मानर गांव का करीब 12 हेक्टेयर का जंगल वन पंचायत और महिलाओं की सामूहिक भागीदारी से बेहद घना और जैव विविधता से परिपूर्ण हो गया है फोटो: मिधुन विजयन/ सीएसई
जंगल

वन अम्मा की जिद से बंजर जंगल हुआ जिंदा

चंपावत में महिलाओं की सामूहिक भागीदारी ने करीब 12 हेक्टेयर बंजर जंगल को जीवंत कर दिया है। इसका संपूर्ण प्रबंधन उनके द्वारा संचालित वन पंचायत के हाथों में है। यह जंगल चारा, लकड़ी व पानी जैसी सामुदायिक जरूरतों को पूरा करने में बड़ी भूमिका निभा रहा है

Bhagirath

भागीरथी देवी की दिनचर्या 20 साल से नहीं बदली है। सुबह उठते ही वह 25 साल की अनथक मेहनत से तैयार जंगल की चौकीदारी करने निकल पड़ती हैं और दोपहर 12 बजे के आसपास जंगल से सटे अपने घर लौटती हैं। जंगल का दूसरा चक्कर वह दोपहर दो बजे के आसपास लगाना शुरू करती हैं। कभी-कभी रात में भी अकेले जंगल चली जाती हैं और अगर कोई उसे नुकसान पहुंचाता मिलता है तो उसे खदेड़ देती हैं।

जंगल में अवैध कटान की सूचना पर उन्होंने कई बार रात के अंधेरे में और सुबह पौ पटने से पहले छापेमारी कर अवैध कटान करने वालों को पकड़कर जुर्माना भी लगाया है। घर में रहते हुए भी उनकी पैनी नजर जंगल की ओर ही लगी रहती है। जब कभी किसी कारणवश उन्हें गांव से बाहर जाना पड़ता है, तब वह जंगल के रखरखाव की जिम्मेदारी अपने बेटे या बहू को सौंपकर जाती हैं। अपने जंगल के उनके प्रति समर्पण को देखते हुए लोग उन्हें “वन अम्मा” के नाम से पुकारने लगे हैं।

भागीरथी देवी उत्तराखंड के चंपावत जिले के मानर गांव में रहती हैं। समुद्र तल से करीब 6,000 फीट की ऊंचाई पर बसा यह गांव जिला मुख्यालय से करीब 25 किलोमीटर और नजदीकी शहर लोहाघाट से 16 किलोमीटर दूर है। लगभग 100 परिवारों और 700 की आबादी वाले इस गांव का 11.6 हेक्टेयर जंगल 2000 तक पूरी तरह बंजर हो गया था। भागीरथी देवी ने ग्रामीण महिलाओं के सहयोग से इस जंगल को फिर से खड़ा कर दिया है।

मानर गांव में रहने वाले 40 वर्षीय भीम सिंह बिष्ट डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि साल 2000 में हम किरोशावस्था में थे। उस वक्त हमने कभी जंगल को मूल स्वरूप में नहीं देखा था। पेड़ों की कटाई और अत्यधिक चराई ने इसे पूरी तरह उजाड़ दिया था। जंगल खत्म होते ही पानी, चारा और लकड़ी जैसे बुनियादी संसाधन नष्ट भी हो गए और ग्रामीणों के सामने इनका संकट खड़ा हो गया।

इसका सबसे बुरा असर महिलाओं पर पड़ा क्योंकि उन्हीं के कंधों पर चारा, पानी, पत्तों और लकड़ी की जिम्मेदारी होती है। मानर निवासी मंजू मनराल कहती हैं कि अधिकांश समय चारा और लकड़ी लाने में बीतने से महिलाएं खेतीबाड़ी और बच्चों की देखभाल पर उतना ध्यान नहीं दे पाती थीं।

