डोनाल्ड ट्रम्प व्हाइट हाउस में दूसरे कार्यकाल की तैयारी कर रहे हैं, ऐसे में दुनिया भर में अनिश्चितता का माहौल गहराता जा रहा है। दुनिया में अटकलों का बाजार गर्म हो गया है, और ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि नव-निर्वाचित राष्ट्रपति अपनी विदेश नीति के संबंध में लगातार भड़काऊ बयान दे रहे हैं। विशेष रूप से टैरिफ से जुड़ा मुद्दा मीडिया, सार्वजनिक बयानों और कार्यक्रमों में विशेष रूप से सुर्खियों में रहा है।
टैरिफ को लेकर क्या कुछ हैं योजनाएं
नवंबर 2024 में चुनाव जीतने के बाद, डोनाल्ड ट्रम्प ने कनाडा और मैक्सिको से आने वाले सभी उत्पादों पर 25 फीसदी टैरिफ लगाने की धमकी दी है। इसके साथ ही उन्होंने चीन पर और अधिक टैरिफ लगाने पर भी जोर दिया है।
अपने शपथ ग्रहण के करीब आते ही, नव-निर्वाचित राष्ट्रपति ने टैरिफ, शुल्क और विदेशी राजस्व को एकत्र करने के लिए एक 'बाहरी राजस्व सेवा' बनाने से जुड़ी योजना की घोषणा की है। ट्रम्प, जिन्होंने 2018 से खुद को 'टैरिफ मैन' कहा था, उन्होंने अपने 2024 के चुनावी अभियान के दौरान सभी आयातों पर 10 फीसदी और चीन से होने वाले आयात पर 60 फीसदी के भारी भरकम टैरिफ का प्रस्ताव रखा था।
माना जा रहा है कि उनकी टीम कथित तौर पर विशिष्ट क्षेत्रों को लक्षित करके सार्वभौमिक टैरिफ योजनाओं पर काम कर रही है।
टैरिफ को लेकर जारी यह बहस डोनाल्ड ट्रम्प के लिए नई नहीं है।अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में अपने पिछले कार्यकाल के दौरान उन्होंने टैरिफ पर विशेष रूप से जोर दिया था।इस दौरान कई टैरिफ भी लगाए गए, जिनमें विशेष रूप से चीन, मैक्सिको, कनाडा और यूरोपीय यूनियन को निशाना बनाया गया।
इनमें स्टील, एल्युमीनियम, सोलर पैनल, वॉशिंग मशीन और चीनी से आने वाले कई सामानों पर लगाए जाने वाले टैरिफ शामिल थे। देखा जाए तो 2018 के अंत तक इन विशेष टैरिफ ने अमेरिका द्वारा आयात किए जाने वाले सामानों का 14.9 फीसदी हिस्सा कवर कर लिया। वहीं 2019 में टैरिफ से होने वाला अमेरिकी राजस्व 79 बिलियन तक पहुंच गया, जो 2017 से दोगुना है।
क्या है इनके पीछे का मकसद
डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा टैरिफ में इस प्रस्तावित वृद्धि का उद्देश्य व्यापार घाटे को कम करना, घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देना, अमेरिका में रोजगार का सृजन करना, कॉर्पोरेट करों को कम करना, राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करना और यहां तक कि बाल देखभाल कार्यक्रम को वित्तपोषित करना है।
अधिक व्यापक रूप से, ट्रम्प के लिए टैरिफ राजस्व का एक वैकल्पिक स्रोत हैं, जो फेडरल टैक्स से होने वाले राजस्व पर दबाव को कम कर सकते हैं। यह अमेरिकी विनिर्माण को सुरक्षित रख सकते हैं, तथा जिसे वे अनुचित व्यापार प्रथाएं कहते हैं, उसका समाधान कर सकते हैं।
"क्लैशिंग ओवर कॉमर्स: ए हिस्ट्री ऑफ यूएस ट्रेड पॉलिसी" के लेखक डगलस इरविन ने अमेरिकी टैरिफ नीति के ‘तीन आर’ पर प्रकाश डाला है, इनमें राजस्व, प्रतिबंध और पारस्परिकता के महत्व पर ट्रम्प ने जोर दिया है।
टैरिफ का एक लक्ष्य अमेरिकी विनिर्माण को बढ़ावा देना और नौकरियों की रक्षा करना है। हालांकि, ट्रंप प्रशासन के 2018-19 में लगाए टैरिफ का प्रभाव मिश्रित रहा है। एक तरफ इस टैरिफ ने कथित तौर पर स्टील जैसे उद्योगों में नए अवसर पैदा किए, वहीं साथ ही उन्होंने उपभोक्ता के लिए स्टील और एल्युमीनियम की कीमतें भी बढ़ा दी।
इस्पात और एल्युमीनियम उत्पादन के क्षेत्र में रोजगार वृद्धि से हुए फायदे और उच्च कीमतों के बीच द्वंद उन उद्योगों में रोजगार के नुकसान का कारण बन सकता है जो बढ़ी हुई लागतों के कारण नुकसान झेल सकते हैं।
