“तुम एक कम पढ़ी-लिखी महिला सूचना का अधिकार क्यों चाहती हो?”
“जब मैं अपने बेटे को 10 रुपए देकर बाजार भेजती हूं तो उससे हिसाब मांगती हूं। सरकार करोड़ों रुपए खर्च करती है। सरकारी पैसा हमारा पैसा है, फिर मैं हिसाब क्यों नहीं मांग सकती?”
यह सवाल-जवाब उस वक्त हुआ था जब सूचना का अधिकार (आरटीआई) अस्तित्व में नहीं आया था। 1996 में यानी सूचना के अधिकार कानून बनने से 9 साल पहले मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) से जुड़ी सुशीला जब दिल्ली आईं थीं, तब एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनसे यह सवाल पूछा गया था। सुशीला का जवाब निरुत्तर करने वाला था।
राजस्थान के राजसमंद जिले के देवडूंगरी गांव में 1990 में मिट्टी के कच्चे घर में अरुणा रॉय ने अपने साथियों के साथ मई दिवस पर एमकेएसएस का गठन किया था। अरुणा रॉय आईएएस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) सेवा त्यागकर समाज सेवा के क्षेत्र में उतरी थीं। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) और सूचना का अधिकार इसी आंदोलन की उपज हैं। इस आंदोलन में एक अहम मोड़ तब आया जब एमकेएसएस ने 2 दिसंबर 1994 को राजस्थान के पाली जिले के कोट किराना गांव में हुई पहली जनसुनवाई में विकास कार्यों में भ्रष्टाचार की पोल खोली। इसी जनसुनवाई ने जानने के हक की मांग प्रबल की। ह्यूमन डेवलपमेंट रिसोर्स सेंटर द्वारा प्रकाशित चर्चा पत्र श्रृंखला 4 “पीपल्स राइट टू इन्फॉर्मेशन मूवमेंट : लेसंस फ्रॉम राजस्थान” के अनुसार, 7 दिसंबर 1994 को राजसमंद जिले के भीम कस्बे में हुई दूसरी जनसुनवाई में बड़ी संख्या में भ्रष्टाचार के मामलों का खुलासा हुआ। जनसुनवाई में जवाहर रोजगार योजना, अपना गांव अपना काम, तीस जिला तीस काम, इंदिरा आवास योजना में गड़बड़ी की पड़ताल की गई।
17 दिसंबर 1994 को राजसमंद जिले के विजयपुरा में हुई तीसरी और 7 जनवरी 1995 को अजमेर के जावजा में हुई चौथी जनसुनवाई में विकास कार्यों और सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार को उजागर करने का सिलसिला जारी रहा। इन शुरुआती जनसुनवाइयों का असर यह रहा कि बहुत से अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के जवाब में कार्रवाई शुरू हो गई। इन्हीं जनसुनवाइयों का नतीजा था कि अप्रैल 1995 को राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत द्वारा राज्य विधानसभा में घोषणा की गई कि जनता को पंचायती राज संस्थाओं के सभी मामलों के संबंध में सूचना का अधिकार दिया जाएगा।
एमकेएसएस द्वारा जमीनी स्तर पर किए गए जागरुकता और व्यापक स्तर पर की गई कार्रवाई के बावजूद राजस्थान में मुख्यमंत्री घोषणा को लागू करने की दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई। 6 अप्रैल 1996 को एमकेएसएस ने दबाव बनाने के लिए ब्यावर में अनिश्चितकालीन धरना शुरू कर दिया। ब्यावर जिले के चांग दरवाजे पर बड़ा धरना देकर सूचना के अधिकार की मांग की गई। हजारों लोग इस धरने में शामिल हुए और सूचना के अधिकार का आंदोलन राज्यव्यापी हो गया।
नब्बे के दशक में जब एमकेएसएस का आंदोलन जोरशोर से चल रहा था, तभी राजस्थान के बाहर के राज्यों में सूचना के अधिकार को लेकर हलचल शुरू हो गई। मई 1997 में सबसे पहले तमिलनाडु ने सूचना का अधिकार कानून बनाया। फिर इसी साल दिसंबर में गोवा में कानून बना। साल 2000 में राजस्थान, कर्नाटक और महाराष्ट्र में और 2001 में दिल्ली में सूचना का अधिकार कानून अस्तित्व में आ गया। 1996 में बने नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टु इन्फॉर्मेशन (एनसीपीआरआई) ने सूचना के अधिकार कानून का पहला मसौदा तैयार किया। आखिरकार 12 मई 2005 को संसद ने कानून पास किया, 15 जून 2005 को राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर किए और 12 अक्टूबर 2005 को कानून लागू हो गया (देखें, आरटीआई के अहम पड़ाव)।
पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त नीरज गुप्ता के अनुसार, भारत के नागरिकों के सरकारी कार्यकलापों के संबंध में सूचना पाने के अधिकार को पहली बार न्यायमूर्ति केके मैथ्यू ने स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश बनाम राज नारायण के मामले में मान्यता दी। एसपी गुप्ता बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि अभिव्यक्ति और वाक् स्वतंत्रता के अधिकार के दायरे में सूचना का अधिकार भी शामिल है। गुप्ता के अनुसार, श्री कुलवाल बनाम जयपुर नगर निगम मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संविधान के अनुच्छेद 19 के अंतर्गत प्रदत्त अभिव्यक्ति और वाक् स्वतंत्रता में स्पष्ट रूप से सूचना का अधिकार निहित है।
12 अक्टूबर को आरटीआई 20 साल पूरे कर रहा है। इस कानून पर बारीक नजर रखने वाले आरटीआई कार्यकर्ता और खुद केंद्रीय सूचना आयुक्तों का मानना है कि यह कानून अपनी धार खो चुका है। हर सरकार ने इस कानून को दंतहीन बनाने में कोई असर नहीं छोड़ी है। कानून में किया गया हालिया संशोधन इसे पूरी तरह खत्म करने की दिशा में उठाया गया कदम है।
केंद्रीय सूचना आयोग की नवीनतम वार्षिक रिपोर्ट (2023-24) के अनुसार, 2023-24 में 17.5 लाख से अधिक आरटीआई आवेदन प्राप्त हुए हैं जो 10 वर्ष पहले के आवेदनों (8.34 लाख) के मुकाबले करीब दोगुने हैं। यह भी तथ्य है कि इस वर्ष अस्वीकृत आरटीआई आवेदनों की संख्या 67,615 से अधिक रही जो अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है। आयोग के आंकड़े बताते हैं कि साल दर साल आरटीआई के आवेदन बढ़ रहे हैं जो सूचना के प्रति नागरिकों की भूख को जाहिर करते हैं लेकिन क्या इन आवेदकों को सही और वांछित सूचनाएं मिल रही हैं?