भागीरथी देवी को वे मुश्किल दिन अब भी याद हैं, जब चारा, सूखी पत्ते और सूखी लकड़ी लाने के लिए उन्हें अपने घर से 7-8 किलोमीटर दूर सिद्धमंदिर के जंगल से जाना पड़ता था। इस काम में उनके 5-6 घंटे बर्बाद होते थे। इस विकट स्थिति को देखते हुए ग्रामीणों को जंगल को फिर से संरक्षित करने की जरूरत महसूस हुई। भागीरथी देवी ने महिलाओं को संगठित कर उन्हें इसके लिए राजी किया। इस सामूहिक उद्देश्य के लिए साल 2000 में वन पंचायत का गठन किया गया।

ब्रिटिश काल की वन पंचायत

उत्तराखंड में वन पंचायत की अवधारणा अपने आप में अनूठी है और इसकी उत्पत्ति अंग्रेजों के जमाने में हुई थी। लॉ, एनवायरमेंट एंड डेवलपमेंट जर्नल में प्रकाशित संयुक्त अध्ययन में बीएस नेगी, डीएस चौहान और एमपी तोड़रिया इसकी उत्पत्ति पर रोशनी डालते हुए लिखते हैं कि स्थानीय लोगों के वन उत्पादों के उपयोग के अधिकारों पर अंकुश लगने के कारण कुमाऊं और गढ़वाल की पहाड़ियों में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन 1921 में चरम पर पहुंच गए।

स्थानीय लोगों द्वारा सरकार द्वारा नियंत्रित जंगलों को जलाने के लिए व्यापक अभियान चलाया गया, जिससे पहाड़ों में प्रशासन लगभग ठप्प हो गया। इस स्थिति ने ब्रिटिश सरकार को स्थानीय आबादी की मांगों पर विचार करने के लिए कुमाऊं फॉरेस्ट ग्रीवांस कमिटी गठित करने को बाध्य किया। समिति की सिफारिशों के आधार पर डिस्ट्रिक्ट शेड्यूल्ड एक्ट 1874 के तहत 1931 में वन पंचायत के गठन का प्रावधान किया गया।

वन पंचायत ने ग्रामीणों को पहाड़ी जंगलों के लिए स्वायत्त प्रबंधन समितियां बनाने का अधिकार दिया। निर्वाह के उद्देश्य से वनों को नियंत्रित करने और प्रबंधित करने की शक्तियों का यह हस्तांतरण भारत में राज्य और स्थानीय समुदायों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के सह-प्रबंधन का सबसे पहला उदाहरण है। मौजूदा समय में वन पंचायत भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 28 (2) के तहत शामिल है।

इनका उद्देश्य वनों की रक्षा और विकास करने के साथ ही उनके उत्पादों को हितधारकों के बीच समान रूप से वितरित करना है। वन पंचायत के नियमों में 1976, 2001 और 2005 में तीन बार बड़े संशोधन हुए हैं। अध्ययन के मुताबिक, उत्तराखंड में लगभग 12,064 वन पंचायतें स्थापित की गई हैं। ये पंचायतें उत्तराखंड राज्य के 11 पहाड़ी जिलों में लगभग 5,23,289 हेक्टेयर वन क्षेत्र का प्रबंधन करती हैं, जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का लगभग 14 प्रतिशत है।

भीम सिंह कहते हैं कि 2000 में हमें पता चला कि वन पंचायत का गठन कर जंगल को बचाया जा सकता है। महिलाओं ने आगे बढ़कर इसका गठन तो कर लिया लेकिन कोई सरंपच बनने को तैयार नहीं था क्योंकि कोई जंगल की व्यक्तिगत जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहता था। इस काम की जिम्मेदारी उठाने के लिए भागीरथी देवी आगे आईं। वह पढ़ी-लिखी नहीं थी, लेकिन जंगल को फिर से बनाने के लिए प्रतिबद्ध थीं।

