इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
राजकाज

पुस्तक समीक्षा: बर्बादी का शोकपत्र

पहले राजाओं, साहूकारों, अंग्रेजों ने कालाहांडी को लूटा। आजादी के बाद सरकारों ने। सूखे व मौसम की बेरूखी ने रही-सही कसर पूरी कर दी

Raju Sajwan

पश्चिमी ओडिशा के जिला कालाहांडी के बारे में एक धारणा ठोस रूप ले चुकी है कि विपन्न इलाके के लोग दमन और शोषण के लिए पैदा होते हैं और भुखमरी उनकी नियति है। 1993 में नुआपड़ा को कालाहांडी से अलग कर दिया गया। नुआपड़ा में ज्यादातर वे इलाके शामिल हैं, जहां लोग घोर गरीबी में जीवनयापन करते हैं, लेकिन नुआपड़ा से अलग होने के बाद भी कालाहांडी पर गरीबी व भूख की कालिख कम नहीं हुई। कालाहांडी के लोगों का दर्द कम करने के लिए पहले योजना आयोग और नीति आयोग ने कई योजनाएं बनाई, बावजूद इसके नीति आयोग के नवीनतम बहुआयामी गरीबी मूल्यांकन के अनुसार इस जिले का हर तीसरा व्यक्ति गरीब है। मतलब, तमाम नीतियों व योजनाओं के बाद भी कालाहांडी के हालात बदतर हैं।

आजाद भारत की सरकारें हों या आजादी से पहले के हुक्मरान, कालाहांडी की दुर्दशा के लिए बारी-बारी से कोसने व जिम्मेवार ठहराने का काम किया है, एक किताब ने। हाल ही में प्रकाशित इस किताब का नाम है, “मजदूरों की मंडी कालाहांडी”। इस किताब के लेखक अमरेंद्र किशोर लगभग 18 साल पहले ओडिशा की अनब्याही माताओं पर केंद्रित अपनी किताब की वजह से चर्चाओं में आए थे। सूखा, अकाल व भूख के लिए एक समय में भारत का इथियोपिया माने जाने वाले कालाहांडी पर क्या कुछ नहीं लिखा गया, लेकिन इतने गहन अध्ययन के बाद हिंदी में लिखी गई यह पहली किताब है, जो जिला कालाहांडी के बारे में इतनी जानकारी व तथ्यों से अवगत कराती है कि पाठक भौंचक रह जाता है। खासकर तब, जब लेखक बताते हैं कि कालाहांडी हमेशा से ऐसा नहीं था। कुछ ऐतिहासिक उद्धरण का हवाला देते हुए बताते हैं कि दो से ढाई हजार साल पहले दक्षिण एशिया में धान की खेती की शुरुआत कालाहांडी-कोरापुर से हुई और जंगल इतने समृद्ध थे कि स्थानीय कौंध जनजाति पूरी तरह से आत्मकेंद्रित थे और राजाओं के आदेश की अवहेलना करने से भी नहीं डरते थे। तब फिर कालाहांडी पर काला साया कब मंडराने लगा। लेखक बताते हैं कि लगभग 500 साल पहले यह सिलसिला शुरू हुआ। आदिवासी जंगलों पर निर्भर थे तो गैर-आदिवासी किसानी पर। लेखक लिखते हैं कि पर्वतद्वारक वंश के राजाओं ने जंगल व जमीन पर कब्जा करना शुरू किया। अंग्रेजों के काल में यह सिलसिला और तेज हुआ।

महुआ, जिसे गौंडी भाषा में “या या” यानी मां कहा जाता है पर अंग्रेजों ने पाबंदी लगा दी, क्योंकि अंग्रेज जानते थे कि महुआ के बिना आदिवासी गुलामी में जीने को मजबूर होंगे। ऐसा ही हुआ भी। यह किताब न केवल आज से कोई सौ साल पहले साजिशन वहां के मूल बाशिंदों को उनकी जमीन से बेदखली की पूरी बात बताती है, बल्कि आजादी के बाद सरकारी कार्यक्रमों और नीतियों में मौजूद खामियों को सिलसिलेवार पूरे तथ्यों व आंकड़ों के साथ सामने रखती है। कुछ प्रभावशाली जातियों का अस्तित्व बाद के सालों में अस्त होने लगा, कुछ जातियों ने अपना परम्परागत पेशा बदला, जीविका के साधन और चरित्र बदले, इसका विस्तार से जिक्र इस किताब में है। अमरेंद्र बताते हैं कि उन्होंने लगभग 500 गांवों में जाकर वहां लोगों के बीच रहकर इस किताब को एक दस्तावेज का रूप देने की कोशिश की है।

