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मई दिवस : उत्तराखंड में धरनारत हैं सैकड़ों मजदूर, सुध नहीं ले रही सरकार

नैनीताल पीपुल्स फोरम का कहना है कि कठोर संघर्ष से हासिल श्रमिक अधिकारों को लगातार खत्म किया जा रहा है।

Varsha Singh

उत्तराखंड, पौड़ी के श्रीनगर में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के गेट के बाहर 180 सुरक्षा और सफाई कर्मचारी धरना दे रहे हैं। 27 अप्रैल को अपनी ड्यूटी पर पहुंचने के बाद उन्हें बताया गया कि उनकी सेवाएं समाप्त कर दी गई हैं। विश्वविद्यालय में अब वे प्रवेश नहीं कर सकते। जिस विश्वविद्यालय के दरवाजों की अब तक वे सुरक्षा करते आए थे, अब उन्हीं दरवाजों के बाहर अपने अधिकारों के लिए नारे लगा रहे हैं।

राज्य में दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं तक लोगों की पहुंच बनाने के लिए ही 108 एंबुलेंस सेवा को संजीवनी कहा जाता था। पिछले दस साल से जो लोग पहाड़ के गांवों से मरीजों को अस्पताल ले जाने का कार्य किया करते थे, कंपनी का ठेका बदलने से, वे सड़क पर आ गए। स्वास्थ्य महकमे से लेकर श्रम विभाग तक इन कर्मचारियों ने अपनी पीड़ा रखी। वे श्रम नियमों की अनदेखी का शिकार हुए। एक झटके में 900 कर्मचारी सड़क पर आ गए। 30 अप्रैल से देहरादून के परेड ग्राउंड में वे अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गए हैं।

इसी साल की पहली सुबह जब लोग जश्न मना रहे थे, पंत नगर स्थित औद्योगिक क्षेत्र सिडकुल स्थित भगवती प्रोडक्टस लिमिटेड (माइक्रोमैक्स) के 303 कर्मियों की छंटनी कर दी गई। प्रबंधन ने छंटनी से पहले छुट्टियां घोषित कर श्रमिकों को ठगा। उस समय से मजदूर गैरकानूनी छंटनी के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। दिन-रात कंपनी के गेट पर धरना प्रदर्शन जारी है।

अप्रैल के आखिरी हफ्ते में जब पारा चालीस डिग्री के पास पहुंच गया था, रामनगर में श्रमिकों की बस्ती जलकर खाक हो गई। उनकी सारी कमाई राख हो गई। जिन संघर्षों के बाद उत्तराखंड अलग राज्य बना। वहां संघर्ष कर जीवन गुजर-बसर कर रहे श्रमिकों के लिए बेहद कठिन परिस्थितियां हैं।

नैनीताल पीपुल्स फोरम का कहना है कि कठोर संघर्ष से हासिल श्रमिक अधिकारों को लगातार खत्म किया जा रहा है। कामगारों की यूनियन बनाने के बुनियादी अधिकार पर संकट खड़ा हो गया है। संगठित हो या असंगठित, सार्वजनिक हो या निजी, हर क्षेत्र में मजदूरों का शोषण बेतहाशा बढ़ रहा है। इस फोरम से जुड़े कैलाश जोशी और राजीव लोचन शाह के मुताबिक, मौजूदा सरकार ने तो श्रम कानूनों के बदले श्रम संहिता बनाकर इन अधिकारों को नेस्तनाबूद ही कर दिया है।

वे कहते हैं कि राज्य में सरकारी नौकरियों के पद खाली पड़े हैं। काम चलाने के लिए जो छिटपुट भर्तियां हो रही हैं वे आउट सोर्सिंग के जरिये ठेका, संविदा, मानदेय, पारिश्रमिक आधारित श्रमिकों की हैं।  उनका आरोप है कि राज्य निर्माण के बाद उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए बनाए गए सिडकुलों में श्रम कानूनों का उल्लंघन आम बात है। न्यूनतम मजदूरी भी मजाक बन कर रह गई है। महिला सशक्तिकरण और बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के हो-हल्ले के बीच आशा-आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं ओर भोजन माताओं की रुदन कोई सुनने को तैयार नहीं हो रहा।

सीपीआई-एमएल के नेता इंद्रेश मैखुरी कहते हैं कि सब जगह ठेका प्रथा लागू है, यूनियन बनाने के अधिकार को बाधित किया जाता है,जो सुरक्षा के लिए नियुक्त कर्मी हैं, उनकी अपनी नौकरी सुरक्षित नहीं है। स्वास्थ्य के लिए नियुक्त कर्मी हैं, उनके स्वास्थ्य की परवाह करने वाला कोई नहीं है। श्रम कानून पूरी तरह ताक पर रख दिये गए हैं।

इसके साथ ही महिला श्रमिकों की तो पहचान की भी समस्या है। ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वुमेन एसोसिएशन की जनरल सेक्रेटरी मरियम धावले कहती हैं कि असंगठित क्षेत्र में सबसे ज्यादा औरतें कार्य कर रही हैं। उनके कार्य के अनुसार मजदूरी बहुत ही कम है। औरतें के श्रम का मूल्य कम रखा जाता है। फिर असंगठित क्षेत्र में कार्य कर रही महिला श्रमिकों को किसी तरह की कानूनी सुरक्षा भी नहीं मिलती है। धावले कहती हैं कि आजादी के बाद सबसे ज्यादा बेरोजगारी की मार औरतों पर पड़ी है। वर्क पार्टिसिपेशन में औरतों के कार्य का जो प्रतिशत होना चाहिए, वो आज सबसे कम है। औरतों को काम ही नहीं मिल रहा है, जिसके चलते उनकी जिंदगियां ज्यादा असुरक्षित हो गई हैं। इसीलिए अपना घर चलाने के लिए वे जो भी काम मिलता है, उसके लिए तैयार हो जाती हैं।

राज्य में चुनावी शोर में भी किसी राजनीतिक दल ने श्रमिकों के हित की बात नहीं की। श्रमिकों के मुद्दे उनकी पार्टी का एजेंडा नहीं बने। कार्य को लेकर इतनी असुरक्षा और श्रमिकों की बदतर हालत पर सरकार चुप रहती है।