भागीरथी देवी उस समय निर्विरोध वन पंचायत की सरपंच चुन ली गईं। वह 2024 तक सर्वसम्मति से इस पद पर बनीं रहीं। उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया, “जंगल खत्म होने पर हमें एहसास हो गया था कि इसके बिना महिलाओं और हमारी आने वाली पीढ़ियों का गुजारा मुश्किल है। उनके बारे में सोचकर ही हमने जंगल को पुनर्जीवित करने का निर्णय लिया।”

मानर गांव को पुनर्जीवित करने में 75 साल की भागीरथी देवी की सबसे अहम भूमिका रही। अब भी वह जंगल की रखवाली करती हैं

संगठित प्रयास

गांव की महिलाओं ने शुरुआती दो-तीन वर्षों तक अपने स्तर और संसाधनों से जंगल की सफाई और बाड़बंदी की। इसी दौरान महिलाएं सिल्वी पाश्चर के विकास के लिए काम कर रहे गैर लाभकारी संगठन बाइफ के संपर्क में आईं। सिल्वी पाश्चर व्यवस्था में वन और चारागाह को एकीकृत कर कई लाभ लिए जाते हैं। बाइफ ने महिलाओं की जंगल को पुनजीर्वित करने की रुचि को देखते हुए मदद का हाथ बढ़ाया और मानर गांव को अपनी परियोजना में शामिल कर लिया। इस परियोजना के तहत 2003-04 से व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढंग से जंगल में गतिविधियां शुरू हुईं।

बाइफ से अपर मुख्य कार्यक्रम अधिशासी डॉ़ दिनेश प्रसाद रतूड़ी डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि मानर के नजदीक खेतीखान में हमारा 1994 से कैटल ब्रीडिंग सेंटर के चल रहा है। इसी के जरिए हमें मानर की समस्या पता चली। उस वक्त चंपावत में हमने सिल्वी पाश्चर विकास के लिए मानर समेत तीन गांव चिन्ह्ति किए थे। वह बताते हैं कि 2003-04 में जब हम मानर गांव में पहुंचे, तब वन पंचायत गठित हो गई थी लेकिन वह संगठित नहीं थी। गांव के बहुत से लोगों को उस समय लगता था कि जंगल ठीक नहीं हो सकता। हमने सबसे पहले उनके साथ बैठकें कर करीब 90 परिवारों को संगठित किया और उन्हें एक मंच पर लाए। इससे लोगों के आपसी मतभेद सुलझ गए। वह बताते हैं कि डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (डीएसटी) ने शुरुआत में हमें सहयोग किया। 2013 तक सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट और 2016 से 2021 तक नाबार्ड के सहयोग से जंगल में अलग-अलग गतिविधियां चलाई गईं। इस सहयोग और महिलाओं की लगन ने परियोजना को लंबे समय चलाने में मदद की।

बाइफ के दखल के बाद सबसे पहले सिल्वी पाश्चर प्रबंधन समिति का गठन हुआ। मानर में इस समिति को श्री सिद्ध नरसिंह बाबा चारा समिति नाम दिया गया। ग्रामीणों विशेषकर महिलाओं को समिति के सदस्य के रूप में पंजीकृत किया गया और उनकी सहमति से पदाधिकारियों (सरपंच, सचिव और कोषाध्यक्ष) का चुनाव किया गया। बाद में सभी सदस्यों ने मिलकर नियम और जंगल के लिए योजना बनाई। समिति ने निर्णय लिया कि वन पंचायत को सामुदायिक चारागाह के रूप में विकसित करने के लिए श्रम सहित सभी भौतिक कार्य गांव समिति के सदस्यों द्वारा किए जाएंगे और इसके बदले उन्हें एक निश्चित राशि का भुगतान किया जाएगा। महिलाओं को शुरुआती प्रशिक्षण के बाद सबसे पहले जंगल की पत्थरों और रामबस व कुंजा जैसे कंटीले पौधों की मदद से बाड़बंदी की गई। जंगल से झाड़ियों और लैंटाना जैसी आक्रामक प्रजातियों की सफाई के बाद घास और चारा देने वाले पौधे जैसे बांज, फल्याट, अंगू, उतिश, फिया, मोहल, काफल आदि के साथ घास रोपण किया। इसके साथ-साथ महिलाओं द्वारा सामूहिक रूप से नमी और पानी के रिचार्ज के लिए गड्ढे खोदे गए। वन विभाग से ओक, खारसू, पागर, काफल, शहतूत, खड़ीक आदि पौधे लेकर रोपे गए।

