भारत के उप-हिमालयी क्षेत्र में गिरी चीड़ की पत्तियां से जंगल में आग लगने का खतरा रहता है, लेकिन यह पत्तियां अक्षय ऊर्जा का स्रोत भी बन सकती हैं; फोटो: आईस्टॉक 
जंगल

हिमालयी क्षेत्र में आग की जगह, आय का साधन बन सकता है पिरूल

हिमाचल प्रदेश में चीड़ के पेड़ों की संख्या में वृद्धि के कारण जंगल में आग की घटनाएं बढ़ी हैं, कहीं न कहीं इसके लिए पिरूल भी जिम्मेवार है

Lalit Maurya

जंगलों में धधकती आग न केवल भारत बल्कि दुनिया के दूसरे कई देशों के लिए भी एक बड़ी समस्या बन चुकी है। बढ़ते तापमान और जलवायु में आते बदलावों के साथ, जिस तरह से आग लगने की यह घटनांए बढ़ रही हैं, वो एक गंभीर मुद्दा बन चुकी हैं। भारत, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका जैसे देशों को तो इन घटनाओं में हुई तबाही से उबरने में दशकों लग जाएंगें। ऐसे में इस समस्या पर गंभीरता से गौर करने की जरूरत है।

कहीं न कहीं आग के इस खतरे को कम करने के लिए दुनिया को नए तरीकों की आवश्यकता है। यह तरीके महज दिखावा भर न होकर ऐसे होने चाहिए जो गहरा प्रभाव डालें।

इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एनवायरनमेंट एंड वेस्ट मैनेजमेंट में प्रकाशित अपनी एक रिसर्च में भारतीय शोधकर्ताओं ने ऐसे ही एक कारगर तरीके पर प्रकाश डाला है। शोधकर्ताओं के मुताबिक जंगल में जमीन पर पड़ी सूखी पिरूल (पाइन नीडल्स) और अन्य वनस्पतियां आग को फैलने में मददगार होती हैं।

बता दें कि पहाड़ी इलाकों में पाए जाने वाले चीड़ के पेड़ की पत्तियों को पिरूल कहा जाता है। 20 से 25 सेंटीमीटर लम्बी यह नुकीली पत्तियां बेहद ज्वलनशील होती हैं, पहाड़ों में आग लगने और फैलने के पीछे इन घटनाओं की भी बड़ी भूमिका है। यही वजह है कि कई लोग इन्हें जंगल के लिए अभिशाप भी कहते हैं।

टीआर अभिलाषी मेमोरियल इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी से जुड़े शोधकर्ता पंकज वर्मा और उनके दल का सुझाव है कि समुदायों को सूखे पौधों और पत्तियों को कचरा समझने के बजाय उसे ऊर्जा के संभावित स्रोत के रूप में देखना चाहिए। इससे आग लगने के जोखिम को कम करने में मदद मिल सकती है। उनके अनुसार इससे पर्यावरण के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी मदद मिलेगी। इससे वन क्षेत्र साफ होगा और आग लगने के खतरे में कमी आएगी।

क्या चीड़ के बढ़ते पेड़ों से हिमाचल के जंगलों में लग रही है आग

शोधकर्ताओं के मुताबिक यह जंगल पारिस्थितिकी चक्र में एक अहम भूमिका निभाते हैं। यह न केवल अनगिनत प्रजातियों को आवास और आहार प्रदान करते हैं। साथ ही कई तरह की वनस्पतियों की मेजबानी भी करते हैं। अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने पाया है कि भारत में हिमाचल प्रदेश के वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है, और इसके पीछे की मुख्य वजह चीड़ के पेड़ (लॉन्गलीफ इंडियन पाइन) हैं।

चीड़ के पेड़ों से जनवरी से अप्रैल के बीच सूखी पिरूल गिरती है। शोधकर्ताओं ने इस बात का भी अंदेशा जताया है कि चीड़ के पेड़ों की संख्या में वृद्धि के कारण क्षेत्र में जंगल में लगने वाली आग की घटनाएं बढ़ गई हैं।

शोधकर्ताओं ने जानकारी देते हुए लिखा है कि चीड़ की इन सूखी पत्तियों को अक्सर ईंधन के रूप में उपयोग नहीं किया जाता, क्योंकि यह ज्यादा गर्मी पैदा नहीं करती। हालांकि उनका सुझाव है कि इस कम ऊर्जा वाले बायोमास को ब्रिकेट्स जैसे उच्च ऊर्जा वाले ईंधन में बदलना संभव हो सकता है। देखा जाए तो जैसे-जैसे देश में ऊर्जा की मांग बढ़ रही है, उसको पूरा करने में ऐसे उपाय मददगार साबित हो सकते हैं।

उनके मुताबिक कचरे से ऊर्जा बनाने के ऐसे तरीके इस समस्या को हल करने में मददगार साबित हो सकते हैं। इससे न केवल अक्षय ऊर्जा हासिल होगी, साथ ही जंगल में आग लगने का जोखिम भी कम होगा। यह अवधारणा वन संसाधनों के सतत उपयोग को भी बढ़ावा देती है, साथ ही पर्यावरण संरक्षण को भी प्रोत्साहित करती है। इसकी मदद से स्थानीय समुदायों को सामाजिक और वित्तीय रूप से फायदा हो सकता है।

गौरतलब है कि पिछले साल जर्नल करंट साइंस में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में भी हिमालय के पहाड़ी इलाकों में चीड़ की पत्तियों से लगने वाली आग के जोखिम को उजागर किया था। सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ एग्रीकल्चर इंजीनियरिंग द्वारा किए इस अध्ययन ने भी माना था कि चीड़ की यह नुकीली पत्तियां बेहद ज्वलनशील होती हैं, जिससे आग लगने का बड़ा खतरा होता है।

इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं का भी मानना था कि पिरूल का उपयोग अक्षय ऊर्जा स्रोत के रूप में किया जा सकता है। साथ ही अध्ययन में इस बात पर भी जोर दिया गया कि शुष्क अवधि के दौरान जंगल की आग को रोकने के लिए इन सूखी पत्तियों को जंगल में जमीन से हटा देना चाहिए।

उत्तराखंड सरकार ने तो जंगलों को आग से बचाने के लिए पिरूल एकत्र करने की योजना पर बल दिया है। 'पिरूल लाओ, पैसा पाओ' योजना पर काम शुरू हो चुका है। इस योजना के तहत प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 50 रूपए प्रति किलो की दर से पिरूल खरीदने की योजना बनाई है।