फाइल फोटो: विकास चौधरी 
जंगल

हिमाचल प्रदेश में वन व सरकारी भूमि पर अवैध कब्जों का समाधान

न्यायालय में यह दलील पेश की जानी चाहिए कि वन अधिकार कानून के तहत अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया अभी चल रही है, इसलिए जब तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं होती तब तक वन अधिकार कानून के मुताबिक बेदखली नहीं की जा सकती है

Guman Singh

पिछले कुछ वर्षों से अवैध कब्जों पर हिमाचल उच्च न्यायालय में केस चल रहा है। इस पर कई बार उच्च न्यायालय बेदखली के आदेश दे चुका है। जनवरी 2025 को फिर से ऐसे आदेश हिमाचल उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए।

ये आदेश एचपी पब्लिक प्रेमिसेस एंड लैंड (इविक्शन एंड रेंड रिकवरी)अधिनियम, 1971 और भू-राजस्व अधिनियम 1954 की धारा 163 के प्रावधानों के तहत दिए जा रहे हैं। कोर्ट के आदेश वन अधिकार कानून के मुताबिक न्यायसंगत नहीं हैं क्योंकि वन अधिकार कानून विशेष केंद्रीय कानून है जो प्रादेशिक व अन्य वन कानूनों को प्रभावी रूप से नजरअंदाज करता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने भी 18 अप्रैल 2013 को एक याचिका पर आदेश दिया है कि जब तक वन अधिकारों के दावों के सत्यापन और मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं होती तब तक वन भूमि से बेदखली नहीं की जा सकती।

ऐसे में राज्य के भू-राजस्व कानून 1954 की धारा 163 व एचपी पब्लिक प्रेमिसेस एंड लैंड (इविक्शन एंड रेंड रिकवरी)अधिनियम, 1971 के तहत वन निवासियों की बेदखली और नाजायज कब्जे का मुकदमा तब तक नहीं चलाया जा सकता था, जब तक वन अधिकारों के दावों की मान्यता व सत्यापन की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती।

वन अधिकार कानून की धारा-3 हिमाचल प्रदेश के आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासियों को 13 दिसंबर 2005 से पहले अपनी वास्तविक जरूरत जैसे निवास या आजीविका के लिए खेती करने का वन/सरकारी भूमि पर अधिकार प्रदान करती है।

प्रदेश के किसान परिवार या तो आदिवासी (एसटी) हैं और गैर आदिवासी क्षेत्रों के सभी परंपरागत किसान परिवार अन्य परंपरागत वन निवासी की श्रेणी में शामिल हैं। ऐसे में हिमाचल के आदिवासी व गैर आदिवासी क्षेत्रों में वन अधिकार कानून अमल में है।

वास्तव में वर्तमान की कांग्रेस व विगत भाजपा सरकार ने वन अधिकार कानून को लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। प्रदेश की अफसरशाही इस कानून को लागू करने में सब से बड़ी अड़चन है।

वन भूमि पर नाजायज कब्जे की बहाली राजस्व कानून के तहत नहीं हो सकती। केवल वन अधिकार कानून के तहत 13 दिसम्बर 2005 से पहले के खेती व आवासीय घरों के लिए हुए दखल/कब्जे की मान्यता हो सकती है। क्योंकि वन अधिकार कानून, वन संरक्षण कानून-1980 के प्रावधानों को वन अधिकारों की मान्यता के लिए रोकता है।

हिमाचल का कुल क्षेत्रफल 55,673 वर्ग किलोमीटर है जिसका 67 प्रतिशत भू-भाग वन भूमि है। जबकि प्रदेश की 13,90,704 हेक्टेयर वन भूमि पर परंपरागत रूप से स्थानीय लोगों का दखल/बर्तनदारी रही है, जिसका वन व राजस्व दस्तावेजों व बंदोबस्तों में भी बर्तनदारी अधिकार के रूप में उल्लेख किया गया है।

ऐसे में प्रदेश के एक तिहाई भू-भाग पर वन अधिकार कानून लागू होता है, चाहे वन विभाग द्वारा इन्हें नेशनल पार्क, सेंचुरी, संरक्षित वन, डीएफपी या यूपीएफ घोषित कर रखा हो। इन बर्तनदारी वनों (ऐसे वन, जिन पर स्थानीय लोगों का कब्जा हो) पर क्षेत्र के आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासियों के वन अधिकार को मान्यता देना कानूनी बाध्यता है। खास कर प्रदेश के सभी किसान परिवार, चाहे वे आदिवासी हों या गैर आदिवासी समुदायों से संबन्धित हों, वन अधिकार कानून के तहत वन निवासी की श्रेणी में आते हैं।

सच यह है कि लगभग 3.5 लाख परिवार के नाजायज कब्जे के दस्तावेज वन व राजस्व विभाग के पास पहले से हैं, जिन में 1.5 लाख के करीब कब्जे 2002 के हैं जब सरकार ने कब्जा बहाली योजना चलाई थी। अगर आज हर गावों शहर में पूरी पेमाइश करने पर न्यायालय आदेश करेगा तो 80 प्रतिशत हिमाचली इस दायरे में आएंगे।

सुझाव

1. सभी वन भूमि पर कब्जाधारी आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासी को अपनी ग्राम सभा की वन अधिकार समिति को अपने वन भूमि पर 13 दिसम्बर 2005 से पहले के कब्जे के वन अधिकार कानून के तहत साक्ष्यों सहित अधिकार पत्र लेने के लिए दावे पेश करें। कानून के मुताबिक, जिन लोगों के दावे वन अधिकार समिति के पास दर्ज हो जाते हैं, उन पर बेदखली तब तक नहीं हो सकती, जब तक दावों की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती।

2. हिमाचल सरकार को चाहिए कि न्यायालय में यह दलील पेश की जाए कि वन अधिकार कानून के तहत अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया अभी चल रही है, इसलिए जब तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं होती तब तक वन अधिकार कानून के मुताबिक बेदखली नहीं की जा सकती है।

3. प्रदेश सरकार वन अधिकार कानून को लागू करने के लिए विशेष अभियान चलाए तथा वन अधिकार के सामुदायिक व निजी वन अधिकार के पट्टे आदिवासी व अन्य वन निवासियों को तुरंत प्रदान करवाए।

(लेखक हिमालय नीति अभियान के संयोजक हैं। लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं)