सामूहिक जीवन की मिसाल हैं आदिवासी। फोटो: अंकुर तिवारी 
जंगल

आज तक जमीन पर नहीं उतरा तीन दशक पुराना पेसा कानून

24 दिसंबर 1996 को अस्तित्व में आया पेसा कानून आदिवासियों के हक हकूक के लिए बना था, जिसे पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में लागू किया जाना था

Anubhav Shori

पेसा कानून के लागू हुए देश में 29 वर्ष पूर्ण होने को हैं। देश के पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्रों में लागू पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996, जिसे सामान्यतः पेसा कानून कहा जाता है, 24 दिसंबर 1996 को अस्तित्व में आया। उस दौर में इसे आदिवासी समाज के लिए एक ऐतिहासिक उपलब्धि माना गया। लंबे संघर्षों और आंदोलनों के बाद आदिवासी समुदाय को यह विश्वास हुआ कि अब उनके स्वशासन, ग्रामसभा और पारंपरिक संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता मिलेगी।

पेसा को आदिवासी लोकतंत्र की बुनियाद के रूप में देखा गया एक ऐसा कानून जो शासन की दिशा ऊपर से नहीं, बल्कि नीचे से ऊपर तय करने की कल्पना करता है। किंतु आज, ढाई दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद, यह प्रश्न और भी गंभीर हो गया है कि क्या पेसा वास्तव में जमीन पर उतर सका है। क्या आदिवासी स्वशासन को वह सम्मान और अधिकार मिल पाए हैं जिनका वादा इस कानून में किया गया था, या फिर ग्रामसभाओं को केवल औपचारिक संस्थाओं में बदल दिया गया है?

विकास की दिशा कौन तय कर रहा है?

पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में चल रही विकास प्रक्रिया पर नज़र डालने से यह चिंता और गहरी होती है। सवाल यह नहीं है कि विकास होना चाहिए या नहीं, बल्कि यह है कि विकास की दिशा कौन तय कर रहा है। क्या गांवों के भविष्य का निर्णय ग्रामसभाओं द्वारा लिया जा रहा है, या फिर बाहर से थोपे गए विकास मॉडल ही आदिवासी इलाकों की नियति निर्धारित कर रहे हैं?

परंपरागत ज्ञान, सामुदायिक समझ और स्थानीय जीवन-पद्धतियां आज भी शासन-प्रशासन के निर्णयों में हाशिये पर हैं। सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या ग्रामसभाएं अपने जंगल, जमीन और जल जैसे प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करने की स्थिति में हैं जबकि यही पेसा कानून का मूल उद्देश्य था।

2022 का अध्ययन और पेसा की सच्चाई

पेसा के क्रियान्वयन की वास्तविक स्थिति को समझने के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं, गैर-सरकारी संगठनों और जन संगठनों ने वर्ष 2022 में एक संयुक्त अध्ययन किया। इस अध्ययन के निष्कर्ष बेहद चिंताजनक रहे। रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया कि केंद्र और राज्य सरकारों ने पेसा के प्रभावी क्रियान्वयन को कभी भी गंभीरता से प्राथमिकता नहीं दी।

विडंबना यह है कि कई राज्यों ने पेसा के नाम पर जो नियम बनाए हैं, वे स्वयं केंद्रीय पेसा कानून की मूल भावना से मेल नहीं खाते। परिणामस्वरूप, पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में आदिवासी स्वशासन लगातार कमजोर हुआ है और अधिकारों का क्षरण तेज हुआ है। जो कानून आदिवासी समाज के लिए एक ऐतिहासिक अवसर था, वह आज अधिकांशतः कागजों तक सीमित दिखाई देता है।

गांव गणराज्य और आदिवासी लोकतंत्र की विरासत

यह कहा जाता है कि भारत की आत्मा उसके गाँवों में बसती है। गाँव केवल प्रशासनिक इकाइयां नहीं रहे, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन के जीवंत केंद्र रहे हैं। गांव गणराज्य, अर्थात प्रत्यक्ष लोकतंत्र, भारत की सबसे पुरानी परंपराओं में से एक है, जिसे आदिवासी समाज ने पीढ़ियों तक न केवल जिया बल्कि संरक्षित भी किया।

