सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून 2005 में इसलिए बनाया गया था, ताकि लोग सार्वजनिक प्राधिकरणों से सूचना हासिल करके अपने सूचना के मौलिक अधिकार का व्यवहारिक तौर पर इस्तेमाल कर सकें। आरटीआई कानून के तहत सूचना आयोग (आईसी) अंतिम अपीलीय प्राधिकरण हैं। आईसी को लोगों के सूचना के मौलिक अधिकार की रक्षा करने और उन्हें सुविधा मुहैया कराने का दायित्व सौंपा गया है। आईसी का गठन केंद्र (केंद्रीय सूचना आयोग) और राज्यों में (राज्य सूचना आयोग) किया गया है।
15 फरवरी 2019 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरटीआई एक्ट के प्रभावी संचालन के लिए सूचना आयोग बेहद जरूरी हैं, “24) ……आरटीआई एक्ट में दी गई पूरी योजना में इन संस्थाओं (सूचना आयोगों) का अस्तित्व अनिवार्य हो जाता है और वे आरटीआई एक्ट के सुचारू संचालन के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं।” अदालत ने कहा कि सूचना आयुक्तों की आवश्यक संख्या आयोग के कार्यभार के आधार पर तय की जानी चाहिए। कोर्ट ने समय पर सूचना आयुक्तों की नियुक्ति सुनिश्चित करने के निर्देश भी दिए।
आयोगों के पास बहुत सी शक्तियां हैं जिनमें सार्वजनिक प्राधिकरणों को सूचना उपलब्ध कराने का आदेश देने, लोक सूचना अधिकारियों (पीआईओ) की नियुक्ति करने, कुछ श्रेणियों की सूचनाएं प्रकाशित करने और सूचना के रखरखाव की प्रथाओं में बदलाव करने जैसी शक्तियां भी शामिल हैं। आईसी के पास उचित कारण होने पर जांच का आदेश देने की शक्ति भी है। वह “शिकायतकर्ता को हुए किसी भी नुकसान या अन्य हानि के लिए क्षतिपूर्ति करने के लिए सार्वजनिक प्राधिकरण को बाध्य भी कर सकता है।” आयोगों को अधिनियम के उल्लंघन में दोषी पाए गए अधिकारियों को दंडित करने की शक्तियां भी दी गई हैं।
आरटीआई कानून ने लोगों को भारतीय लोकतंत्र में सार्थक भागीदारी निभाने और अपनी सरकारों की जवाबदेही तय करने का अधिकार दिया है। अनुमान के मुताबिक हर साल देशभर में 40 से 60 लाख आरटीआई आवेदन दाखिल होते हैं। पिछले 20 साल में भ्रष्टाचार और आवश्यक सेवाएं मुहैया कराने में हुई चूक के लिए सरकारों और अधिकारियों को जवाबदेह ठहराने और बुनियादी अधिकारों तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए इस कानून का व्यापक तौर पर इस्तेमाल किया गया है। इसका इस्तेमाल देश की सर्वोच्च संस्थाओं से उनके कामकाज, उनके फैसलों और उनके व्यवहार पर सवाल उठाने के लिए भी किया गया है।
दुर्भाग्यवश आरटीआई एक्ट लागू होने के 20 साल बाद भारत का अनुभव बताता है कि सूचना आयोगों का कामकाज ही इस कानून के प्रभावी क्रियान्वयन में सबसे बड़ी बाधा बन गया है। देशभर के कई आयोगों में अपीलों और शिकायतों का भारी बोझ मामलों के निस्तारण में और ज्यादा देरी की वजह बन रहा है। इस वजह से कानून बेअसर हो जाता है।
लंबित मामलों के बैकलॉग की एक बड़ी वजह केंद्र और राज्य सरकारों का केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों में समय पर आयुक्तों की नियुक्ति न कर पाना है। अक्टूबर 2023 में सूचना आयोगों में खाली पदों से जुड़ी एक याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि खाली पदों को न भरने से ऐसी स्थिति पैदा हो रही है, जिससे संसद के अधिनियम से मान्यता प्राप्त सूचना का अधिकार सफेद हाथी साबित हो रहा है। इतना ही नहीं, कानून के उल्लंघन के दोषी पाए गए अधिकारियों को दंडित करने में भी सूचना आयोगों को बहुत ज्यादा अनिच्छुक पाया गया है। पारदर्शिता के ये पहरेदार खुद भी पारदर्शिता और देश की जनता के प्रति जवाबदेही के मामले में अच्छा रिकॉर्ड पेश नहीं कर पाए हैं।
