (जीपीडीपी) तैयार होती है। ग्रामीण अपनी पंचायत के कामकाम पर नजर रखते हैं। लेकिन जब पंचायतों को नगर निकायों में तब्दील कर दिया जाता है तो ग्रामीण इससे वंचित हो जाते हैं।
पंचायतों की बजाय नगर निकायों में शामिल होने के बाद ग्रामीणों को तरह–तरह के टैक्स भरने पड़ते हैं। इसमें भूमि और भवनों पर लगने वाला संपत्ति कर (प्रॉपर्टी टैक्स), गृहकर, जल आपूर्ति और सीवरेज सुविधाओं के लिए लगने वाला कर, सफाई और कचरा प्रबंधन सेवाओं के कर प्रमुख हैं। इसके अलावा शहरी क्षेत्रों में स्थित कृषि भूमि की बिक्री पर भी टैक्स नियम बदल जाते हैं। साथ ही, मकान बनाने के लिए नक्शा बनाने जैसी औपचारिकताएं ग्रामीणों की परेशानी का सबब बन जाती हैं। कारोल कहते हैं, “ग्रामीण क्षेत्र जब नगर के दायरे में आ जाते हैं तो वहां टाउन एंड कंट्री प्लानिंग के नियम लागू हो जाते हैं। ये नियम गांवों के मुकाबले सख्त होते हैं, जैसे नक्शा बनाना , मास्टरप्लान के नियमों के मुताबिक क्षेत्र का विकास करना आदि। ऐसी बंदिशें ग्रामीणों को परेशानी कर देती हैं।”
गांवों को जब शहरों में शामिल किया जाता है, उसके बाद उन गांवों की स्थिति क्या होती है, यह अंदाजा देश की राजधानी दिल्ली के गांवों की दशा देखकर लगाया जा सकता है। अंग्रेजों ने जब साल 1911 में दिल्ली को राजधानी बनाने का निर्णय लिया। तब से ही दिल्ली में गांवों को शामिल करना सिलसिला शुरू हुआ और 1990 में शेष बची सभी ग्राम पंचायतों को भंग करने के बाद ही यह सिलसिला थमा। दिल्ली के गांव बुढेला निवासी एवं सेंटर फॉर यूथ, कल्चर, लॉ एंड एनवायरमेंट के संयोजक पारस त्यागी बताते हैं कि साल 1966 में उनकी ग्राम पंचायत को भंग कर उनके गांव को शहरीकृत घोषित कर दिया, लेकिन आज भी यहां मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं। अपनी छोटी-छोटी समस्याओं की शिकायत करने के लिए 15 किमी दूर जाना पड़ता है। कारोल कहते हैं कि देश के कुछ बड़े नगर निगमों को छोड़ दें तो देश के लगभग सभी नगर निगम संसाधनों की कमी का सामना कर रहे हैं। नगर पालिकाओं, नगर परिषदों की दशा तो बेहद दयनीय है। उनके पास कर्मचारियों को तनख्वाह देने तक का पैसा नहीं है, इस वजह से वे क्षेत्र का विकास करना तो दूर सफाई जैसी मूल सेवाएं तक नहीं दे पा रहे हैं। यह भी ग्रामीणों के विरोध की वजह है।
पंचायतें भंग होने के बाद गांव की कॉमन लैंड (शामलात देह) पर भी ग्रामीणों का हक खत्म होता है। त्यागी कहते हैं कि उनकी गांव के एक तालाब की जमीन को पाटकर वहां बिल्डिंग बनाई जा रही थी, इसके खिलाफ उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय से स्थगनादेश ले लिया है। वहीं, राजधानी से सटे फरीदाबाद (हरियाणा) के गांव चंदावली के यशवंत कहते हैं कि उनकी पंचायत के पास 80 करोड़ रुपए थे, लेकिन नगर निगम में शामिल होने के बाद यह राशि पंचायत से ले ली गई। चंदावली सहित फरीदाबाद के 26 गांवों को सितंबर 2020 में नगर निगम में शामिल किया गया, जिसके खिलाफ लोगों ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है।
गांवों को दो तरह से शहर बनाया जाता है। एक– शहरों का विस्तार करने के लिए आसपास के सटे गांवों को शहर में शामिल कर लिया जाता है। दूसरा– गांवों की आबादी अधिक होने पर उन्हें नगर निकाय का दर्जा दे दिया जाता है। इन दोनों ही प्रक्रियाओं पर सवाल उठ रहे हैं। चंद्रशेखर प्राण ने डाउन टू अर्थ से कहा, “सरकार की मंशा शहरीकरण व औद्योगिकीकरण के लिए गांव की जमीन हथियाने की होती है, इसलिए जमीन की कीमत बढ़ा दी जाती है। इस लालच में ग्रामीण पहले विरोध नहीं करते थे, लेकिन अब ग्रामीणों का भ्रम टूट रहा है।”
अदालतों में ग्रामीणों की पैरवी कर रहे उच्च न्यायालय के अधिवक्ता सुरेंद्र थानवी बताते हैं कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 243 क्यू (2) के अनुसार किसी क्षेत्र को नगर पालिका घोषित करने के लिए राज्यपाल को जनसंख्या, जनसंख्या घनत्व, राजस्व स्रोत, गैर-कृषि गतिविधियों में रोजगार दर, आर्थिक महत्त्व एवं अन्य कारकों को ध्यान में रखते हुए अधिसूचना जारी करनी होती है। राजस्थान सरकार द्वारा राजस्थान पंचायती राज अधिनियम, 1994 की धारा 101 तथा राजस्थान नगर पालिका अधिनियम, 2009 की धारा 3(1) में नगर निकायों के गठन और विस्तार की प्रक्रिया का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। थानवी ने कहा, “धारा 101 में स्पष्ट कहा गया है कि किसी भी ग्राम पंचायत की सीमा में परिवर्तन करने से पूर्व राज्य सरकार के लिए यह अनिवार्य है कि वह एक माह की अधिसूचना जारी करे, जिससे जनता अपनी आपत्तियां दर्ज करा सके और उनका विधिपूर्वक निस्तारण किया जाए, लेकिन स्थानीय जनता से राय तक नहीं ली जाती।”
देखना यह है कि जिस तरह से इस मुद्दे पर ग्रामीण जगह–जगह मुखर होकर सामने आ रहे हैं, क्या यह इतना बड़ा मुद्दा बन पाएगा कि केंद्र व राज्य सरकारों को शहरीकरण की अपनी नीति पर विचार करना पड़े?