अबूझमाड़ के आदिवासी लंबे समय से शोषण और उपेक्षा झेल रहे हैं।
बांस कटाई में कम भुगतान, वन विभाग की हिंसा, माओवादियों की धमकी और अब उद्योगपतियों की नजर उनके जंगल पर है।
नक्सल मुक्त घोषित होने के बाद भी खनन और सड़क निर्माण योजनाएं उनके पारंपरिक जीवन और अधिकारों के लिए खतरा बन रही हैं।
आमाटोला गांव पहुंचते-पहुंचते रात के पौने दस बज चुके थे। जिस घर में डीटीई टीम पहुंची, वहां घर के लोग बड़े-बड़े लट्ठों को जलाकर ठंड कम करने की कोशिश में जुटे हुए थे। अबूझमाड़ के बाहर अच्छी-खासी गर्मी है, लेकिन इस जंगल में प्रवेश करते ही ठंड शुरू हो जाती है।
आदिवासी डाउन टू अर्थ से बातचीत करने के लिए इतने उतावले थे कि इतनी रात तक जाग रहे थे। अन्यथा उनकी कोशिश यही रहती है कि शाम ढलते ही जल्दी सो जाएं।
आखिरकार इनमें से ज्यादातर सुबह मुर्गे की बांग से पहले उठने वालों में शामिल हैं। यहां के मुर्गे भी बहुत ढीठ हैं। सुबह-सुबह बांग देने के लिए मैदान या आंगन में नहीं जाते हैं। ये तो सो रहे आदिवासियों के सिरहाने जाकर ही बांग देना पसंद करते हैं। इसका मतबल यह है कि इस इलाके में चाह कर भी देर तक नहीं सोया जा सकता है।
ज्यादातर आदिवासियों का एक ही बड़ा सवाल था कि अब इतने लोग हमारे इस जंगल में क्यों आने लगे हैं। बीते सालों में तो हम कभी-कभार किसी शहरी को देख पाते थे या कोटरी नदी के पार जाते तभी हम आप जैसे लोगों को देख पाते थे।
जब हमने अपने आने का उद्देश्य बताया तो उनमें से एक आदिवासी मंगेरु ने जैसे-तैसे छत्तीसगढ़ी बोलते हुए पूछा कि छत्तीसगढ़ राज्य कब बना था? बताने पर उसने पूछा कि हमें तो अब तक पता ही नहीं कि हम किस राज्य में रहते हैं।
एक ग्रामीण मनकू ने सवाल किया कि हम तो बांस काटते हैं लेकिन उसका पैसा हमें बहुत कम मिलता है। एक बांस की कटाई पर ठेकेदार हमें केवल सात रुपए देता है।
ध्यान रहे कि एक बांस की कटाई का मतलब इतना भर नहीं है कि उसे जंगल से काट कर रख दिया। बल्कि उसे बकायदा कांटछांट कर तैयार किया जाता है।
आदिवासियों के अनुसार एक बांस की छंटाई में दो से तीन घंटे लग जाते हैं। ऐसे में एक आदिवासी दिनभर मेहनत करने के बाद मुश्किल से चार से पांच बांस ही तैयार कर पाता है।
इस हिसाब से उसकी रोज की मजदूरी 28 से 35 रुपए ही बैठती है। ग्रामीणों ने कहा कि हमने तो बीते साल कम कीमत होने के कारण बांस की कटाई ही नहीं की।
ध्यान रहे कि वन अधिकार अधिनियम, 2006 जंगलों में रहने वाले समुदायों को विशेष अधिकार प्रदान करता है। लेकिन इस इलाके के एकमात्र पढ़े-लिखे लक्ष्मण मंडावी ने कहा कि 2019 में जब अबूझमाड़िया समुदाय ने इन अधिकारों का दावा करने का प्रयास किया तो उन्हें माओवादियों की धमकी और राज्य के सहयोग की कमी का सामना करना पड़ा। आज भी वही हालात हैं।
मंडावी के बुजुर्ग पिता मंगड़ू ने कहा कि पहले तो हमारे पुरखों को राजाओं ने रौंदा, फिर अंग्रेजों ने, फिर वन अधिकारियों ने, फिर माओवादियों ने और अब उद्योगपतियों का नंबर आने वाला है। उनका डरना वाजिब है। इस इलाके में उद्योगपतियों की पहुंच हो चुकी है।
16 अक्तूबर 2025 को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अबूझमाड़ को नक्सल मुक्त घोषित किया है। नई सड़कों, सुविधाओं और मुख्य वन क्षेत्रों में लौह अयस्क खनन के विस्तार के माध्यम से केंद्र सरकार की कनेक्टिविटी को बढ़ावा देने की एक विस्तृत योजना है।
इस गांव में 17 घर हैं और इनकी जनसंख्या लगभग सौ के आसपास है। बुजुर्ग मंगड़ू ने बताया कि इस गांव पर 50 साल पहले वन विभाग का कहर टूट पड़ा था। आए दिन गांव वालों के घरों को आग के हवाले कर देते थे। इसके बाद गांव वाले मिलकर किसी तरह आग बुझाते थे।
उन्होंने बताया कि वन विभाग के कर्मचारी कहते थे कि तुम लोग जंगल की एक लकड़ी न काट सकते हो, न ही चुन सकते हो। साथ ही इस बात की धमकी देते थे कि यहां से भाग जाओ। इस पर मंगड़ू ने बताया कि हमारे दादा ने कहा कि आखिर हम तो जंगल के ही निवासी हैं और कहां जाएंगे लेकिन वे हमारी बात नहीं सुनते थे।
हर दिन वन कर्मी आकर गांव के किसी न किसी घर में आग लगा देते थे। एक दिन उन्होंने हमारे घर को भी आग के हवाले करने की कोशिश की। तभी हमारी दादी ने घर में घुस कर अंदर से दरवाजा बंद कर लिया और कहा कि अब तुम आग लगाओ, हम भी इसी आग में जलकर मर जाएंगे। दादी के ऐसा कहते ही वनकर्मियों के हाथ-पैर फूल गए। वे सभी भाग खड़े हुए, उसके बाद उनका कहर गांव पर कम हुआ। लेकिन उसके बाद तो माओवादियों का कहर अब तक जारी है।
जारी