पवित्र उपवन स्थानीय समुदायों द्वारा देवताओं, प्रकृति या पूर्वजों की आत्माओं को समर्पित भूमि के टुकड़े होते हैं। स्थानीय समुदाय इन क्षेत्रों को वनस्पति की लगभग प्राकृतिक अवस्था में संरक्षित करते हैं (फोटो: विकास चौधरी / सीएसई) 
जंगल

राजस्थान के ओरण: कानूनी संरक्षण और समुदायों की भूमिका

पवित्र उपवनों को कानूनी रूप से मान्यता और संरक्षण प्रदान नहीं किया गया था, उन्हें तत्काल कानून के दायरे में लाना आवश्यक था

Parul Gupta

पीढ़ियों से ओरण (पवित्र उपवन) राजस्थान में स्थानीय समुदायों का एक अभिन्न अंग रहे हैं। वे ईंधन, चारा और आजीविका प्रदान करने के अलावा रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र की कई वनस्पतियों और जीवों की प्रजातियों के लिए प्राकृतिक आवास का काम करके स्थानीय लोगों के लिए एक सहायता प्रणाली के रूप में कार्य करते हैं। प्रत्येक ओरण का नाम किसी स्थानीय देवता के नाम पर रखा गया है। स्थानीय समुदायों द्वारा इसकी पूजा, सुरक्षा और संरक्षण किया जाता है। ओरण जितना अधिक संरक्षित किया जाता है, उतना ही अधिक समुदायों का सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से उत्थान होता है।

हालांकि बुनियादी ढांचा परियोजनाओं, सौर व पवन ऊर्जा परियोजनाओं, अवैध भूमि लेनदेन और अतिक्रमणों की शक्ल में तेजी से हो रहे औद्योगीकरण के कारण ओरण को गंभीर खतरों का सामना करना पड़ा है। इसके परिणामस्वरूप खनन, उत्खनन और वनों की कटाई हुई है। इसका एक कारण यह था कि ओरणों को कानूनी रूप से मान्यता नहीं दी गई थी और न ही उन्हें संरक्षित किया गया था। इसलिए उन्हें कानून के दायरे में लाना तत्काल आवश्यक था।

ओरण को “वन” के रूप में मान्यता देने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय का बहुप्रतीक्षित निर्णय 18 दिसंबर, 2024 को आया है। यह निर्णय एक याचिका का परिणाम है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के 3 जुलाई 2018 के आदेश के पिछले निर्देशों को लागू करने की मांग की गई थी। न्यायालय द्वारा राजस्थान को तत्कालीन केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति की रिपोर्ट के आधार पर पवित्र उपवनों (जैसे ओरण, देव वन और रूंध) की पहचान, सर्वेक्षण और सीमांकन “वन भूमि” के रूप में करने का निर्देश दिया गया था। हालांकि उक्त आदेश में ओरण के संरक्षण में समुदायों की भूमिका का उल्लेख नहीं है।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय दो पहलुओं पर महत्वपूर्ण है। सबसे पहला है, यह ओरणों को कानूनी संरक्षण देता है और उन्हें वन (संरक्षण एवं संवर्धन) अधिनियम, 1980 के दायरे में लाता है जिसका तात्पर्य है कि इस भूमि के गैर-वनीय उपयोग के लिए केंद्र सरकार से पूर्व अनुमति की आवश्यकता होगी।

दूसरा है, यह समुदाय-संरक्षित वन के महत्व पर प्रकाश डालता है जो स्थानीय समुदायों को न केवल ओरण को संरक्षित करने के लिए प्रोत्साहित करेगा बल्कि राज्य और केंद्र स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी होगा।

इस फैसले ने स्थानीय लोगों के बीच फैली बहुत सी अफवाहों और भ्रमों को भी समाप्त कर दिया है। वे गलत समझ रहे थे कि ओरण को “वन” के रूप में पहचानने और औपचारिक रूप से मान्यता देने से उनकी आजीविका और पूजा के अधिकार प्रभावित होंगे। चूंकि यह फैसला समुदायों के प्रथागत अधिकारों को भी बरकरार रखता है और ओरण को वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत सामुदायिक रिजर्व घोषित करने की सिफारिश करता है इसलिए यह एक तरह से स्थानीय समुदायों के बीच संतोष की स्थिति लाता है क्योंकि यह आर्थिक और पारिस्थितिक रूप से ओरण को संरक्षित करने की उनकी दृष्टि को बल प्रदान करता है।

यह आदेश उन राज्यों के स्थानीय समुदायों के लिए एक अच्छी मिसाल कायम करता है जो औद्योगिक और वाणिज्यिक शोषण के खतरों से अपने पवित्र उपवनों को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का कार्यान्वयन और अनुपालन समय और राजनीतिक इच्छाशक्ति का मामला होगा।

(पारुल गुप्ता सर्वोच्च न्यायालय में राजस्थान ओरण मामले में आवेदक अमन सिंह का प्रतिनिधित्व करने वाली अधिवक्ता हैं)