जंगल

अपने नीड़ में लौटते विस्थापित बैगा

Anupam Chakravartty

खदानों के लिए अपने घर जंगल से विस्थापित खानाबदोश बैगा समुदाय के लोग फिर से अपनी छिनी जमीन वापस पाने की कोशिश में हैं। 2006 में मध्यप्रदेश के सिंगरौली जिले की दो कोयला खदानें अमलोहरी व अमलोहरी एक्सटेंशन, रिलायंस पावर लिमिटेड को पट्टे पर दिए जाने के बाद वहां के निवासी बैगा आदिवासियों को उनकी जमीनों से हटा दिया गया था। मुआवजा वितरण में गड़बड़ी और पुनर्वास वाली जगह में सुविधाओं के अभाव के चलते ये लोग धीरे-धीरे दोबारा अपने मूल स्थान
को लौट रहे हैं।

आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक खदानों के कारण सिधिखुर्ग, तिय्यरा, झांझी, सिधिकला और हर्रहवा के 3088 लोग विस्थापित हुए थे। इनमें से 419 ने रिलायंस की खदान से एक किलोमीटर दूर कृष्ण विहार पुनर्वास बस्ती को चुना, जबकि शेष लोगों ने मुआवजा लेकर जगह छोड़ दी। लेकिन पिछले साल अगस्त से कृष्ण विहार बस्ती में रह रहे करीब सात लोग जंगल में वापस लौट आए हैं।

शुरुआत में बैगाओं को रिलायंस को जमीन बेचने के लिए मनाने वाले महेंद्र सिंह कहते हैं कि मुआवजा देने में शुरुआत से ही गड़बड़ियां रहीं और जो दिया गया वह भी पर्याप्त नहीं था। विस्थापित बैगा राम अवतार का आरोप है कि सामान्य श्रेणी के लोगों को तो 80 लाख रुपये प्रति एकड़ (एक एकड़ यानी 0.4 हेक्टेयर) के हिसाब से मुआवजा दिया गया, जबकि बैगा लोगों को केवल 10 लाख रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से ही मुआवजा दिया गया। यही नहीं मुआवजा भी केवल उन्हीं बैगा लोगों को दिया गया जिनके पास जमीन के पट्टे या मालिकाना हक के कागजात थे।

रिलायंस के एक अधिकारी ने डाउन टू अर्थ को बताया कि मुआवजा तब की जमीन की कीमतों पर आधारित था। रिलायंस का कहना है कि उसने परियोजना से प्रभावित 3088 लोगों पर 16.67 करोड़ रुपये खर्च किए। रामअवतार का आरोप है कि कंपनी ने शराब, कार और महंगे होटलों आदि में घुमाकर हमारे कुछ लोगों को रिश्वत दी। जिन लोगों ने विरोध किया, उनसे पुलिस के जरिए डरा-धमका कर दस्तावेजों पर दस्तखत करा लिए गए। राम अवतार खुद भी रिलायंस से कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका कहना है –“रिलायंस ने उनके एक हेक्टेयर के जमीन के टुकड़े के एक हिस्से पर भी कब्जा कर लिया है। मुझे पता है कि अपनी जमीन छोड़ने के लिए किस तरह भरमाया गया। मैं केवल बैगा परिवारों को उनके अधिकारों के लिए लड़ने में मदद कर रहा हूं।”

झूठे वादे

वादों के तोड़े जाने से लोगों में गुस्सा है। नंदलाल बैगा कहते हैं-“हमारी बसासत तिय्यरा का हिस्सा थी, जिसके बीच में एक मिडिल स्कूल होता था। लेकिन अब वह बंद है। जब रिलायंस यहां आया, हमसे पुनर्वास बस्तियों में रोजगार, स्वास्थ्य सुविधा व शिक्षा देने का वादा किया गया। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।” नंदलाल को जमीन के एक टुकड़े के साथ कृष्ण विहार बस्ती में एक घर भी आवंटित हुआ था। वह दो साल से वहां रह भी रहे थे, लेकिन पिछले साल फरवरी में वह फिर खदान के पास रहने के लिए लौट आए हैं। अपने घर के पास धान के खेतों की आेर इशारा करते हुए वह कहते हैं—“मैं मूलत: एक किसान हूं जो वनोपज पर निर्भर है।” नंदलाल ने मुआवजे के पैसे से एक मोटरसाइकिल खरीद ली। खेतों की सिंचाई के लिए एक डीजल पंप खरीद लिया। उनके पड़ोसी संतराम बैगा को बस्ती में घर नहीं दिया गया, क्योंकि उनके पास जमीन का पट्टा नहीं था। उन्हें दिहाड़ी मजदूर बनना पड़ा। वह भी पिछले साल अपनी पुरानी जगह लौट आए हैं।