एक अध्ययन से पता चला है कि अमेरिका में स्टील उत्पादन के क्षेत्र में हर नौकरी के लिए, स्टील का उपयोग करने वाले उद्योगों में करीब 80 नौकरियां हैं, जो इन क्षेत्रों में नौकरी के संभावित नुकसान के जोखिम को उजागर करता है। इसका एक और नकारात्मक पहलू यह है कि व्यापारिक भागीदार अपने स्वयं के टैरिफ के साथ जवाबी कार्रवाई कर सकते हैं, जो अमेरिकी निर्यात उद्योगों को नुकसान पहुंचा सकता है।
यदि बाह्य राजस्व सेवा का लक्ष्य राजस्व के लिए टैरिफ का उपयोग करना है, तो आंकड़े महत्वपूर्ण हो जाते हैं। 2023 में, वस्तुओं पर लगाए आयात शुल्क ने अमेरिका के लिए करीब 80 बिलियन डॉलर जोड़े थे, जो फेडरल टेक्स से होने वाले कुल राजस्व का करीब दो फीसदी है। अनुमान बताते हैं कि ट्रम्प द्वारा प्रस्तावित दस फीसदी के बेसलाइन टैरिफ के साथ, यह हिस्सा केवल 3.2 फीसदी बढ़ जाएगा। वहीं यदि देश इस टैरिफ पर जवाबी कार्रवाई करते हैं, तो टैरिफ से होने वाला राजस्व और भी घट सकता है।
2018-19 में, चीन द्वारा अमेरिका को टैरिफ के रूप में भुगतान किए गए अरबों डॉलर का 92 फीसदी हिस्सा व्यापारिक साझेदारों द्वारा की गई जवाबी करवाई से प्रभावित किसानों को राहत प्रदान करने पर खर्च किया गया।
कौन करेगा टैरिफ का भुगतान
इन दावों के विपरीत कि विदेशी कंपनियां टैरिफ का भुगतान करती हैं, ट्रम्प के पहले कार्यकाल के दौरान किए अध्ययनों से पता चला है कि सामान आयात करने वाली अमेरिकी कंपनियां वास्तव में इस लागत को वहन करती हैं।
हालांकि वे अक्सर यह लागत आयात की गई वस्तुओं की उच्च कीमतों के माध्यम से उपभोक्ताओं पर डाल देते हैं। इसके अतिरिक्त टैरिफ वाली वस्तुओं के अमेरिकी उत्पादक भी विदेशी प्रतिस्पर्धा में कमी के कारण कीमतें बढ़ा देते हैं, जिससे उपभोक्ताओं पर बोझ पड़ता है।
भारत पर क्या होगा असर
भारत और अमेरिका के बीच अक्सर अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियमों को लेकर टकराव होता रहा है, अक्सर इन विवादों को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में ले जाया जाता है। गौरतलब है कि ट्रम्प के पहले कार्यकाल के दौरान उस समय तनाव तब और बढ़ गया जब अमेरिका ने भारत से स्टील और एल्युमीनियम आयात पर टैरिफ बढ़ा दिया था।
इसके साथ ही अमेरिका ने जीएसपी के तहत भारत को दिए जाने वाले लाभों को समाप्त कर दिया था। बता दें कि जीएसपी विकासशील देशों को कम टैरिफ का भुगतान करने की अनुमति देता है।
स्टील और एल्युमीनियम पर लगाए अमेरिकी टैरिफ ने भारत के निर्यात पर 2.3 फीसदी का असर डाला और जीएसपी के मिलने वाले फायदों के समाप्त होने से 2017 में भारतीय निर्यात को 12 फीसदी प्रभावित किया था। इसके जवाब में भारत ने अमेरिकी वस्तुओं पर टैरिफ लगा दिया। इसके साथ ही ट्रंप ने भारत को "टैरिफ का राजा" करार दिया था।
वित्त वर्ष 2024 में अमेरिका, भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार था। इस दौरान वस्तुओं और सेवाओं के मामले में 190 बिलियन डॉलर से अधिक का दोतरफा व्यापार हुआ था। भारत से अमेरिका को निर्यात किए जाने वाले प्रमुख सामान में हीरे, स्मार्टफोन, फार्मास्यूटिकल्स, खनिज ईंधन और सोलर पीवी सेल शामिल थे।
अंदेशा है कि भारत के लिए ट्रंप का दूसरा कार्यकाल कूटनीतिक तौर पर अनिश्चितता भरा हो सकता है। टैरिफ पर उनका ध्यान, सौदे-आधारित कूटनीति (जहां हर कार्रवाई के बदले कुछ मिलने की उम्मीद होती है) और वैश्विक प्रणालियों के प्रति उनकी नापसंदगी भारत के लिए नई व्यापारिक चुनौतियां पैदा कर सकती है।
इन चुनौतियों में भारतीय निर्यात पर संभावित टैरिफ वृद्धि, चीन द्वारा भारत सहित एशियाई बाजारों में अधिक माल भेजना, तथा विवादों को सुलझाने में असमर्थ कमजोर विश्व व्यापार संगठन शामिल हैं।
