सूचना के अधिकार को 20 साल हो गए हैं। यह कानून पारदर्शिता और जवाबदेही के उद्देश्य से लाया गया था। मौजूदा समय में क्या हम कह सकते हैं कि यह कानून अपने इन उद्देश्यों को पूरा करने में कामयाब रहा है? अगर कामयाब रहा तो कितना?
कानून इस मायने में सफल रहा है कि यह व्यापक रूप से समझा और इस्तेमाल किया जा रहा है, यहां तक कि उन वर्गों द्वारा भी जिन्हें प्रायः बाहर रखा जाता है, जैसे महिलाएं, झुग्गी बस्तियों और वन क्षेत्रों में रहने वाले लोग। इस तरह, इसने दिल्ली में विधवा पेंशन जैसी स्वीकृत सुविधाओं तक पहुंचने, गरीबों के लिए अस्पताल और स्कूल में प्रवेश पाने में मदद की है, जिससे जनभागीदारी बढ़ी और व्यापक हुई है। अब हर सरकारी एजेंसी की एक वेबसाइट है, जहां नीतियों और सार्वजनिक सुविधाओं से जुड़ी बहुत-सी जानकारी सबके लिए सुलभ कराई गई है। लेकिन सार्वजनिक प्राधिकरण की पारदर्शिता और जवाबदेही स्थापित करने के महत्वपूर्ण क्षेत्र में इस कानून की प्रभावशीलता में गिरावट देखी गई है।
केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग में आयुक्तों के पद बड़ी संख्या में खाली हैं। इन पदों पर नियुक्ति न होने के क्या कारण आपको नजर आते हैं? आयुक्तों और स्टाफ की कमियां सूचना के अधिकार को कैसे प्रभावित करती हैं?
7 जनवरी 2025 को सर्वोच्च न्यायालय ने सूचना का अधिकार अधिनियम पर एक फैसला सुनाया, जिसे कार्यकर्ताओं द्वारा व्यापक सराहना मिली। माननीय न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा, “एक संस्था बनाई गई है।” तत्पश्चात, भारत सरकार ओर से उपस्थित अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल बृजेन्द्र चाहर को संबोधित करते हुए उन्होंने तीखा सवाल किया, “इस संस्था का क्या उपयोग है, यदि आपके पास कानून के तहत कर्तव्य निभाने वाले व्यक्ति ही न हों?”
हम केवल यह मान सकते हैं कि इन पदों पर नियुक्ति न होने का कारण वर्तमान सरकार की वह नीति है जो सभी स्वायत्त संस्थाओं को विशेषकर उन संस्थाओं को जो जवाबदेही की मांग करती हैं, कमजोर बना रही है और उन्हें नेतृत्वहीन कर रही है। यही स्थिति सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में देखने को मिलती है, जिनकी नियुक्ति की जिम्मेदारी, चाहे केंद्र में हो या राज्य में, बड़े पैमाने पर केंद्र सरकार ने अपने हाथ में ले ली है। सरकार द्वारा स्वयं निर्धारित नियुक्ति प्रक्रिया का शायद ही पालन किया जाता है, जिसके चलते कानून के तहत अंतिम अपील का मंच सूचना आयोग रिक्त है और इस कारण कानून निष्प्रभावी बना रहता है। इसका परिणाम यह होता है कि लंबित मामलों का ढेर लग जाता है और उन राज्यों में आरटीआई अधिनियम निष्प्रभावी हो जाता है, जहां आयोग के पद पूरी तरह खाली हैं।
आरटीआई कानून को कमजोर करने के कई प्रयास हुए हैं। हाल ही में डीपीडीपी (डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन) कानून की आड़ में सूचना के अधिकार में संशोधन किया गया है। मौजूदा संशोधन सूचना के अधिकार को कैसे प्रभावित करेगा?
अब तक भारत में निजता की सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं था। मैंने मुख्य सूचना आयुक्त रहते हुए बार-बार यह कहा था कि लोकतंत्र में नागरिक का निजता का अधिकार उतना ही मौलिक है जितना सूचना का अधिकार। आरटीआई अधिनियम में निजता की सुरक्षा का प्रावधान था, लेकिन भारत में यह परिभाषित करने वाला कोई कानून नहीं था कि निजता से अभिप्राय क्या है। अपने कार्यकाल के दौरान मैंने न्यायपालिका की स्वीकृति से ब्रिटेन के डेटा प्रोटेक्शन अधिनियम पर भरोसा किया ताकि निजी जानकारी का खुलासा केवल आरटीआई अधिनियम के तहत अनुमति अनुसार ही किया जाए।
लेकिन आरटीआई अधिनियम में संशोधन करके उसे डीपीडीपी अधिनियम के अनुरूप बनाने का परिणाम यह हुआ कि निजता के आधार पर आरटीआई अधिनियम को ही पीछे कर दिया गया। आरटीआई एक्टिविस्ट और पूर्व सूचना आयुक्त शैलेश गांधी के अनुसार, इसने आरटीआई अधिनियम को “समाप्त” कर दिया है। यह संशोधन अनावश्यक था क्योंकि अधिनियम में पहले से ही निजता की सुरक्षा का प्रावधान था। परंतु इस संशोधन का प्रभाव यह हुआ कि निजता के अधिकार को पूर्ण अधिकार बना दिया गया, जिससे सूचना के अधिकार को अनेक मामलों में नकार दिया गया, भले ही वे मामले व्यक्तिगत जानकारी से जुड़े हों, लेकिन जिनका सीधा संबंध सार्वजनिक हित से है।
आज आम नागरिकों की शिकायत है कि अब सूचना के अधिकार कानून के तहत मांगी गई सूचनाएं नहीं मिलतीं, भ्रामक सूचनाएं मिलती हैं या सूचना देने से मना कर दिया जाता है। इस स्थिति के क्या कारण हैं? क्या लोक सूचना प्राधिकरणों में आरटीआई कानून का भय कम हुआ है? अगर हां तो क्यों?
