19 मार्च 2025 की सुबह आठ बजे गौंड आदिवासी बहुल कामेपुर गांव में सन्नाटा पसरा है। गांव की मुख्य सड़क पर न तो किसी की आवाजाही है और न ही कोई शोरशराबा। अधिकांश घर खाली हैं। घरों में कुंडी या सांकल लगी हैं। कामेपुर के बच्चे, बूढ़े और जवान दुनियादारी भूलकर एक ऐसे उत्सव में तल्लीन है, जो मार्च और अप्रैल के महीने में करीब डेढ़ महीने जारी रहता है। यह महुआ बीनने का मौसम है।
मार्च-अप्रैल यानी महुआ सीजन 339 की आबादी और 74 परिवार वाले कामेपुर के ग्रामीणों के लिए सबसे सुखद और लाभदायक माना जाता है। 90 प्रतिशत गौंड आदिवासियों के परिवार समेत पूरा गांव इस मौसम में अपने सभी काम छोड़कर सुबह 5-6 बजे से महुआ बीनने में लगे रहते हैं। महुए को सर्वोच्च प्राथमिकता देने में वे भोजन करना तक भूल जाते हैं।
अपने 25-30 पेड़ों में एक पेड़ के नीचे महुआ बीन रहे और थोड़ी-थोड़ी देर में महुआ खाने की कोशिश में आ रही एक गाय को बार-बार भगा रहे करीब 60 वर्षीय भादूराम सुबह-सुबह खेत में पहुंचे हैं। वह अपने साथ घर में रखा रात का बासा खाना लेकर आए हैं। उनकी पत्नी रात में भी सुबह के लिए खाना बनाकर रख देती हैं ताकि महुआ बीनने को पूरा समय मिल सके। खाना कम पड़ने पर वह खेत में लगे तेंदू के पेड़ के फल खाकर काम चला लेते हैं।
भादूराम के घर के तीन सदस्य सुबह से शाम तक महुआ बीनते हैं। अब तक वह करीब दो क्विंटल महुआ बीन चुके हैं। महुआ बीनने का करीब आधा सीजन ही हुआ है, ऐसे में उन्हें उम्मीद है कि करीब 2 क्विंटल महुआ वह सीजन खत्म होने तक और बीन लेंगे। भादू राम 4,000-4,500 रुपए प्रति क्विंटल से महुआ बेचेंगे और इस पैसे से घर का राशन और कपड़े आदि खरीदेंगे। उनका अनुमान है कि महुए के एक बड़े पेड़ से करीब 100 किलो तक महुआ निकलता है, जबकि छोटे और मध्यम आकार के महुए से 40-60 किलो तक महुए की प्राप्ति होती है।
भादू राम के खेत से कुछ फासले पर अलग-अलग पेड़ों के नीचे 8 सदस्यीय परिवार के साथ महुआ बीनने में व्यस्त पवन सिंह महुआ बीनने के इस मौसम को ही रबी की फसल की संज्ञा देते हैं। पवन सिंह के तीन एकड़ के खेतों में 50-60 महुआ के पेड़ हैं। इस पेड़ों से महुआ बीनने के लिए वह रबी के मौसम में कोई फसल नहीं लगाते क्योंकि फसल लगाने पर महुआ बीनने में दिक्कत होगी।
पारंपरिक फसल के स्थान पर महुआ को तरजीह देने का गणित समझाते हुए पवन सिंह बताते हैं कि खरीफ में वह धान की फसल लगाते हैं और तीन एकड़ के खेतों से उन्हें करीब 12 क्विंटल धान मिलता है। यह फसल करीब 40,000 रुपए में बिकती है। करीब इतनी ही आय उन्हें बिना किसी लागत के महुआ से प्राप्त हो जाती है।
पवन सिंह ने 2022 में हालिया वर्षों में सबसे अधिक 15 क्विंटल क्विंटल महुआ इकट्ठा किया था और उसे 40,000 रुपए में बेचा था। उस समय महुआ का भाव 2,500 रुपए प्रति क्विंटल था जो मौजूदा भाव से काफी कम है। अगर इस साल भी पूरे सीजन में 12 क्विंटल महुआ वह बीन लेते हैं तो उन्हें 4,500 रुपए के मौजूदा भाव पर 54,000 रुपए की आय हो जाएगी।
पवन सिंह मानते हैं कि रबी की पारंपरिक फसलों में इतनी आय संभव नहीं है, इसलिए महुआ की कीमत पर दूसरी फसल लगाने का जोखिम ही नहीं लेते। कामेपुर के 70 वर्षीय बलदेव महुआ से होने वाली आमदनी के सहारे ही आने वाले कुछ महीने परिवार को पालते हैं। साथ ही खरीफ की फसल की तैयारी भी महुआ से होने वाली आय से करते हैं।
उनके 7 महुए के पेड़ों से उन्हें करीब 16,000 रुपए की शुद्ध आमदनी होती है। अपने पांच साल के नाती के साथ महुआ बीन रहे बलदेव की मानें तो खरीफ की फसल के लिए बीज, खाद आदि व्यवस्था करने में महुआ का सबसे अहम योगदान रहता है।
कामेपुर गांव में हर परिवार के पास कम से कम 5-7 महुआ के पेड़ हैं। बहुत से परिवार ऐसे भी हैं जिनका 40-50 पेड़ों पर अधिकार हैं। गांव के युवक रामेश्वर कपिल की मानें तो महुआ ग्रामीणों की आय में 10-20 प्रतिशत तक योगदान देते हैं। गांव में जिन आदिवासियों के हिस्से में महुआ के कम पेड़ हैं, उनके लिए जंगल का महुआ सुलभ है।
कामेपुर गांव में करीब 3,300 हेक्टेयर का जंगल है, जिसमें करीब 50,000 महुआ के पेड़ हैं। ये पेड़ शांति बाई जैसे उन आदिवासियों के लिए किसी वरदान से कम नहीं हैं, जिनके निजी स्वामित्व में सीमित पेड़ हैं। शांति बाई के खेत में केवल 3 महुआ के पेड़ हैं।
वह अपने खेतों से महुआ बीनने के बाद अपनी सास, देवरानी, पति और बेटी के साथ जंगल का रुख करती हैं और सीजन में करीब 3 क्विंटल महुआ का संग्रहण कर लेती हैं। वह बताती हैं कि महुआ का संग्रहण इस पर निर्भर करता है कि परिवार में कितने सदस्य हैं। आमतौर पर दो लोग 2-3 क्विंटल महुआ हर सीजन में महुआ बीन लेते हैं और इससे करीब 10 हजार की आय होती है।