आरटीआई एक्ट के तहत भारत के 29 सूचना आयोगों से मिली जानकारी और आयोगों की वेबसाइटों और वार्षिक रिपोर्टों से प्राप्त आंकड़ों के विश्लेषण के नतीजे बेहद चिंताजनक हैं। इस विश्लेषण के जिन निष्कर्षों पर नीचे चर्चा की गई है, वे सतर्क नागरिक संगठन की तरफ से प्रकाशित भारत के सूचना आयोगों के रिपोर्ट कार्ड 2023-24 से लिए गए हैं।
आरटीआई एक्ट के तहत सूचना आयोगों में एक मुख्य सूचना आयुक्त और अधिकतम 10 सूचना आयुक्त होते हैं। समीक्षा अवधि के दौरान 29 में से 7 सूचना आयोग अलग-अलग अवधि तक पूरी तरह निष्क्रिय पाए गए, क्योंकि सभी आयुक्तों के पद खाली थे, जिनमें झारखंड, त्रिपुरा, गोवा, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आयोग शामिल हैं। सूचना आयोग सक्रिय न हो और सूचना मांगने वाले लोगों को कानून के प्रावधानों के अनुसार जानकारी भी न मिले, तो उन्हें आरटीआई एक्ट के जरिए कोई राहत नहीं मिल पाती।
झारखंड सूचना आयोग 8 मई 2020 यानी पांच साल से अधिक समय से निष्क्रिय है। ऐसे में झारखंड एसआईसी के अधिकार क्षेत्र में सार्वजनिक प्राधिकरणों से जानकारी मांगने वालों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन होता है, तो उन्हें आरटीआई एक्ट के तहत निर्धारित स्वतंत्र अपीलीय तंत्र की मदद नहीं मिल पाती। कई सूचना आयोगों में मुख्य सूचना आयुक्त के पद खाली थे या फिर समीक्षा अवधि के दौरान आयुक्तों की पर्याप्त संख्या के बिना काम कर रहे थे। इनमें केंद्रीय सूचना आयोग, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, बिहार और तमिलनाडु शामिल थे।
महाराष्ट्र का एसआईसी तब तक सिर्फ 5 सूचना आयुक्तों के साथ काम करता रहा, जब तक और आयुक्तों की नियुक्तियां कर उनकी संख्या बढ़ाकर 8 नहीं कर दी गईं। आयोग की क्षमता बहुत कम होने के कारण लंबित अपीलों और शिकायतों की संख्या चिंताजनक तरीके से बढ़ती गई। जून 2024 तक महाराष्ट्र एसआईसी में देश में सबसे ज्यादा करीब 1,10,000 अपीलें और शिकायतें लंबित थीं।
रिपोर्ट में पाया गया कि सीआईसी लगभग एक साल तक केवल 3 आयुक्तों (1 मुख्य + 2 आयुक्तों) के साथ काम कर रहा था और 8 पद खाली पड़े थे। इन 3 आयुक्तों की नियुक्ति नवंबर 2023 में हुई, ठीक उस समय जब सीआईसी निष्क्रिय होने वाला था, क्योंकि सभी मौजूदा आयुक्त भी कार्यमुक्त होने वाले थे। ऐसे में लंबित अपीलों और शिकायतों का आंकड़ा बढ़कर करीब 23,000 तक पहुंच गया। सूचना आयोगों में समय पर आयुक्तों की नियुक्ति न होने से अपीलों और शिकायतों का भारी बोझ बढ़ जाता है।
30 जून 2024 तक 29 सूचना आयोगों में लंबित अपीलों और शिकायतों की संख्या 4,05,509 तक पहुंच गई थी। हाल के वर्षों में लंबित अपीलों और शिकायतों का आंकड़ा तेजी से बढ़ा है।
समीक्षा अवधि के दौरान लंबित मामलों और उनके मासिक निपटान की दर के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि छत्तीसगढ़ एसआईसी को किसी मामले का निपटारा करने में 5 साल 2 महीने लगेंगे। यानी 1 जुलाई 2024 को दायर किया गया मामला साल 2029 में निपटाया जाएगा। इसी तरह, बिहार एसआईसी में अनुमानित समय साढ़े 4 साल होगा, जबकि ओडिशा में लगभग 4 साल।
आकलन से पता चला कि 14 आयोगों को किसी मामले के निस्तारण में 1 साल से भी ज्यादा का समय लगेगा। सूचना आयोगों की तरफ से अपीलों और शिकायतों के निस्तारण में हो रही अत्यधिक देरी आरटीआई एक्ट के मूल उद्देश्य का उल्लंघन करती है। आयोगों में ज्यादा देरी से कानून आम लोगों के लिए, खासकर सरकारी सेवाओं पर सबसे अधिक निर्भर हाशिये पर रहने वालों के लिए बेअसर हो जाता है। जबकि सूचना की सबसे ज्यादा जरूरत उन्हें ही होती है।
