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आरटीआई एक्ट में संशोधन: सूचना आयुक्तों के दर्जे को लेकर संशय

M Sridhar Acharyulu

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1993 में संसद ने सभी राज्यों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्य मानवाधिकार आयोगों (एनएचआरसी) की स्थापना के लिए प्रोटेक्शन ऑफ ह्यूमन राइट्स एक्ट लागू किया। 8 जनवरी, 1994 को इसकी अधिसूचना जारी की गई थी। यह कानून जम्मू एवं कश्मीर के अलावा सभी राज्यों में लागू हुआ। वहां इस तरह की संस्था 1997 में राज्य विधानमंडल के एक अधिनियम द्वारा बनी। इस अधिनियम के अनुसार, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष भारत के मुख्य न्यायाधीश को मिलने वाले वेतन और सदस्य सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के बराबर वेतन और भत्ते प्राप्त करने के हकदार हैं। एनएचआरसी और सूचना आयोग, दोनों ही वैधानिक संस्था है, जो संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का काम करते हैं।

अत: संशोधन विधेयक को राष्ट्रपति की सहमति नहीं मिलनी चाहिए थी। इसे सेलेक्ट कमेटी या संसद की स्थायी समिति के पास पुनर्विचार के लिए लौटाया जाना चाहिए था। साथ ही, इस पर सभी हितधारकों के साथ उचित परामर्श की भी जरूरत थी। इन सब की अवहेलना सूचना के मौलिक अधिकार पर हमला है।

कानून में संशोधन एनडीए सरकार की चार गलत धारणाओं पर आधारित है:

ए) एनडीए सरकार गलत तरीके से सोचती है और कहती है कि आरटीआई संवैधानिक अधिकार नहीं है, जो एक मौलिक अधिकार है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णय है जो बताते है कि आरटीआई मौलिक/ संवैधानिक अधिकार है। इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया।

बी) केंद्र को लगता है कि सीआईसी, चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था नहीं हैं, जो त्रुटिपूर्ण है। असल में, संवैधानिक अधिकार को लागू करने वाली प्रत्येक संस्था एक संवैधानिक संस्था है। संविधान लागू किए जाने के समय ही इसका मूल रूप से उल्लेख किया जाना या अस्तित्व में होना आवश्यक नहीं है।

सी) केंद्र को लगता है कि मुख्य चुनाव आयोग (सीईसी) के साथ केंद्रीय निर्वाचन आयोग(सीईसी) की बराबरी करना एक गलती थी। लेकिन यह कहना गलत है कि दोनों एक रैंक के नहीं हैं, क्योंकि ये दोनों संस्थाएं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दो हिस्सों को लागू करती हैं।यानी, सीईसी मतदान का अधिकार और सीआईसी सूचना प्राप्त करने का अधिकार सुनिश्चित करता है।

डी) केंद्र को लगता है कि आरटीआई अधिनियम 2005 में जल्दबाजी में पारित किया गया था और जल्दबाजी में सीआईसी को सीईसी के बराबर माना गया। तथ्य यह है कि संसद की स्थायी समिति (पीएससी) ने प्रत्येक प्रावधान पर विस्तृत रूप से विचार किया, सरकारी और गैर सरकारी हस्तियों के साथ चर्चा की, लोगों और अन्य हितधारकों से परामर्श किया, मसौदे पर चर्चा हुई और इस पर विस्तृत बहस हुई। संसद की इस स्थायी समिति में भाजपा के सम्मानित सदस्य भी शामिल थे। अंततः ईएमएस नचियप्पन की अध्यक्षता वाली पीएससी ने सूचना आयोग को केंद्रीय चुनाव आयोग का दर्जा देने की सिफारिश की।

निम्नलिखित कारणों से इस विधेयक को पेश करने और पास कराने का तरीका उचित नहीं है

ए) विधेयक को किसी या व्यक्ति/संस्था के समक्ष परामर्श के लिए नहीं रखा गया था। आरटीआई का उपयोग करने वाले महत्वपूर्ण हितधारकों से परामर्श नहीं किया गया था। केंद्रीय या राज्य सूचना आयोग के वर्तमान या अवकाश प्राप्त सूचना आयुक्तों से भी परामर्श नहीं किया गया।

बी) अगले दिन के एजेंडे की घोषणा होने तक विधेयक की प्रति गुप्त रखी गई थी। यानी, बिल की प्रति सदस्यों को उपलब्ध नहीं कराई गई थी, जिसका अर्थ है कि उन्हें प्रस्ताव का विरोध करने या समर्थन करने की तैयारी के लिए कोई समय नहीं दिया गया था।

सी) प्रस्तावना और विचार के बीच, सांसदों को पर्याप्त समय नहीं दिया गया था।

डी) दिलचस्प रूप से सदन के सदस्यों को इस बात से गुमराह रखा गया कि आखिरकार सूचना आयुक्तों को क्या दर्जा दिया जाएगा, उनका कार्यकाल क्या होगा। 2005 में संसद ने सूचना आयोग को चुनाव आयोग का दर्जा दिया था और दोनों को सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर वेतन दिए जाने की बात की थी। सूचना आयुक्तों के इस निश्चित कार्यकाल और निश्चित वेतन को खत्म करने जैसा कदम एनडीए सरकार की कथित गलत धारणाओं की वजह से सामने आई है। यह कार्यपालिका द्वारा विधायिका की शक्ति को हड़पने जैसा मामला है।

ई) केंद्र सरकार इस तथ्य को लेकर अनिश्चितता पैदा कर रही है कि आखिरकार सूचना आयुक्तों का दर्जा किस हद तक कम किया जाएगा। इससे सूचना आयुक्तों का कार्यकाल और दर्जा बार-बार बदलने की गुंजाइश बनी रहेगी, जिससे सरकार उन्हें हमेशा दबाव में रखेगी और इसलिए सूचना आयुक्त स्वतंत्र रूप से अपने दम पर कार्य करने की स्थिति में नहीं होंगे।

एफ) केंद्र ने दावा किया है कि इससे पारदर्शिता में सुधार होगा, लेकिन खुद इस विधेयक के संबंध में ही कोई पारदर्शिता नहीं है। सीआईसी की स्वतंत्रता को उसके दर्जे को कम करके प्रभावित की गई है, जो आगे चलकर पारदर्शिता को प्रभावित करेगा।

(लेखक पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त और बेनेट विश्वविद्यालय में संवैधानिक कानून के प्रोफेसर हैं)