सामूहिक निर्णय, सहमति आधारित शासन और प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व आदिवासी जीवन-दर्शन के मूल तत्व रहे हैं। मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान सभा में इसी ऐतिहासिक सत्य को रेखांकित करते हुए कहा था कि आदिवासियों को लोकतंत्र सिखाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उनसे लोकतांत्रिक तरीके सीखने की ज़रूरत है। महात्मा गांधी की स्वतंत्र भारत की कल्पना भी गांव गणराज्यों के महासंघ पर आधारित थी।

संघर्ष, संविधान और स्वशासन का सवाल

आदिवासी समाज ने औपनिवेशिक काल से लेकर आज तक अपने स्वशासन, संसाधनों और जीवन-पद्धति की रक्षा के लिए निरंतर संघर्ष किया है। बिरसा मुंडा, गुंडाधुर, तिलका मांझी, सिद्धू–कान्हू और टंट्या मामा जैसे संघर्षशील नेताओं का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि आदिवासी समाज ने हमेशा अपने निर्णय स्वयं लेने का अधिकार माँगा है।

भारतीय संविधान ने इस ऐतिहासिक सच्चाई को स्वीकार किया। अनुच्छेद 40 के तहत ग्राम स्वशासन को मान्यता दी गई और पांचवीं अनुसूची के माध्यम से यह स्वीकार किया गया कि आदिवासी क्षेत्रों में सामान्य कानूनों को ज्यों का त्यों लागू करना उपयुक्त नहीं है।

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने केंद्रीकृत सत्ता और गांव आधारित स्वशासन के बीच मौजूद अंतर्विरोध की ओर पहले ही संकेत किया था। इसी संदर्भ में सामूहिक संप्रभुता की अवधारणा उभरती है, जहां राज्य के साथ-साथ समुदाय की सामूहिक संप्रभुता को भी मान्यता दी जाती है।

नेहरू का पंचशील और भूरिया समिति 1994 की दृष्टि

पंडित जवाहरलाल नेहरू की आदिवासी पंचशील नीति का मूल भाव यह था कि आदिवासी समाज को उसकी संस्कृति और पहचान के साथ आगे बढ़ने दिया जाए। विकास ऐसा न हो जो आदिवासियों को उनकी भूमि और जंगल से काट दे।

आदिवासी क्षेत्रों में स्वशासन को सशक्त बनाने के उद्देश्य से गठित भूरिया समिति ने स्पष्ट रूप से कहा कि ग्रामसभा ही आदिवासी समाज की मूल और सर्वोच्च संस्था है। समिति ने इस बात पर बल दिया कि परंपरागत ग्राम व्यवस्था, सामाजिक संरचना और रीति–रिवाजों को कानूनी मान्यता दी जानी चाहिए।

भूरिया समिति की सिफारिशों के अनुसार, अनुसूचित क्षेत्रों में स्वशासन (प्रत्यक्ष लोकतंत्र) की व्यवस्था होनी चाहिए, जिसमें ग्रामसभा और मोहल्ला सभा के माध्यम से जल, जंगल, ज़मीन और खनिज जैसे संसाधनों पर वास्तविक नियंत्रण ग्रामसभा के पास हो। साथ ही, हर गांव में ग्राम सरकार और हर जिले में जिला स्वशासी सरकार का गठन किया जाना चाहिए। इन्हीं सिफारिशों के आधार पर बाद में पंचायती राज (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, अर्थात् पेसा कानून, 1996, अस्तित्व में आया।

कानून और जमीनी हकीकत के बीच गहराता अंतर

पेसा कानून ने ग्रामसभा को सर्वोच्च सत्ता के रूप में मान्यता दी थी, लेकिन जमीनी हकीकत इससे अलग रही। अधिकांश राज्यों ने पेसा को केवल अपने पंचायत कानूनों में औपचारिक रूप से समाहित कर लिया, बिना उसकी मूल भावना के अनुरूप मजबूत और स्वतंत्र नियम बनाए।

नतीजा यह हुआ कि ग्रामसभाएं कमजोर होती गईं, संसाधनों पर बाहरी नियंत्रण बढ़ता गया और आदिवासी समाज अपनी भूमि, संस्कृति और जीवनाधार से दूर होता चला गया। आज पेसा कानून आदिवासी समाज के लिए एक ऐसे अधूरे वादे का प्रतीक बन चुका है, जिसका पूरा होना अब भी बाकी है।

(लेखक छत्तीसगढ़ वनाधिकार मंच के संयोजक हैं )