राजकाज

गांधी और कॉपीराइट कानून

कॉपीराइट के बारे में अपने उदार विचारों के कारण महात्मा गांधी के लेखन और व्याख्यानों के कॉपीराइट अधिकार आज सहजता से और निःशुल्क उपलब्ध हैं, जबकि मार्टिन लूथरकिंग जूनियर की पुस्तकों के साथ ऐसी सुविधाएं नहीं हैं

Latha Jishnu

दिल्ली में जनवरी एक उत्साहहीन और फीका महीना है। कम से कम मेरे जैसे कुछ लोगों के लिए तो यह बात पक्के तौर पर कही जा सकती है। किसी एक के लिए यह उदासियों सेभरा, एक धूसर और कोहरे में डूबा मौसमहै, तो किसी दूसरे के लिए यह उन चुभती हुई स्मृतियों का महीना है जिनमें पूरी दिल्ली हमारे दौर के एक युगपुरुष की कायरतापूर्ण हत्या सेदहल उठी थी। वे स्मृतियां आज भी पूरे राष्ट्र के अवचेतन पर किसी बुरे सपनेकी तरह चिपकीहुई हैं।

इतिहास की उन्मादी धुनों में डूबी हांफती हुईं स्मृतियां! गणतंत्र दिवस के समारोह,जो जनवरी में होने वाले सभी दूसरे आयोजनों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण हैं, उस जगह से बेहद मामूली दूरी पर होते हैं, जहां 30 जनवरी,1948 को महात्मा गांधी को एक हिन्दूकट्टरपंथी ने गोली मार दी थी।

उनका अपराध केवल यह था कि वे बंटवारे के बाद इस मुल्क के रिसते हुए जख्मों की मरहमपट्टी करने की कोशिशों में जुटे थे। अभी इस बात के छह महीने भी नहीं गुजरे थे, जब उन्होंने भारत को आजादी दिलाई थी।

राजधानी में साम्प्रदायिक हिंसा में हुए रक्तपात को रोकने की अपील में बिरला हाउस (अब गांधी स्मृति) में अपने अंतिम उपवास के अवसर पर उन्होंने जो व्याख्यान दिए थे, उन्हें खोजनेके प्रयासों में वे चीजें मुझे इंटरनेट पर आसानी से मिल गईं।

बिरला हाउस में प्रतिदिन होने वाली प्रार्थनासभा की समाप्ति के बाद गांधी जो प्रवचन देते थे, वे उस विनयशीलता, मानवीय मूल्यों और धर्मनिरपेक्षता पर आधारित होते थे, जिनकी जरूरत इस दुनिया को आज भी है।

लेकिन यह आलेख उन सात्विक प्रवृतियों को केंद्र में रख कर नहीं लिखा है, जिसका संदेश 76 साल पहले गांधी ने तर्कहीन हिंसा में लिप्त अपने देशवासियों को देने की कोशिश की थी। यह आलेख यह बताने के लिए लिखा गया है कि अगर हमअपनी आजादी की लड़ाई को विभाजन के इतिहास को और खुद अपने आप को समझना चाहते हैं, तो गांधी के वैचारिक लेखन और व्याख्यानों से संबंधित सामग्रियां हमें कितनी सहजता के साथ सुलभ हो सकती हैं।

यहां हमारा ध्यान मुख्य रूप से दो अलग-अलग देशों और दो अलग-अलग पीढ़ियों के दो महान व्यक्तित्वों, गांधी और अफ़्रीकीअमेरिकियों के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले आंदोलनकारियों मार्टिन लूथर किंग जूनियर की पुस्तकों से संबंधित कॉपीराइट कानूनों और उनके प्रभावों पर केंद्रित है।

दोनों के बीच चमत्कारिक समानताएं थीं। किंग दमनकारीऔर नफरत करने वाली ताकतों से मुकाबला करने वाले गांधी के अहिंसात्मक संघर्ष से गहरे अर्थों में प्रभावित थे। गांधी उनके लिए एक पथ-प्रदर्शक की तरह थे जिन्होंने समाज मेंपरिवर्तन के लिए अपने खुद के ईजाद किए हुए तरीके आजमाए।