अमरेंद्र इस इलाके को विरोधाभास की धरती मानते हैं। जैसे- अच्छी बारिश होने के बावजूद फरवरी जाते ही यहां पानी की किल्लत होने लगती है। राज्य में धान की जबरदस्त पैदावार के बावजूद यहां की भूख लोगों को पलायन के लिए मजबूर करती है। वाटरशेड की दर्जनों परियोजनाओं में सैकड़ों करोड़ खर्च करने के बावजूद यहां अब तक सूखे से निपटने के उपाय नहीं हो पाए हैं। तमाम सुधार कार्यक्रमों के बावजूद समाज में साहूकार और गौंतिया (बड़े जमींदार) अभी भी अपना प्रभुत्व बनाए हुए हैं। वह आंकड़ों का हवाला देते हुए बताते हैं कि जिले की 15 लाख में से दो से तीन लाख लोग ही पहाड़ पर रहते हैं, शेष मैदानी इलाकों में रहते हैं। लगभग 43 फीसदी आबादी किसान हैं और 41 फीसदी भूमिहीन खेतिहर मजदूर। हाल के दशकों में एक हेक्टेयर से कम भूमि के मालिकों यानी सीमांत किसानों की संख्या तेजी से बढ़ी है। लेकिन ज्यादातर उपजाऊ व निचली भूमि (जहां बारिश का पानी अधिक इकट्ठा होता है) और सिंचाई की बेहतर पहुंच वाले इलाकों में अमूमन बड़े किसानों का स्वामित्व है, जबकि ऊंचे व बंजर इलाकों में छोटे किसानों के खेत हैं।

वह लिखते हैं कि आजादी के बाद स्थानीय लोगों ने पहले राज परिवार से जुड़े लोगों को संसद तक पहुंचाया, उन्होंने इलाके के लोगों की आवाज को संसद तक नहीं पहुंचाया। लेखक कालाहांडी की गरीबी को एक विस्मयकारी मेटाफर (रुपक) मानते हैं और क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक पक्ष पर तार्किक जानकारी देते हैं। विकास के स्वरुप पर चर्चा करते हुए वह अध्ययन सामग्रियों का सहारा लेते हैं। किताब में पलायन की तस्वीर महज विवरण मात्र नहीं है, बल्कि लेखक ने मानव तस्करी के धंधे में शामिल लोगों से मुलाकात तक की। साथ ही, आंध्रप्रदेश के उन ईंट-भट्ठों तक पहुंच गए, जहां कालाहांडी के मजदूर बदतर हालात में काम करते हैं। वह लिखते हैं कि कालाहांडी में न वन अधिकार कानून तरीके से लागू किया जा सका और न ही शिक्षा के अधिकारों की बहाली हो सकी। भूख की वजह से 90 के दशक में पूरी दुनिया में चर्चित होने वाले कालाहांडी में अब भूख का सिलसिला थमा है। पूर्व-मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने कहा था, “कालाहांडी अब भूख की भूमि नहीं है।” लेकिन लेखक सवाल करते हैं कि अगर कालाहांडी में हालात बदल गए हैं तो पलायन क्यों होता है? यहां मजदूरों की मंडियां क्यों सजती हैं? क्यों यहां मानव तस्करी के दलाल घूमते हैं और लोगों को पलायन करने का अग्रिम का भुगतान किया जाता है। वह कालाहांडी की स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल जानने अपने कंधे पर लाश ढोने वाले दोना मांझी के गांव तक जाते हैं और प्रधानमंत्री आवास योजना के दावे पर सवाल खड़ा करने के लिए बबलू बाग की कहानी बताते हैं, जो अनाथ है। वृद्ध दादी के साथ रहता है और उसके पास कोई घर नहीं है।

किताब का एक अध्याय कालाहांडी की दुर्दशा और मीडिया की भूमिका पर केंद्रित है। वह ओड़िया मीडिया की वास्तविकता की कलई खोलते हैं, हिंदी मीडिया की विवशताओं को सप्रसंग प्रस्तुत करते हैं और दर्जनों उदाहरणों के साथ भूख से तबाह हो रहे कालाहांडी की वास्तविक तस्वीर उजागर करने में अंग्रेजी मीडिया की भूमिका को दुरुस्त पाते हैं। यह अध्याय मीडिया अध्यययन केंद्रों और संस्थानों के लिए बेहद कारगर साबित हो सकता है। यह किताब ग्रामीण और विकास पत्रकारिता के छात्रों के लिए पाठयपुस्तक का काम कर सकती है। हालांकि किताब में दी गई जानकारियां कुछ बिखरी नजर आती हैं और सुगढ़ संपादकीय दक्षता की कमी का अहसास कराती हैं।