हाल के वर्षों में भारत से अमेरिका को सोलर पीवी के निर्यात में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। 2022 में अमेरिका के मॉड्यूल आयात में भारत की हिस्सेदारी 2.5 फीसदी से बढ़कर 2024 में 10.7 फीसदी हो गई है, जिसका मूल्य 2023-24 में करीब दो बिलियन डॉलर है। हालांकि पर्यावरण अनुकूल विनिर्माण पर ध्यान केंद्रित करने वाले देश के लिए, पर्यावरण अनुकूल वस्तुओं पर टैरिफ इस सकारात्मक प्रगति को धीमा कर सकता है।
ग्लोबल ग्रीन ट्रांजिशन
दुनिया पर जिस तरह जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ रहा है उसको देखते हुए जीवाश्म ईंधन पर निर्भर अर्थव्यवस्थाओं को इससे निपटने के लिए सोलर पैनल और बैटरी जैसी पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकियों का तेजी से उत्पादन करने की आवश्यकता है।
जीवाश्म ईंधन की जगह लेने और बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए इन प्रौद्योगिकियों को निर्बाध रूप से सीमाओं के परे ले जाना चाहिए। इससे कार्बन मुक्त भविष्य की ओर वैश्विक बदलाव में तेजी लाने में मदद मिलेगी।
पर्यावरण अनुकूल नीतियों पर बाइडेन प्रशासन का ध्यान ट्रम्प के पहले कार्यकाल के संरक्षणवादी दृष्टिकोण के नए संस्करण के रूप में देखा जा सकता है। मुद्रास्फीति न्यूनीकरण अधिनियम (आईआरए), जोकि अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए जो बाइडेन कार्यकाल की एक प्रमुख नीति है, उसकी पहले ही हरित संरक्षणवाद के रूप में आलोचना की गई है।
घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहित करके और आपूर्ति श्रृंखलाओं को पुनः स्थापित करके, आईआरए ने स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के लिए विदेशी स्रोतों पर निर्भरता कम कर दी है।
बाइडेन ने चीन से स्टील और एल्युमीनियम के आयात पर टैरिफ भी बढ़ाए, इस दौरान जहां सेमीकंडक्टर पर 50 फीसदी टैरिफ लगाया गया। वहीं इलेक्ट्रिक वाहनों पर 100 फीसदी टैरिफ पेश किया गया, जिससे व्यापार से जुड़ी बाधाएं और बढ़ गई।
ट्रम्प 2.0
ऐसे में डोनाल्ड ट्रंप की व्हाइट हाउस में वापसी के साथ, यह अंदेशा जताया जा रहा है कि इससे अमेरिका की पर्यावरण अनुकूल नीतियों को झटका लग सकता है। इसमें इलेक्ट्रिक वाहनों को दी जा रही सब्सिडी में कटौती, पवन ऊर्जा के लिए समर्थन में कमी और मुद्रास्फीति न्यूनीकरण अधिनियम में संभावित बदलाव शामिल हैं।
हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि डोनाल्ड ट्रम्प आईआरए को रद्द करेंगे या बढ़ाएंगे, लेकिन उनके संरक्षणवादी नीतियों को जारी रखने की संभावना है। आशंका है कि इस दौरान टैरिफ बढ़ाए जाएंगे, जो पर्यावरण अनुकूल उत्पादों को प्रभावित कर सकते हैं।
अमेरिका में संरक्षणवाद की ओर इस बदलाव से यह जरूरी नहीं कि दुनिया में पर्यावरण अनुकूल वस्तुओं के बाजार का पतन हो जाएगा। लेकिन इतना जरूर है कि पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकी की आपूर्ति श्रृंखला में चीन का दबदबा जरूर बढ़ सकता है।
चीन जोकि पहले ही इलेक्ट्रिक वाहनों, बैटरी और सोलर पैनल जैसी प्रमुख पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकियों का अग्रणी उत्पादक है, इन बदलावों से उसे भविष्य में मजबूत आर्थिक, व्यापारिक और भू-राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने में मदद मिलेगी।
आशंका है कि अमेरिका और अन्य क्षेत्रों में संरक्षणवादी नीतियों और वैश्विक महाशक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा के बढ़ने से पर्यावरण अनुकूल वस्तुओं का बाजार खंडित हो सकता है। इसका खामियाजा विकासशील देशों को भुगतना पड़ेगा। इनमें से कई देश अपनी ऊर्जा संक्रमण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के किफायती आयात पर निर्भर हैं।