अश्वेतों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले इस नेता की भी हत्या कर दी गई थी। उन्हें 1963 में वाशिंगटन-मार्च केदौरान “मेरा भी एक सपना है” वाले उनके ऐतिहासिक भाषण के महज पांच साल के भीतर गोली मार दी गई। दोनों ही नेताओं के जीवन में जनवरी का विशेष महत्व था क्योंकि अमेरिकाउनकी जन्मतिथि जनवरी 15 को “मार्टिन लूथर किंग जूनियर दिवस” के रूप में मनाता है।

बहरहाल, अपनेअपने कॉपीराइट अधिकार के मुद्दे को दोनों महान नेताओं ने जिस प्रकार निपटाया वह एक- दूसरे से पूरी तरह भिन्न था। एक विधिवेत्ता होने के कारण कॉपीराइट संबंधीकानूनों में अस्पष्टता के बारे में गांधी का दृष्टिकोण बिल्कुल साफ था, लेकिन अपने मसले का स्थायी निराकरण करने के लिए उन्होंने एक संदर्भगत दृष्टिकोण का चुनाव किया, ताकि एक लेखक और प्रकाशक के रूप में उनके लेखन और व्याख्यानों को यथार्थपूर्ण रूप दिया जा सके।

यह एक ऐसा विषय है जिसे अभी भी उचित तरीके से रेखांकित नहीं किया गया है और नहीइस पर पर्याप्त शोध ही हुआ है। इस संदर्भ में एकमात्र अपवाद कोलंबिया लॉ स्कूल के श्यामकृष्ण बालगणेश हैं, जिन्होंने इस कथित गूढ़ विषय पर“गांधी और कॉपीराइट काव्यवहारवाद” शीर्षक से एक रोचक शोधपत्र लिखा है।

बालगणेश कहते हैं कि कॉपीराइट के बारे में गांधी के दृष्टिकोण का विस्तार इस बात का सूचक है कि उन्हें भविष्य में कॉपीराइटके विषय में होने वाली गंभीर बहसों का पूर्वानुमान था जिसे उन्होंने “कॉपीराइट का व्यवहारवाद” नाम दिया था। इसका अर्थ है कि कॉपीराइट कानून द्वारा नियत गुणदोषों पर विमर्शकरते हुए इस बात को भी ध्यान में रखना जरूरी है कि उन गुणदोषों के परिप्रेक्ष्य में यह किस प्रकार काम करता है।

अपने लेखन और व्याख्यानों की कॉपीराइट सुरक्षा के बारे में गांधी का शुरूआती नजरिया एक दृढ असहमति के रूप में प्रकट हुआ था। 1926 में गांधी ने किस्तों के रूप में अपनी आत्मकथा को “सत्य के साथ मेरे प्रयोग” के शीर्षक से प्रकाशित करने का काम शुरू कर दिया था।

यह प्रकाशन उनके द्वारा संपादित दो पत्रों, उनकी मातृभाषा गुजराती में प्रकाशित “नवजीवन” और अंग्रेजी में प्रकाशित “यंग इंडिया” में हुआ। “नवजीवन” में ये अंश मूल भाषा में जबकि “यंग इंडिया” में उनका अनूदित संस्करण प्रकाशित हुआ।

गांधी की आत्मकथा पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय थी और उन्होंने दूसरे समाचार पत्रों को भी इसकी इजाजत दे रखी थी और वे उन अंशों को उनकी अनुमति लिए बिना भी छाप सकते थे। हालांकि गांधी के समर्थकों ने उन्हें यह सलाह दी थी कि वे अपने कॉपीराइट संबंधी अधिकारों का उपयोग करें ताकि व्यावसायिक समाचार पत्र उनका शोषण नहीं कर पाएं, लेकिन गांधी उनके इस विचारसे पूरी तरह असहमत थे।