तिय्यरा में 1.2 हेक्टेयर जमीन के मालिक राम अवतार भी कृष्ण विहार बस्ती में रहते हैं। उन्हें वहां रहना एक बंधन सा लगता है, क्योंकि वह कभी छोटे सीमेंट के घरों में नहीं रहे। कॉलोनी में महज 485 वर्गमीटर के दो कमरों वाले मकान बनाए गए हैं। राम अवतार कहते हैं–“हर रोज लोग परचून की दुकान में जमा होते हैं और दोबारा जंगल में लौटने की बात करते हैं। यहां तो बिजली का भी पैसा देना पड़ता है। जब हम जंगल में थे तो हमारी जरूरतें कम थीं और उनमें से अधिकांश जंगल पूरी कर देता था।”

गिरवी रख दी गईं खदानें

बैगाओं के आशंकित होने की एक और वजह है। पिछले साल अगस्त में रिलायंस ने और कर्ज लेने के लिए खदानों को एसबीआई कैपिटल मार्केट्स और अमेरिका के एक्सपोर्ट-इंपोर्ट बैंक के पास गिरवी रख दिया। यह पहली बार हुआ कि सरकार ने किसी निजी कंपनी को खदानें गिरवी रखने की इजाजत दे दी। इसका असर क्या होगा यह तो अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन राम अवतार सिंह का मानना है कि इसका असर कंपनी के कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व (सीएसआर) पर पड़ेगा। उनका कहना है कि 2007 में केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने कंपनी पर एक शर्त लगाई थी कि वह खदान की उम्र पूरी होने तक सीएसआर गतिविधियों पर कम से कम ढाई करोड़ रुपये सालाना खर्च करेगी। यह रकम भी समय व वास्तविक स्थिति के हिसाब से बढ़ाई जानी चाहिए। शर्त यह भी थी कि परियोजना लगाने वालों को यूएनडीपी की मानव विकास रिपोर्ट के संकेतकों के आधार पर खदान शुरू होने से पहले इलाके का सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण करना होगा और हर तीन साल में फिर से विस्थापित लोगों की हालत का जायजा लेना होगा। लेकिन इनमें से कोई भी शर्त पूरी नहीं की गई। कोयला मंत्रालय के अधिकारी भी कहते हैं कि उन्हें रिलायंस द्वारा अधिगृहीत आदिवासियों की जमीनों की स्थिति के बारे में साफ जानकारी नहीं है।

खदानें क्यों रखीं गिरवी

डाउन टू अर्थ को मिले रिलायंस के दस्तावेज बताते हैं कि कंपनी ने अपने घाटे की पूर्ति के लिए जमीनें गिरवी रख दी हैं। 2010 में परियोजना की लागत 4.5 मिलियन डॉलर यानी करीब 301.57 करोड़ रुपये थी। इसमें से 70 फीसद धनराशि एसबीआई और चीनी कर्जदाताओं के एक्सपोर्ट इंपोर्ट बैंक ऑफ अमेरिका से जुटाई गई थी। 30 फीसद इक्विटी थी। 2010 में उच्च कार्बन उत्सर्जन से चिंतित एक कर्जदाता ने परियोजना से अपने हाथ खींच लिए। खदान उपकरणों के लिए कर्ज दे रहे एक्सपोर्ट इंपोर्ट बैंक ने भी वित्तीय मदद रोक दी। नवंबर 2013 आते-आते डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत गिर जाने से आयातित सामान की कीमतों में करीब 35 फीसदी का इजाफा हो गया और परियोजना की लागत करीब 32 फीसद यानि 1.45 बिलियन डॉलर (लगभग 97.17 करोड़ रुपये) बढ़ गई। रामवतार सिंह का कहना है, “कंपनी के घाटों और उसके कामों से हमारा क्या सरोकार। जब से खदानें गिरवी रख दी गई हैं, जिला प्रशासन तक इस बात की परवाह नहीं करता कि बस्ती में पानी जैसी मूलभूत सुविधा है या नहीं। अब एक बात तो तय है कि हम कंक्रीट के जंगल में दोबारा नहीं लौटेंगे।”