इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
राजकाज

सूचना का अधिकार कानून के 20 साल: पारदर्शिता की लड़ाई में नई चुनौतियां

लोकतंत्र में पारदर्शिता को कमजोर करने की कोशिशें आरटीआई की शक्ति का प्रमाण हैं

Anjali Bhardwaj, Amrita Johri

लोकसभा चुनाव 2014 एक लोकप्रिय भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की पृष्ठभूमि में हुए। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने “भ्रष्टाचार मुक्त भारत” का वादा किया और सत्ता में आई। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में भ्रष्टाचार से लड़ने का सबसे असरदार तरीका है नागरिकों को हर वह जानकारी मुहैया कराना, जिसके जरिए सरकार और उसके अधिकारियों की जवाबदेही तय की जा सके। लेकिन दुर्भाग्यवश भाजपा के पिछले 11 वर्षों के शासनकाल में देश की पारदर्शी व्यवस्था को सुनियोजित तरीके से कमजोर किया गया है।

सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम, 2005 भारत के नागरिकों को सबसे सशक्त बनाने वाले कानूनों में से एक रहा है। आरटीआई ने लोकतंत्र में सार्थक भागीदारी के लिए लोगों को सक्षम बनाया है। अनुमानों के मुताबिक, हर साल देश में 40 से 60 लाख आरटीआई आवेदन दाखिल किए जाते हैं। पिछले दो दशकों में इस कानून का व्यापक रूप से इस्तेमाल किया गया है, ताकि सरकारों और सरकारी अधिकारियों को भ्रष्टाचार और आवश्यक सेवाएं मुहैया कराने में चूक के लिए जवाबदेह ठहराया जा सके, साथ ही बुनियादी अधिकारों तक पहुंच भी सुनिश्चित की जा सके।

देश में आरटीआई एक्ट के लागू होने के 20 साल बाद यह बात अब साफ हो चुकी है कि अगर गरीबों और हाशिए पर खड़े समुदायों को अपने अधिकारों और लाभ हासिल करने की कोई उम्मीद रखनी है, तो उन्हें समय पर प्रासंगिक जानकारी मिलना जरूरी है। यह तथ्य कोविड-19 महामारी के दौरान और भी स्पष्ट हो गया, जब लाखों मरीजों की जिंदगी बचाने के लिए अस्पतालों के बिस्तर और ऑक्सीजन की उपलब्धता के बारे में रियल टाइम में सही जानकारी मिलना अहम हो गया।

गोपनीयता के पर्दे के पीछे ही जनता के अधिकार छीने जाते हैं और भ्रष्टाचार की जड़ें पनपती हैं। आरटीआई एक्ट का इस्तेमाल कर देश के सर्वोच्च अधिकारियों से उनके प्रदर्शन, उनके फैसलों और उनके आचरण पर सवाल पूछे गए। इस कानून ने बड़े घोटालों को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

चुनावी बांड घोटाला, व्यापम घोटाला और आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला जैसे भ्रष्टाचार के मामलों का खुलासा इसी कानून की मदद से संभव हुआ। आरटीआई एक्ट का इस्तेमाल कर कई बैंकिंग घोटालों में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की निगरानी व्यवस्था और उसकी भूमिका से जुड़ी जानकारियां हासिल की गईं, जिसके परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण फैसला आया।

इसमें अदालत ने माना कि आरबीआई को निरीक्षण रिपोर्ट, बैंकों की जोखिम आकलन रिपोर्ट, जानबूझकर कर्ज न चुकाने वाले कर्जदारों के नाम और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) का विवरण सार्वजनिक करना होगा। इस कानून ने लोकतांत्रिक ढांचे में सत्ता के पुनर्वितरण का महत्वपूर्ण काम शुरू किया। शायद यही कारण है कि इस एक्ट और इसका इस्तेमाल करने वालों के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है।

