योगेन्द्र आनंद / सीएसई
राजकाज

मजबूती और लचीलेपन की गाथा

Sunita Narain

पर्यावरण में गिरावट का महिलाओं पर सबसे बुरा प्रभाव होता है, इसलिए एक बेहतर कल के निर्माण को लेकर वो संजीदा रहती हैं। पर्यावरण के क्षेत्र में मेरे करियर की ये सबसे पहली सीख थी। 1980 के दशक की शुरुआत में जब मैंने अपनी शिक्षा पूरी की थी तब पर्यावरण शायद ही सार्वजनिक चिंता का विषय था। लाजिमी तौर पर ये कोई ऐसा पेशा भी नहीं था जिससे जुड़ने का ख्याल मेरे दोस्तों को आता। हालांकि वैश्विक पटल पर पर्यावरण से जुड़े मुद्दे सुर्खियों में आने लगे थे। 1972 में स्टॉकहोम में पर्यावरण पर पहले बड़े वैश्विक सम्मेलन का आयोजन हुआ।

भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इसमें हिस्सा लेने वाले विकासशील देशों की चंद नेताओं में से एक थीं। 1970 के दशक में हिमालय के दूरदराज के हिस्सों से आंदोलन की खबरें आने लगीं थी। वहां महिलाएं कटाई से बचाने के लिए पेड़ों को गले से लगाकर उनसे लिपट जाया करती थीं। ये “चिपको” आंदोलन के नाम से मशहूर हुआ और इसने गरीब तबके खासतौर से महिलाओं के लिए पर्यावरण की अहमियत को लेकर जागरूकता पैदा की।

मेरा काम हिमालय के ऊंचाई वाले इलाकों की यात्राओं के साथ शुरू हुआ। मैं यह समझना चाहती थी कि आखिर महिलाएं पेड़ों की कटाई क्यों रुकवाना चाहती थीं। मुझे आजीविका और पर्यावरण के बीच का रिश्ता दिखाई देने लगा। भारत की करोड़ों महिलाओं के लिए पर्यावरण (जमीन, पानी, जंगल) विलासिता की वस्तु नहीं थी बल्कि यह उनके जीवन-मरण का मसला था। प्रकृति से मिलने वाला सकल उत्पाद उनके जीवन में सकल राष्ट्रीय उत्पाद से अधिक महत्व रखता था। चिपको आंदोलन में हिस्सा लेने वाली महिलाएं पेड़ों को इसलिए गले नहीं लगा रही थीं ताकि वो उन्हें कटाई करने वालों से बचा सकें, बल्कि वे पेड़ों की कटाई में अपना पहला अधिकार चाहती थीं। यह संरक्षणवादी आंदोलन नहीं था बल्कि यह तो प्राकृतिक संसाधनों से स्थानीय आजीविका तैयार करने को लेकर एक विकासात्मक आंदोलन था।

अनिल अग्रवाल (इस पत्रिका के संस्थापक संपादक) के साथ काम करते हुए मेरे करियर के शुरुआती वर्षों ने मुझे काफी कुछ सिखाया। हम लोगों ने उन गांवों की यात्राएं की जहां समुदाय एक हरित भविष्य के निर्माण को लेकर एकजुट हुए थे। वहां मैंने वन और जल के बेहतर प्रबंधन से लोगों के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को देखा। अनिल और मैंने पेड़ों से परे देखना सीखा। हमने भारत में सामान्य स्थितियों को नए सिरे से स्थापित किए जाने के तौर-तरीकों को जाना। मसलन भारत में जंगलों का स्वामित्व मुख्य रूप से सरकारी एजेंसियों के पास है लेकिन गरीब खासतौर से महिलाएं इन पर अधिक निर्भर करती हैं। यह साफ हो गया कि सामुदायिक हिस्सेदारी के बगैर वृक्षारोपण संभव नहीं था। लोगों को जोड़ने के लिए जुड़ाव से जुड़े नियमों का सम्मान जरूरी था और सम्मान पाने के लिए नियमों का न्यायपूर्ण होना आवश्यक था।

