फोटो: कुलदीप तिवारी 
जंगल

आदिवासियों पर ऐतिहासिक अन्याय का अर्थ

Ramesh Sharma

शिकारी बैगा, सूदूर चिल्पी घाटी की तलहटी में बसे बोकराबाहरा गांव का बाशिंदा है। शिकारी बैगा के पिता नोहर बैगा नें बताया था कि किस तरह उसके पिता चिमन बैगा को लगभग 65 बरस पहले जब बखारी पहाड़ी से विस्थापित किया गया- तब सरकार ने आश्वासन दिया था कि सभी विस्थापित बैगाओं को चिल्पी घाटी की सीमा पर जमीन दी जाएगी। चिमन बैगा और तब विस्थापित 28 बैगा परिवारों के पास विकल्प ही नहीं थे।

उन्होंने सरकारी फरमान को अपने ग्रामदेवता बूढ़ादेव का संदेश मानकर लड़बकी गांव के आसपास बस गए। उनका विश्वास था कि कल सरकारी मुलाजिम आएंगे और सबको उनकी जमीनों का अधिकार पत्र देंगे। उस कल की प्रतीक्षा में बीते 65 बरस के दरमियान, जंगल-जमीन के कई कानून और नीतियां आईं- और हर बार चिमन बैगा को बताया गया कि अब नई सरकार उनको जंगल-जमीन का अधिकार देगी।

वर्ष 1998 में अपने जंगल-जमीन के अधिकारों की राह देखते-देखते चिमन बैगा का देहांत हो गया। उनकी उम्मीदों का नया वारिस नोहर बैगा था, जिसे विरासत में उसके पिता चिमन बैगा ने यह सिखाया था कि माई-बाप सरकार पर हमेशा भरोसा रखना, क्योंकि एक दिन सरकार ही उन्हें हमारे जंगल-जमीन का अधिकार देगी। वर्ष 2023 में अधिकारों की प्रतीक्षा करते-करते नोहर बैगा भी चले गए और तब शिकारी बैगा उनके अधिकारों की प्रतीक्षा का नया वारिस बना।

इस मध्यांतर में बखारी पहाड़ी से विस्थापित अधिकांश बैगा परिवारों में ऐसा कोई नहीं हुआ, जिसे जंगल - जमीन का अधिकार मिला हो। यह जरूर हुआ कि उनमें से हरेक को अतिक्रमणकर्ता के संदिग्ध आरोप में प्रताड़ित किया गया, कई मुकदमे हुए और जेल भी जाना पड़ा।

विशेष पिछड़ी जनजाति के सरकारी वर्गीकरण की पहचान पर बैगाओं के लिए योजनाओं का मानसून तो आता रहा, लेकिन उनको दिए गए संवैधानिक अधिकारों का धरातल सूखा ही रह गया।

कुल मिलाकर बैगाओं के अधिकारों और विकास के नाम पर अधिकृत सरकारी विभाग उत्तरोत्तर सम्पन्न और बैगा समाज निरंतर विपन्न होता गया। अपनी जमीन और जंगल के अधिकारों के लिए बैगाओं की उम्मीदें, हर नए कानून और नीतियों के साथ जन्म लेती और उसके साकार होने की अनथक प्रतीक्षा के साथ मरती रही।

प्रतीक्षा करते हुए इस समाज का नाम बैगा, डोंगरिया कंध, सहरिया या कुरुम्बा कुछ भी हो सकता है। उनकी अपनी मातृभूमि - चिल्पी घाटी, चम्बल घाटी, नियामगिरी या नीलगिरी कहीं भी हो सकती है।

उनका अपना वैधानिक वजूद - भूमि अधिकार संहिता 1959, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 1989, पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम 1996 या वनाधिकार कानून 2006 में भी हो सकता है, लेकिन सब कुछ हो सकने और कुछ भी न हो पाने के मध्य बीत चुके 75 बरस और तीन-चार पीढ़ियां भर नहीं हैं- वास्तव में शनैः शनैः समाप्त होता वह सब कुछ है, जिसे संविधान की पांचवीं अनुसूची और इन सभी क़ानूनों ने आदिवासी समाज के अधिकारों के सुनहरे हर्फों में कागजो पर तो लिखा, लेकिन जिसे साकार और स्थापित करने में सरकारें, नैतिक-राजनैतिक रूप से मुकम्मल नाकाम ही रहीं।

संविधान की पांचवीं अनुसूची ने बताया कि अधिसूचित क्षेत्रों में 76 विशेष पिछड़ी जनजातियों का अपना पंचायत और अपना अभिशासन होगा- और फिर सरकारों ने उन्हें दीनहीन 'लाभार्थियों' में अपघटित कर दिया।

वर्ष 1980 से लेकर वर्ष 2022 के दौरान भारत सरकार ने पूरी सदाशयता के साथ लगभग 37 लाख विशेष पिछड़ी जनजातियों के लिए अनुमानतः 20,00,000 करोड़ रुपए खर्च कर डाले, फिर भी विशेष पिछड़ी जनजातियों के लगभग 82 प्रतिशत लोग गरीबी के गर्त में गुमनाम ही रह गए।

वन संरक्षण कानून ने वायदा किया कि 25 दिसंबर 1980 के पूर्व के आदिवासी काबिजों को उनकी जमीन का मालिकाना अधिकार दिया जाएगा - और फिर ज्ञात तौर पर वन और वन्यजीव संरक्षण के नाम पर लगभग 28 लाख आदिवासियों को अतिक्रमणकर्ता के रूप में आरोपित करते हुए उनकी अपनी ही मातृभूमि से सदा-सर्वदा के लिये उखाड़ दिया गया।