कमजोर सूचना आयोग

आरटीआई एक्ट के तहत गठित किए गए सूचना आयोगों (आईसी) की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। सूचना आयोग अंतिम अपीलीय प्राधिकरण होते हैं और उनके पास बहुत से अधिकार होते हैं। इनमें सार्वजनिक प्राधिकरणों को सूचना उपलब्ध कराने का आदेश देने से लेकर इस एक्ट का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों को दंडित करने जैसे अधिकार भी शामिल हैं।

सरकारें सूचना आयुक्तों की नियुक्ति नहीं कर रही हैं, जिससे आयोगों में लंबित मामलों का बोझ बढ़ता जा रहा है और इस बोझ तले दबा आरटीआई एक्ट ध्वस्त और बेदम होता जा रहा है। भारत में सूचना आयोगों के कामकाज पर सतर्क नागरिक संगठन (एसएनएस) की 2023–24 की रिपोर्ट के मुताबिक, 29 में से 7 सूचना आयोग अलग-अलग अवधियों में निष्क्रिय रहे।

रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि केंद्र सरकार ने मई 2014 से अब तक केंद्रीय सूचना आयोग में एक भी आयुक्त की नियुक्ति तब तक नहीं की, जब तक लोगों ने अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया। झारखंड का आयोग पांच साल से अधिक समय से निष्क्रिय है। अक्टूबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि अगर सूचना आयोगों में रिक्तियां नहीं भरी गईं तो आरटीआई अधिनियम “सफेद हाथी” बनकर रह जाएगा।

खाली पड़े पदों की वजह से अपीलों और शिकायतों का बैकलॉग बढ़ता जाता है। इस समय देशभर के सूचना आयोगों में 4 लाख से अधिक मामले लंबित हैं। लोगों को अपने मामलों की सुनवाई के लिए बहुत लंबे समय तक इंतजार करना पड़ रहा है।

रिसर्च के मुताबिक, 14 आयोगों में लंबित मामले इतने ज्यादा बढ़ गए हैं कि किसी अपील या शिकायत के निस्तारण में एक साल से ज्यादा का समय लग जाएगा। इतना ज्यादा वक्त लगने के गंभीर दुष्परिणाम होते हैं, जिससे सूचना अर्थहीन हो जाती है, यानी सूचना देने में की गई देरी का मतलब है सूचना देने से इनकार कर देना।

लोकतंत्र में पारदर्शिता के पहरेदार इन संस्थानों को एक और झटका 2019 में आरटीआई अधिनियम में संशोधन के रूप में लगा, जिसने आयोगों की स्वायत्तता को कमजोर कर दिया। 2005 के आरटीआई अधिनियम में आयुक्तों को कार्यकाल की सुरक्षा और उच्च दर्जा दिया गया था, ताकि वे स्वतंत्र रूप से काम कर सकें और देश के सर्वोच्च पदों को भी कानून के प्रावधानों का पालन करने का निर्देश दे सकें।

लेकिन जुलाई 2019 में संसद में पारित आरटीआई संशोधन अधिनियम ने केंद्र सरकार को देशभर के आयुक्तों का कार्यकाल, उनका वेतन और सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले लाभ तय करने का अधिकार दे दिया। इन संशोधनों से यह आशंका पैदा हो गई कि आयुक्त अब ऐसी सूचनाओं को सार्वजनिक करने के निर्देश देने से बचेंगे, जिन्हें केंद्र सरकार उजागर नहीं करना चाहती। आयुक्तों को डर होगा कि ऐसे आदेश देने से उनकी पेंशन और सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले लाभ प्रभावित हो सकते हैं।

डाटा संरक्षण के नाम पर

अगस्त 2023 में लोगों के सूचना के अधिकार को एक और बड़ा झटका लगा। सरकार ने संसद से डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन (डीपीडीपी) एक्ट पारित कराया, जिसमें सूचना के अधिकार कानून को संशोधित करने का प्रावधान शामिल है। जनवरी 2025 में सरकार ने डीपीडीपी एक्ट का ड्राफ्ट जारी कर जनता से टिप्पणियां मांगी। न्यूज रिपोर्ट्स के अनुसार, यह कानून जल्द ही लागू किया जाएगा।

डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट (डीपीडीपी एक्ट) की धारा 44(3) के तहत आरटीआई एक्ट में संशोधन किया गया है, जिससे लोगों की सूचना तक पहुंचने की क्षमता पर नकारात्मक असर पड़ा है। आरटीआई एक्ट की धारा 8(1)(जे) में किए गए संशोधन के तहत अब सभी व्यक्तिगत जानकारियों को सार्वजनिक करने से छूट दे दी गई है।

इससे वे अपवाद समाप्त हो गए हैं जो पहले आरटीआई एक्ट में मौजूद थे, जिनके अनुसार निजी जानकारी तभी रोकी जा सकती थी, जब उसका किसी सार्वजनिक गतिविधि या जनहित से कोई संबंध न हो या वह निजता का अनुचित हनन करती हो। इतना ही नहीं, इस संशोधन से आरटीआई एक्ट की धारा 8(1) की वह महत्वपूर्ण उपधारा भी समाप्त हो गई है, जिसमें कहा गया था कि “वह जानकारी जो संसद या राज्य विधानमंडल से नहीं रोकी जा सकती, किसी भी व्यक्ति से भी नहीं रोकी जाएगी।”

सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए लोगों की सूचना तक पहुंच जरूरी है, जिसमें निजी डेटा की विभिन्न श्रेणियां भी शामिल हैं। उदाहरण के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि नागरिकों को जानबूझकर कर्ज न चुकाने वाले लोगों के नाम और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) का विवरण जानने का अधिकार है। लोकतंत्रों में आमतौर पर मतदाता सूचियों को नाम, पते और अन्य निजी डेटा के साथ सार्वजनिक किया जाता है, ताकि जन-परीक्षण संभव हो और चुनावी धोखाधड़ी रोकी जा सके।

भारत में आरटीआई एक्ट के इस्तेमाल के अनुभवों से यह साबित हुआ है कि अगर लोगों, खासकर गरीबों और हाशिए पर रहने वाले समुदायों को सरकारी योजनाओं और कल्याणकारी कार्यक्रमों का लाभ पाने की कोई उम्मीद रखनी है, तो प्रासंगिक और छोटी से छोटी जानकारी तक उनकी पहुंच जरूरी है।

उदाहरण के लिए, सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी पीडीएस (कंट्रोल) ऑर्डर में राशन कार्ड धारकों के विवरण और राशन की दुकानों के रिकॉर्ड को सार्वजनिक डोमेन में रखने की आवश्यकता को मान्यता दी गई है ताकि पीडीएस की सार्वजनिक जांच और सामाजिक लेखा परीक्षा संभव हो सके। राशन कार्डधारकों के विवरण और राशन दुकानों के रिकॉर्ड को पब्लिक डोमेन में रखने की अनुमति दी गई है, ताकि पीडीएस की सार्वजनिक निगरानी और सोशल ऑडिट हो सके।

खोजी पत्रकारों ने भी घोटालों और भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए बड़े पैमाने पर आरटीआई एक्ट का इस्तेमाल किया है। ऐसे मामलों में अक्सर निजी जानकारियां, जैसे कि भ्रष्टाचार या गलत कामों में शामिल सरकारी अधिकारियों के नाम आदि तक पहुंच भी जरूरी होती है। लेकिन डीपीडीपी कानून ने आरटीआई अधिनियम की धारा 8(1)(जे) में संशोधन करके लोगों की महत्वपूर्ण सूचनाओं तक पहुंचने की क्षमता को गंभीर रूप से सीमित कर दिया है।

