गरियाबंद जिले बोईरगांव निवासी गुलेश्वर ध्रुव महुआ के संग्रहण में व्यस्त हैं। सभी फोटो : भागीरथ/सीएसई 
जंगल

महुआ का मौसम : जब आदिवासी इलाकों में नहीं होती शादियां और सामाजिक कार्यक्रम

आदिवासियों के लिए मार्च-अप्रैल के महीने में पेड़ से टपकते महुए से जरूरी कोई काम नहीं होता

Bhagirath

गुलेश्वर ध्रुव के घर में दाखिल होते महुआ के फूलों की हल्की मीठी महक नथुनों में भर जाती है। उनके विशाल आंगन में करीब 40 किलो महुआ के फूल सूख रहे हैं। ये फूल उन्होंने तीन दिन में बीने हैं। गुलेश्वर सुबह 10 बजे जंगल और अपने खेत में लगे महुआ के पेड़ों से झरे ताजा महुआ बीनकर लौटे हैं। साइकल के हैंडल में उन्होंने महुआ से भरे दो थैले और पीछे कैरियर पर एक बोरी बांधी हुई है।

गुलेश्वर ध्रुव छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के बोईर गांव में अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ रहते हैं। करीब 800 की आबादी वाले उनके गांव में 200 से अधिक महुआ के पेड़ हैं, जो उनके जैसे सैकड़ों ग्रामीणों की आजीविका को मार्च अप्रैल के महीने में थोड़ा मजबूत बना देते हैं।

बोईरगांव के खेतों में करीब 200 महुआ के निजी पेड़ हैं

गुलेश्वर के हिस्से में 6-7 महुआ के पेड़ हैं। ये पेड़ जंगल से सटे उनके खेत में लगे हैं। खेतों में टपकने वाले महुए को धन मानने वाले गुलेश्वर बताते हैं कि वह हर साल कम से कम 200-300 किलो महुआ जोड़कर 10-12 हजार रुपए की कमाई कर लेते हैं। यह पैसा घर चलाने, बच्चों की पढ़ाई और कपड़ों की खरीद में मुख्य रूप से इस्तेमाल होता है। महुआ बेचने के लिए उन्हें कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं पड़ती। व्यापारी खुद उनके घर से महुआ खरीद लेते हैं।

महुआ के फूलों के सीजन खत्म होने के बाद जून-जुलाई में महुआ के फल का सीजन शुरू हो जाता है। हर सीजन में वह फलों से करीब 5-10 किलो बीज इकट्ठा कर लेते हैं, जिनसे तेल निकलता है। गुलेश्वर बताते हैं कि 10 किलो बीज से करीब 2-3 किलो तेल निकल जाता है। गुलेश्वर के अनुसार, ग्रामीण महुआ के इस तेल को खाने में इस्तेमाल करते थे, लेकिन यह इस्तेमाल अब बेहद सीमित रह गया है। लेकिन इसका तेल खांसी, जुकाम और बुखार में अब भी मला जाता है।

गुलेश्वर ध्रुव ने अपने आंगन में महुआ को सुखाया है

पथर्री गांव में अपने चार साल की बेटी संग महुआ बीन रहीं फिंगेश्वरी ध्रुव महुआ को अपना एटीएम मानती हैं और आपातकाल की स्थिति में महुआ बेचकर परिवार की जरूरतें पूरी करती हैं। वह बताती हैं कि आमतौर पर सूखा महुआ तभी बेचती हैं, जब भाव ठीक रहता है। सीजन खत्म होने के बाद उन्हें महुआ का सबसे बेहतर भाव मिलता है। मई-जून में 50 से 55 रुपए प्रति किलो तक हो जाता है, तभी इसे बेचना ज्यादा लाभप्रद है।    

पथर्री गांव की फिंगेश्वरी ध्रुव जंगल से सटे अपने खेत से महुआ बीन रही हैं

गुलेश्वर मानते हैं कि महुआ के सीजन में पूरा क्षेत्र इसे बीनने में व्यस्त हो जाता है, इसलिए लोग इस दौरान शादी व अन्य कार्यक्रम रखने से बचते हैं। सामाजिक कार्यक्रम और यहां तक कि ग्रामसभाओं की बैठकें भी इस दौरान अक्सर टल जाती हैं, क्योंकि महुए से जरूरी इस मौसम में कुछ भी नहीं होता। आदिवासी इस मौसम में अपने रिश्तेदारों के घर भी जाने से बचते हैं।