इस काम में शुरुआत से जुड़ीं समिति की पहली अध्यक्ष रहीं मंजू मनराल कहती हैं, “हम जंगल से दो किलोमीटर दूर घर से पानी लेकर पौधों को सींचती थीं।” उन्होंने आगे बताया कि शुरुआत में 120 रुपए दिहाड़ी मिलती थी, जिसमें से 10 प्रतिशत जंगल के रखरखाव के लिए समिति के खाते में जमा होते थे। मानर के जंगल में काम के कुल 1,526 मानव दिवस सृजित किए गए और 8,992 रुपए समिति को सहयोग के रूप में प्राप्त हुए। महिलाओं ने पैसों से अधिक जंगल के महत्व के बारे में सोचकर काम किया। इसी वजह से बिना भुगतान वाले दिन भी महिलाओं से स्वेच्छा से श्रमदान किया। समिति ने वन पंचायत की सरपंच भागीरथी देवी को चौकीदारी का दायित्व सौंपा क्योंकि इसमें उनकी विशेष दिलचस्पी थी और उनका घर जंगल से चंद कदमों की दूरी पर था। उनके मासिक वेतन के लिए हर घर ने प्रति माह 20 रुपए का योगदान दिया। शुरुआत दो वर्षों तक जंगल में जानवरों की चराई पूर्णत: प्रतिबंधित थी क्योंकि पौधों व घास को पनपने के लिए वक्त चाहिए था। मंजू मनराल बताती हैं कि दो साल में घास और पांच से छह साल में पेड़ बड़े हो गए। जंगल का संपूर्ण प्रबंधन शुरुआत से महिलाओं द्वारा संचालित वन पंचायत के हाथों में रहा। इसकी मौजूदा सरपंच भागीरथी देवी की बहू सुनीता हैं जो इस वक्त जंगल के माइक्रो प्लान पर काम कर रही हैं।

मानर के जंगल को चारा, लकड़ी और पत्तों के लिए कब खोलना है, इसका निर्णय वन पंचायत समय-समय पर करती है। उदाहरण के लिए 24 दिसंबर 2024 को वन पंचायत की बैठक में 24 दिसंबर से 30 दिसंबर 2024 के बीच एक सप्ताह के लिए जंगल को सूखी और कच्ची लकड़ी के लिए खोलने का निर्णय लिया गया। भीम सिंह बताते हैं कि आमतौर पर मार्च में जंगल को सूखी पत्तियों के लिए खोला जाता है ताकि जंगल में आग लगने के सीजन से पहले सूखी पत्तियां साफ हो जाएं। इसी तरह होली पर बांझ के पत्तों को तोड़ने की इजाजत दी जाती है। अप्रैल-मई में खरस के पेड़ से पत्ते तोड़ने की अनुमति मिलती है। जंगल से हर बार घास, लकड़ी, पत्तों आदि को लेने के लिए हर परिवार को 10 रुपए समिति को देने होते हैं, ताकि आवश्यकता पड़ने पर जंगल के रखरखाव पर उसे खर्च किया जा सके। मौजूदा समय में इस समिति के खाते में करीब 60 हजार रुपए जमा है। समिति से जुड़ी महिलाओं का कहना है कि समय से सूखी पत्तियों को हटाने और निगमित निगरानी के कारण आज तक वन पंचायत के जंगल में आग लगने की घटना नहीं हुई है।