शुरुआती दौर के इन अनुभवों से मुझे जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों को समझने में मदद मिली। लगभग उसी समय एक प्रतिष्ठित अमेरिकी संस्थान के आंकड़ों से हमारे तत्कालीन पर्यावरण मंत्री आश्वस्त हो गए कि चावल की पैदावार या मवेशी पालन जैसे “गैर-टिकाऊ” काम करने वाली गरीब जनता ग्लोबल वॉर्मिंग में भारी योगदान दे रही थी। तब एक पहाड़ी राज्य के हैरान-परेशान मुख्यमंत्री ने हमसे संपर्क किया और आनन-फानन में हमें भी इस बहस में खींच लिया गया। दरअसल मुख्यमंत्री जी को एक सरकारी निर्देश मिला था जिसमें उनसे लोगों को मवेशी पालन से रोकने की ताकीद की गई थी। उन्होंने हमसे पूछा कि आखिर मैं ऐसा कैसे कर सकता हूं? “क्या गरीबों के जानवर वाकई विश्व की जलवायु प्रणाली को बाधित करते हैं?” हम भी भौंचक्के थे। हमारा अनुभव बता रहा था कि गरीब तो स्वयं पर्यावरणीय क्षय के असर से पीड़ित थे लेकिन अब यहां वो पूरी तरह से खलनायक बन चुके थे। आखिर कैसे?

इस सवाल के साथ हमने अपनी जलवायु शोध यात्रा शुरू की। हमें महसूस हुआ कि एक स्थानीय जंगल और वैश्विक जलवायु के प्रबंधन में कोई खास फर्क नहीं है। दोनों ही साझा संपदा संसाधन थे। इस क्षेत्र में सहयोग को प्रोत्साहित करने के लिए संपदा अधिकार संरचना की आवश्यकता थी। सबसे पहले दुनिया को गरीबों के उत्सर्जन (आजीविका से जुड़े धान या मवेशियों) और अमीरों के उत्सर्जन (मसलन कारों) के बीच अंतर करने की जरूरत थी। आजीविका से जुड़े उत्सर्जन ना तो विलासिता से जुड़े उत्सर्जनों के बराबर थे और ना ही ऐसा हो सकते थे।

दूसरे, वैश्विक स्तर पर साझा वस्तु के प्रबंधन के लिए देशों के बीच सहयोग आवश्यक था। जिस प्रकार किसी आवारा मवेशी या बकरी द्वारा जंगल में लगे पौधों को चट कर लिए जाने का खतरा रहता है ठीक उसी तरह वातावरण की सहन क्षमता से ज्यादा उत्सर्जन करने वाला कोई देश वैश्विक जलवायु समझौते को तार-तार कर सकता था। सहयोग तभी संभव था जब फायदों का बंटवारा समान रूप से होता। इसके बाद हमने प्रति व्यक्ति हकदारी (वैश्विक उत्सर्जन में हर देश का हिस्सा) का विचार विकसित किया और निष्पक्ष और न्यायपूर्ण जुड़ाव नियमों की स्थापना के लिए संपदा अधिकार ढांचे का उपयोग किया। हमने कहा कि अपने हिस्से से कम उत्सर्जन करने वाले देश अपने अनुपयुक्त कोटे का व्यापार कर सकते हैं। साथ ही प्रोत्साहनों का स्वच्छ उर्जा प्रौद्योगिकियों में इस्तेमाल कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में हमने जलवायु वार्ताकारों से स्थानीय जंगलों के बारे में सोचने और यह समझने का अनुरोध किया कि बराबरी का मसला कोई विलासिता नहीं है। बल्कि यह तो एक पूर्व शर्त है।

आज हमें मालूम है कि जलवायु परिवर्तन हमारे अस्तित्व के लिए खतरा है। ये गरीबों (जिनका इस समस्या को खड़ा करने में कोई योगदान नहीं है) को और हाशिए पर ला रहा है। न्यायपूर्ण विकास व गरीब लोगों के लिए विकास के अधिकार सुनिश्चित करने को लेकर वर्षा जल संचय और खाद्य प्रणालियों जैसी पर्यावरणीय परिसंपत्तियों में निवेश करना और उन्हें लचीला बनाना बेहद जरूरी है। हमें लचीलेपन को भी नए सिरे से परिभाषित करना होगा। मिसाल के तौर पर संसाधनों की सघनता वाली कृषि प्रणाली उत्पादक तो है लेकिन इसमें लचीलापन कम होता है।

किसानों पर अगर कर्ज का बोझ ज्यादा हो तो विपरीत परिस्थितियों की उन पर ज्यादा बड़ी मार पड़ती है। लिहाजा हमें बहु-फसली, कम संसाधनों वाली और तमाम तरह के झटकों के हिसाब से तैयार छोटे किसानों वाली कृषि प्रणालियों की मजबूती को समझना होगा। लचीली खाद्य प्रणाली तैयार करने में महिलाएं खासतौर से महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं लेकिन उन्हें अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। उनसे हासिल सबक को भविष्य में नीति और व्यवहार का संचालन करना चाहिए।