इन संशोधनों से ऐसी सूचनाओं को सार्वजनिक करने से रोका जा सकता है, जिनमें कर्ज न चुकाने वालों के नाम, चुनावी बांड खरीदने वालों के नाम, वोटर लिस्ट, लोकसेवकों की संपत्ति से जुड़ी घोषणाएं, फैसला लेने में शामिल अधिकारियों के नाम, ठेकेदारों के नाम शामिल हैं। और इसके लिए सिर्फ “निजी जानकारी” का बहाना बनाना ही काफी होगा।

“नो डेटा अवेलेबल”

किसी भी लोकतंत्र में यह बेहद जरूरी है कि सरकार समय पर और सटीक ढंग से आंकड़े एकत्रित करे। यह आरटीआई एक्ट के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए भी बुनियादी शर्त है। लेकिन हाल के वर्षों में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर सरकार ने यह कहकर सार्वजनिक निगरानी से बचने की कोशिश की है कि उसके पास डेटा उपलब्ध ही नहीं है।

आरटीआई आवेदनों और यहां तक कि संसद में सांसदों के पूछे गए सवालों के जवाब में सरकार ने दावा किया है कि उसके पास कोविड-19 के दौरान ऑक्सीजन की कमी से हुई मौतों का कोई डेटा ही नहीं है। नेशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट (नीट) जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं में पेपर लीक का डेटा नहीं है, प्राकृतिक आपदाओं से हुए नुकसान का डेटा नहीं है, किसान आत्महत्याओं के कारणों का विवरण भी नहीं है, यहां तक कि सरकार की ओर से अधिकृत इलेक्ट्रॉनिक निगरानी का डेटा भी उपलब्ध नहीं है।

हाल ही में भारत के चुनाव आयोग ने आरटीआई आवेदनों के जवाब में कहा कि उसके पास ऐसे किसी भी मूल्यांकन के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर आयोग ने 2025 में पूरे देश में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) शुरू करने का फैसला लिया है। यही नहीं, आयोग ने अपने पास इस फैसले से संबंधित कोई भी फाइल उपलब्ध होने से इनकार कर दिया है।

जानलेवा हमले

देशभर में अब तक आरटीआई एक्ट के तहत सूचना मांगने और सरकार में भ्रष्टाचार व गलत काम उजागर करने वाले करीब 100 व्हिसलब्लोअर मारे जा चुके हैं। देश में व्हिसलब्लोअर्स को मजबूत सुरक्षा व्यवस्था मुहैया कराने में सरकार ने रत्ती भर भी राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई है।

9 साल से भी ज्यादा समय बीतने के बाद भी सरकार ने व्हिसलब्लोअर्स प्रोटेक्शन (डब्ल्यूपीबी) एक्ट, 2014 को लागू करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। इस कानून में व्हिसल ब्लोअर्स की पहचान की रक्षा और उन्हें उत्पीड़न से सुरक्षा मुहैया कराने का प्रावधान है। लेकिन कानून न लागू होने की वजह से जान को जोखिम में डालकर सत्ता को सच्चाई का आईना दिखाने वाले व्हिसल ब्लोअर्स के पास सुरक्षा पाने का कोई वैधानिक तंत्र नहीं है।

लोकतंत्र में पारदर्शिता को कमजोर करने में जुटी सरकार की ये कोशिशें आरटीआई एक्ट की शक्ति का प्रमाण हैं। इसलिए यह जरूरी है कि लोग बड़े पैमाने पर आरटीआई एक्ट का इस्तेमाल करते रहें, इसे और ज्यादा कमजोर होने से बचाने के लिए संघर्ष जारी रखें। आखिरकार सतत निगरानी ही लोकतंत्र की कीमत है।

(अंजलि भारद्वाज और अमृता जौहरी सतर्क नागरिक संगठन व नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टू इन्फॉर्मेशन से जुड़ीं हैं और जवाबदेही एवं पारदर्शिता की पैरोकार हैं)