“मेरे संपादन में निकलने वाली पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखना हरेक नागरिक का सहज अधिकार होना चाहिए कॉपीराइट एक अस्वाभाविक नियंत्रण है। यह एक आधुनिक संस्था है, जिसकी जरूरत किसी को भी एक हद तक ही होनी चाहिए। इसलिए मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं है कि मैं अन्य अखबारों को उन अंशों के प्रकाशन के लिए मनाकर “यंग इंडिया” और “नवजीवन” के प्रसार में इजाफा करूं।”

नतीजा यह हुआ कि गांधी ने अपनी अनेक पुस्तकों और हजारों आलेखों का कॉपीराइट अधिकार नवजीवन ट्रस्ट को सौंप दिया। इस ट्रस्ट की स्थापना में उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाईथी और उनके कामों में सबसे महत्व पूर्ण उनकी आत्मकथा है, जो एक बेस्टसेलर है। गांधी की मृत्यु के लगभग 60 साल बाद 2009 में उनका समस्त लेखन आम लोगों के बीच आया।

हालांकि गांधीवादी विचारकों ने कड़ा विरोध करते हुए इस बात पर जोर दिया कि कॉपीराइट का अधिकार नवजीवन के पास ही सुरक्षित रहने दिया जाए। उनका तर्क था कि एक बारजब ऐसा लेखन आम लोगों के बीच आता है तब उससे लाभ कमाने के लालच में व्यवसायिक संस्थाएं उसकी वैचारिक शुचिता के साथ छेड़छाड़ करने लगती हैं।

ऐसा ही एक विवाद 2001 में भी सामने आया था जब विश्व भारती विश्वविद्यालय ने रवींद्रनाथ टैगोर के लेखन से संबंधित कॉपीराइट अधिकार को गंवाने के बाद 10 वर्षों की उसकी अवधि को बढ़ाने कीमांग की थी। चूंकि उन पुस्तकों को पब्लिक डोमेन में लाने के लाभों के कारण कॉपीराइट का अधिकार विश्वविद्यालय के पास सुरक्षित रखने के पैरोकारों का पलड़ा हल्का हो सकता था, इसलिए उस समय सरकार ने कहा कि कोई निर्णय लेने से पहले उसे आम लोगों के हितों का ध्यान भी रखना होगा।

किंग का मामला इससे भिन्न है। एक गंभीर विवाद का रूप ले चुके कॉपीराइट अधिकार के कारण उनके लिए अब सार्वजनिक उपलब्धता का कोई अर्थ नहीं रह गया है। उनका “मेरा भीएक सपना है” वाला ऐतिहासिक संबोधन पब्लिक डोमेन में नहीं है क्योंकि कॉपीराइट पर अभी तक उनका ही अधिकार है।

इसे सख्ती से लागू किया गया है और इसकी लाइसेंसिंग केलिए बहुत मोटी फीस वसूली जाती है। अपने भाषणों को किंग 1963 में कॉपीराइट के दायरे के अधीन ले आए। अमेरिकी कानून के अंतर्गत जो कॉपीराइट उस समय 56 सालों के लिए प्रभावी था, वह अब 95 सालों में बदल चुका है।

यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है क्योंकि इसका मतलब यह हुआ कि अमेरिकी जनता अपने इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण संबोधनों में एक के अंशों को ही कभी-कभार देख पाने में समर्थ है। विशेषज्ञों का यह मानना है कि यह कॉपीराइट कानून के “समुचित उपयोग के सिद्धांत” को कमजोर करना है क्योंकि जिनउपयोगकर्ताओं के पास इस कानून के अधीन पर्याप्त अधिकार हैं, उन्होंने भी या तो अपना विचार त्याग दिया है या उन्हें किंग इस्टेट या जिनकी सेवा वे ले रहे हैं उस व्यावसायिक इकाईको मोटी लाइसेंस फीस देने के लिए दबाव डाला जा रहा है। यह विचित्र स्थिति है। गांधी और किंग जैसे स्वप्नदर्शी नेता व उनका काम युगों की धरोहर है।