लाभ ही लाभ

जंगल के पुनर्जीवन से केवल चारा, सूखी लकड़ी, पत्तों की उपलब्धता और महिलाओं का समय ही नहीं बचा है बल्कि पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करने वाली अनेक जलधाराएं भी फूट पड़ी हैं। जंगल के गदेरों से जलजीवन मिशन के तहत पानी की आपूर्ति हो रही है। वन संरक्षण के प्रयासों से 2017 से 2021 के बीच मानर के तीन झरनों- सीम, सिट्रानी खोला और गुंगखानी में पानी बहाव औसतन 2.8 लीटर प्रति मिनट से बढ़कर 4 लीटर प्रति मिनट हो गया है, जिससे डिंगवाल गांव, खेतीखान और जनकांडे के निचले इलाकों में रहने वाले लगभग 130 घरों की जल सुरक्षा में वृद्धि हुई है। रतूड़ी कहते हैं कि ये जलधाराएं मानर के साथ-साथ निचले इलाके के करीब 8-10 गांवों में पानी की जरूरतें पूरी कर रही हैं। 2021 में बाइफ और इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) ने अपने एक सर्वेक्षण में निचले इलाकों के छह गांवों से इस पारिस्थितिक तंत्र सेवा (ईकोसिस्टम सर्विसेस) के बदले मानर वन पंचायत को भुगदान की इच्छा पूछी तो लोगों ने पैसे देने से तो इनकार कर दिया लेकिन जंगल में श्रमदान के रूप में योगदान की बात जरूर कही। रतूड़ी के अनुसार, ईकोसिस्टम सर्विसेस के लिए अभी भुगतान का प्रावधान नहीं है। स्थानीय और राज्य सरकारों को प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और प्रबंधन के लिए इस दिशा में काम करना चाहिए।

2022 में आईसीआईएमओडी, बाइफ और सेंटर फॉर इकोलॉजी डेवलपमेंट एंड रिसर्च (सीईडीएआर) द्वारा संयुक्त रूप से किए गए फील्ड आधारित अध्ययन “बायोडायवर्सिटी एंड कार्बन असेसमेंट ऑफ मानर वन पंचायत इन चंपावत डिस्ट्रिक्ट ऑफ उत्तराखंड” में पता चला कि वन पंचायत का जंगल उससे बाहर के जंगल के मुकाबले अधिक स्वस्थ है। उदाहरण के लिए वन पंचायत के जंगल में 47 पौधों की प्रजातियां (21 परिवार) मिलीं जबकि इसके बाहर के दूसरे वन में कुल 25 प्रजातियां (12 परिवार) ही थीं। संरक्षित वन पंचायत के जंगल में पड़ों के घनत्व की स्थिति भी बेहतर थी। अध्ययन के अनुसार, वन पंचायत के जंगल में कुल बायोमास 347.73 टन प्रति हेक्टेयर पाया गया। इसका 86.9 प्रतिशत जमीन से ऊपर जबकि शेष 13.1 प्रतिशत जमीन के अंदर था। वहीं वन पंचायत से बाहरी क्षेत्र में कुल बायोमास 69.50 टन प्रति हेक्टेयर आंका गया। कार्बन स्टॉक के मामले में भी वन पंचायत का जंगल बेहतर स्थिति में था। इसमें कार्बन स्टॉक 173.87 टन प्रति हेक्टेयर था जो उससे बाहर के क्षेत्र में 34.75 टन प्रति हेक्टेयर पर सीमित था (देखें, स्वास्थ्य का प्रतीक)। भागीरथी देवी इसका श्रेय सही दिशा में किए गए सामूहिक प्रयासों को देती हैं। उनका कहना है “अगर कोई हमारे जंगल की तरफ बुरी नीयत से देखेगा तो हम उसे नहीं छोड़ेंगे।”

(यह स्टोरी प्रॉमिस ऑफ कॉमन्स मीडिया फेलोशिप 2024 के तहत प्रकाशित की गई है)