जुलाई 2023 से 30 जून 2024 के दौरान कई सूचना आयोग बिना कोई आदेश पारित किए अपीलें और शिकायतें लौटाते पाए गए। सीआईसी ने समीक्षा अवधि में दर्ज की गई 19,347 अपीलों और शिकायतों में से करीब 14,000 लौटा दीं। यानी सीआईसी को मिली 42 फीसदी अपीलें/शिकायतें सीधे वापस कर दी गईं। सीआईसी की वेबसाइट यह जानकारी देती है कि कितनी अपीलें/शिकायतें कमियों को दूर करने के बाद फिर से सीआईसी में दाखिल की गईं। आंकड़ों से पता चलता है कि जिन अपीलकर्ताओं और शिकायतकर्ताओं के मामलों को लौटा दिया गया था, उनमें से करीब 96 फीसदी मामले उन्होंने दोबारा सीआईसी में दाखिल ही नहीं किए।
बिहार एसआईसी में इसी अवधि के दौरान 10,548 अपीलें और शिकायतें दर्ज की गईं, लेकिन आयोग ने उसी पीरियड में इससे ज्यादा 11,807 मामले लौटा दिए।
सीआईसी और कुछ एसआईसी की तरफ से बिना कोई आदेश दिए इतनी बड़ी संख्या में अपीलें और शिकायतें लौटाने की यह प्रथा बेहद चिंताजनक है। इससे यह आशंका पैदा होती है कि शायद यह सूचना मांगने वालों को हतोत्साहित करने और आयोगों में लंबित मामलों की संख्या घटाने का एक तरीका है, क्योंकि कई लोग, खासकर गरीब और हाशिये पर रहने वाले अपनी अपील या शिकायत लौटाए जाने पर निराश होकर हार मान लेते हैं। यही वजह है कि सीआईसी से लौटाए गए 95 फीसदी से अधिक मामलों को अपीलकर्ताओं और शिकायतकर्ताओं ने दोबारा दाखिल ही नहीं किए। आयोगों को अपीलें/शिकायतें दर्ज कराने की प्रक्रिया में लोगों की मदद करनी चाहिए, न कि उन्हें यूं ही लौटा देना चाहिए।
आरटीआई एक्ट सूचना आयोगों को यह अधिकार देता है कि वे कानून का उल्लंघन करने वाले जन सूचना अधिकारियों पर अधिकतम 25,000 रुपये का जुर्माना लगा सकें। दंड का प्रावधान इस कानून को प्रभावी बनाने और पीआईओ को उल्लंघन से रोकने का एक अहम साधन है। आकलन से पता चला कि आयोग उन मामलों के बेहद छोटे हिस्से में ही जुर्माना लगाते हैं, जिनमें दंडित किया जा सकता था। हकीकत में आयोग पीआईओ से यह पूछने में भी झिझकते दिखे कि उन्होंने कानून का पालन क्यों नहीं किया।
1 जुलाई 2023 से 30 जून 2024 की अवधि में 23 आयोगों ने संबंधित जानकारी उपलब्ध कराई। इसमें कुल 3,953 मामलों में दंड लगाया गया। निस्तारित मामलों और दंड लगाए गए मामलों, दोनों की सूचनाएं देने वाले 20 आयोगों के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला कि सिर्फ 3 फीसदी निस्तारित मामलों में ही दंड लगाया गया। विश्लेषण से यह भी पता चला कि जिन मामलों में जुर्माना लगाया जा सकता था, उनमें भी केवल 5 प्रतिशत मामलों में ही दंड लगाया गया। यानी आयोगों ने अधिकारियों के दोषी होने के बावजूद ऐसे 95 प्रतिशत मामलों में उन्हें दंडित ही नहीं किया।
दोष साबित होने के बावजूद दंड नहीं लगाने से सार्वजनिक प्राधिकरणों को यह संदेश जाता है कि कानून का उल्लंघन करने पर भी उन्हें कोई गंभीर परिणाम नहीं भुगतने होंगे। यह आरटीआई एक्ट की उस मूल संरचना को कमजोर कर देता है, जिसमें कानून का पालन कराने के लिए दंड का प्रावधान किया गया है। इससे दंड से मुक्ति की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है।
वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित करने और उन्हें सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध कराने के मामले में भी कई सूचना आयोगों का प्रदर्शन निराशाजनक पाया गया है। विश्लेषण से पता चलता है कि वैधानिक जिम्मेदारी होने के बावजूद कई आयोग समय पर अपनी वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित नहीं कर पाते।
12 अक्टूबर 2024 तक 29 में से 18 सूचना आयोगों (62 फीसदी) ने 2022-23 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की थी। इसी तरह, 33 फीसदी आयोगों ने अपनी नवीनतम वार्षिक रिपोर्ट वेबसाइट पर उपलब्ध ही नहीं कराई थी।
(अंजलि भारद्वाज और अमृता जौहरी सतर्क नागरिक संगठन व नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टू इन्फॉर्मेशन से जुड़ीं हैं और जवाबदेही एवं पारदर्शिता की पैरोकार हैं)