भूमि कानूनों ने घोषणा की कि आदिवासियों की भूमि का गैर-आदिवासियों को हस्तांतरण पूर्णतः अवैधानिक है। सरकारें न केवल इसे पूर्णतः रोकेगी, बल्कि आदिवासियों की जमीन हड़पने वालों को कड़ी सजा दी जाएगी- और फिर स्वयं सरकारों ने आदिवासियों की लगभग 11 लाख हेक्टेयर भूमि, योजनाओं के लिये अधिग्रहित कर ली।

सरकारें आदिवासी हैं या गैर-आदिवासी, यह बहस अप्रासंगिक बनीं रहीं। सरकार के तथाकथित दत्तक पुत्र और जंगल-जमीनों के वारिस - आदिवासी समाज को भूमिहीन बनाकर अस्तित्वहीन कर दिया गया।

वर्ष 2008 में लागू वनाधिकार कानून ने अधिकृत रूप से ऐतिहासिक अन्याय समाप्त करने का वैधानिक नारा दिया और कहा कि इस कानून का मकसद आदिवासी समाज और अन्य परंपरागत वन निवासियों को अधिकार-संपन्न बनाना होगा - और फिर आदिवासी समाज को दावाकर्ता की कतार में निहत्था खड़ा कर दिया गया।

उन्हें बताया गया कि कानूनन सुयोग्य साबित होने पर ही उन्हें मुट्ठी भर जमीन मिलेगी - और ऐसा साबित होने तक उन्हें अवांछित अतिक्रमणकर्ता मान लिया गया। उनके अधिकार तय करने और न करने के मध्य वह पूर्ण-अपूर्ण सरकारी तंत्र खड़ा हो गया, जिसकी नाकामियों और नकारेपन की वजह से आदिवासी समाज ऐतिहासिक अन्यायों का आखेट रहा।

सफलताओं को आंकड़े मानने वाले तंत्र भी आज यह साबित नहीं कर पा रहे हैं कि पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों के तथाकथित 'विशेष पिछड़ी जनजातियों' में वास्तव में कितने फीसदी आदिवासी - पंचायत विस्तार अधिनियम, वन संरक्षण कानून, भूमि संहिता और वनाधिकार कानून की बदौलत अधिकार संपन्न हुए।

सरकार और समाज की सामूहिक असफलता की गाथा बैगाचक, पातालकोट, संथाल परगना और नीलगिरी में स्थापित हैं, जबकि तथाकथित सफलताएं, सरकारी योजनाओं की मीनारों में कहीं दफन हैं।

दफन तो अनगिनत सवाल भी हैं कि - आखिर वनाधिकार कानून के दायरे में विशेष पिछड़ी जनजातियों से वर्ष 2005 के पूर्व काबिज होने का सबूत क्यों मांगना चाहिए? संवैधानिक रूप से विशेष पिछड़ी जनजाति घोषित होने का सरल अर्थ ही उनकी वैधानिक योग्यता को स्थापित नहीं करता?

क्यों नहीं स्वयं सरकारी तंत्र अपने वैधानिक दायित्वों के अंतर्गत स्वप्रेरित कार्य करते हुए आदिवासी समाज को उनके जंगल-जमीन का अधिकार सौंप देता? क्यों नहीं उनके ही मतों से चुनी हुई सरकारें आदिवासी समाज को अतिक्रमणकर्ता के (अ)वैधानिक लांछन से हमेशा के लिए मुक्त करतीं हैं?

भारत सरकार का आदिवासी मामलों का मंत्रालय यह नहीं बताता कि वनाधिकार कानून लागू होने के डेढ़ दशक के बाद भी संवैधानिक संरक्षण प्राप्त आखिर कितनी विशेष पिछड़ी जनजातियों को उनके अपनें जंगल-जमीन वापस सौंप दिए गए?

कितने आदिवासियों पर दर्ज (अ)वैध वन अपऱाध समाप्त किए गए? पूर्व में सरकारी योजनाओं के नाम पर विस्थापित कितने आदिवासियों को फिर से उनके अपने पर्यावास में जंगल-जमीन का अधिकार हस्तांतरित किया गया?

पांचवीं अनुसूची के कितनें भू-भाग में वास्तविक रूप से आदिवासी समाज का अपना अभिशासन स्थापित हो गया?

भारत की स्वाधीनता के 75 बरसों बाद यदि आदिवासी समाज के विरुद्ध ऐतिहासिक अन्याय जारी है तो सवालों के केंद्र में समाज, सरकार और स्थापनायें भी हैं - जिनकी भूमिकायें अब तक तो संदिग्ध ही रहीं हैं।

बावजूद इसके, आदिवासियों के अधिकारों का विमर्श, आज एक बार फ़िर आगत संघर्षों के लिये पूरी प्रतिबद्धता के साथ खड़ा है। आदिवासी समाज को यह विश्वास है कि अपनें अस्तित्व और अधिकारों की लड़ाई में अंततः वही जीतेगा, बस उम्मीद इतनी ही है कि शेष समाज और सरकार - आदिवासी समाज को अपना मार्ग ख़ुद गढ़नें और आगे बढ़नें के लिये स्वाधीन कर दे।

(लेखक रमेश शर्मा – एकता परिषद के महासचिव हैं)