सूचना के अधिकार का उपयोग करके “वादा फरामोशी” किताब लिखने वाले संजॉय बासु मानते हैं कि अब सूचनाएं हासिल करना बहुत मुश्किल हो गया है। अधिकारियों में कानून का कोई खौफ नहीं रह गया है। किताब के सह लेखक नीरज कुमार भी मानते हैं कि भले ही आरटीआई दाखिल करने की व्यवस्थाएं आसान की गई हो लेकिन सूचनाएं सूचना आयोगों में जाकर भी नहीं मिल रही हैं। नीरज ने 2005 से 2008 के बीच सूचना के अधिकार के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए मंजूनाथ षणमुगम ट्रस्ट की ओर से स्थापित कॉल सेंटर एवं राष्ट्रीय हेल्पलाइन का संचालन किया है। वह बताते हैं कि शुरुआत में आरटीआई के प्रति जागरुकता के लिए दूरदर्शन और एफएम पर “जानने का हक” जैसे कार्यक्रम की शुरुआत हुई थी। इस कार्यक्रम के वक्त हेल्पलाइन पर सैकड़ों फोन आते थे। इस हेल्पलाइन पर आरटीआई के उपयोग के तरीके बताए जाते थे। नीरज कहते हैं कि इस तरह की पहल बाद के वर्षों में नहीं रही और सूचना के अधिकार पर काम करने वाले बहुत से गैर लाभकारी संगठन और व्यक्ति भी हताश होकर शांत बैठ गए। इसका नतीजा यह निकला कि आरटीआई एक्टिविजम में ठहराव सा आ गया।
आरटीआई का उपयोग करके पत्रकारिता करने वाले अफरोज आलम साहिल कहते हैं, “बेहद अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि पिछले 20 सालों में आरटीआई आगे बढ़ने के बजाए लगातार पीछे जा रहा है। जरूरत इस बात की थी कि इस कानून को इतना मजबूत बनाया जाता कि लोगों को सूचना मांगने की नौबत ही न आए, लेकिन हालात इसके बिल्कुल उलट हैं।” उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया कि यूपीए सरकार के दौर में भी आरटीआई की स्थिति संतोषजनक नहीं थी, फिर भी इसी कानून की बदौलत बड़े-बड़े घोटाले उजागर हुए। 2014 में सत्ता बदलने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पारदर्शिता और जवाबदेही के वादे किए, यहां तक कि अपने भाषणों में थ्री-टी (टाइमली, ट्रांसपेरेंट, ट्रबल फ्री एक्सेस टु इन्फॉर्मेशन) का फार्मूला दिया। मगर आज स्थिति यह है कि सरकार न सिर्फ उन दावों से पीछे हट चुकी है, बल्कि तरह-तरह की बाधाएं खड़ी कर इस कानून को खोखला करने में जुटी है।”
अफरोज आगे कहते हैं, “मेरे अपने तजुर्बे के मुताबिक, सबसे गंभीर चिंता यही है कि अब सूचनाएं मिल ही नहीं रही हैं। जिन सवालों के जवाब पहले आसानी से मिल जाते थे, वे आज लगभग असंभव हो गए हैं। जानबूझकर धारा 6(3) का सहारा लेकर आरटीआई आवेदन पूरे देश में इधर-उधर भेज दिए जाते हैं, फिर भी जरूरी जानकारी उपलब्ध नहीं कराई जाती। इससे भी अधिक भयावह स्थिति तब होती है जब सूचना मांगने वाले के घर सूचना लेकर पुलिस पहुंचती है। नतीजतन, एक आम नागरिक आरटीआई का इस्तेमाल करने से कतराने लगा है।” अफरोज कहते हैं कि मैंने पिछले कुछ महीनों में बतौर पत्रकार कई आरटीआई दाखिल की हैं, लेकिन जो सूचनाएं मिलीं, उनसे बिल्कुल भी संतुष्टि नहीं हुई। अक्सर जानकारी अधूरी होती है और प्रक्रिया पहले की तुलना में कहीं अधिक धीमी। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सूचना अधिकारियों के दिल से जवाबदेही का डर खत्म हो गया है। उन्हें पता है कि अगर वे सूचना न भी दें तो उनका कुछ बिगड़ेगा नहीं, क्योंकि आवेदक के पास सिर्फ एक रास्ता बचता है, अपील करके सूचना आयोग पहुंचना। लेकिन वहां भी हालत यह है कि लाखों मामले लंबित हैं, सूचना आयुक्तों की कमी है और फैसले आने में सालों लग जाते हैं।
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