यह प्रश्न एक ऐसी धारणा से संबंधित है जिसका उत्तर केवल वही व्यक्ति दे सकता है जो सूचना देने और प्राप्त करने की प्रक्रिया में सहभागी रहा हो, न कि मेरे जैसे पूर्व निर्णयकर्ता जो पीठ के दूसरे छोर पर बैठे रहे। लेकिन मेरे पिछले प्रश्नों के उत्तर इस संदेह की पुष्टि करने में सहायक होंगे कि जहां भ्रष्टाचार या राजनीतिक चालबाजी का संदेह होता है, वहां आरटीआई तंत्र की प्रभावशीलता पर प्रश्नचिह्न बना हुआ है।
सूचना का अधिकार निरीक्षण (इंस्पेक्शन) और सैंपल लेने का अधिकार भी देता है। ग्रामीण क्षेत्रों में सूचना के अधिकार के तहत सरकारी कामकाज की सोशल ऑडिटिंग भी पहले खूब होती थी। क्या अब भी इन प्रावधानों का इस्तेमाल हो रहा है? अगर इसमें कमी आई है तो इसके क्या कारण हैं?
हाल ही में आपके द्वारा उल्लेखित प्रकार के निरीक्षण और नमूना परीक्षण संबंधी कोई प्रकरण प्रेस में नहीं आया है, यद्यपि यह वास्तव में कानून का एक महत्वपूर्ण तत्व है, जिस पर स्वयं मैंने और मेरे साथ केंद्रीय सूचना आयोग तथा राज्य सूचना आयोग के कई समकालीन आयुक्तों ने बार-बार निर्णय दिए हैं। हालांकि इस प्रकृति के सटीक आंकड़े मुझे ज्ञात नहीं हैं, जिससे इस पर कोई टिप्पणी की जा सके।
क्या आपको लगा है कि सूचना के अधिकार पिछले 20 वर्षों में कमजोर हुआ है। अगर हां तो इसके क्या कारण हैं और कौन लोग इसके लिए जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं।
आरटीआई अधिनियम के कुछ पहलू विशेष रूप से जवाबदेही तय करने के मुद्दे कम प्रभावी हो गए हैं। इसके अतिरिक्त, सरकार में ऐसे उदाहरण भी हैं जहां सरकारी कर्मचारी द्वारा आरटीआई का प्रयोग अनुशासनहीनता का कार्य माना जाता है। इसका कारण यह है कि अधिनियम को प्रभावी शिकायत निवारण तंत्र, जैसे व्हिसलब्लोअर संरक्षण कानून या सरकार द्वारा उचित हस्तक्षेप (यहां तक कि जब सूचना से स्पष्ट रूप से भ्रष्टाचार उजागर होता है) का समर्थन प्राप्त नहीं है। आरटीआई अधिनियम केवल सूचना उपलब्ध कराने का साधन है, यह न तो भ्रष्टाचार विरोधी कानून है और न ही शिकायत निवारण का कानून। प्रशासनिक व्यवस्था ने अनिवार्य रूप से ऐसे तरीके खोज लिए हैं जिनसे यह अधिनियम उनके कामकाज के भीतर समा जाए, बिना इस बात को उजागर किए कि उसकी मूल कमजोरियां क्या थीं।
सूचना का अधिकार एक लंबे आंदोलन का नतीजा है। क्या आपको लगता है कि इसे बचाने के लिए भी अब आंदोलन की जरूरत है?
आरटीआई एक जवाबदेही के साधन के रूप में राज्य की मुख्य संपत्ति होना चाहिए था, इसका उपयोग अच्छे शासन प्रदान करने (अर्थात ऐसा शासन जो जनता की प्रमुख आवश्यकताओं को संबोधित करे) में होना चाहिए था। इसका स्वीकार स्वयं माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी ने सूचना आयुक्तों के वार्षिक अधिवेशन को संबोधित करते हुए किया था। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि सरकार इस कानून का उपयोग नीतियां तय करने के साधन के रूप में करे और जनता इस कानून को शासन को दुर्बल करने के हथियार के रूप में नहीं बल्कि उसे सशक्त बनाने के साधन के रूप में देखे, जिसका सरल अर्थ है- नागरिक को बेहतर सेवाएं प्रदान करना।
पिछले 20 वर्षों में आप सूचना के अधिकार को कहां खड़ा देखते हैं? आपका क्या निष्कर्ष है?
आरटीआई अधिनियम में यह क्षमता है कि वह भारत को न केवल विश्व का सबसे बड़ा, बल्कि संविधान के 73वें और 74वें संशोधन में परिकल्पित पूर्ण विकेंद्रीकरण के साथ, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन की गुणवत्ता के दृष्टिकोण से विश्व का सर्वोच्च लोकतंत्र बना सके। इसके पिछले 20 वर्षों की यात्रा पर मैं पहले ही चर्चा कर चुका हूं।