भारत में भूमि अधिकारों की स्थिति चिंताजनक है, जहां संवैधानिक सुरक्षा के बावजूद लाखों लोग अपने अधिकारों से वंचित हैं।
न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका की असंवेदनशीलता के कारण भूमि विवादों के मामले लंबित हैं।
न्याय की प्रतीक्षा में खड़े वंचितों के लिए न्यायपालिका ही अंतिम उम्मीद है, लेकिन न्यायिक विलंब एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।
भारत मे भूमि अधिकारों को लेकर संवैधानिक सुरक्षा जितना सांकेतिक है, उतना ही उन विरोधाभासी वैधानिक सुरक्षा के प्रावधानों का आधा-अधूरा अनुपालन। इसीलिये दुनियाभर में मानव अधिकारों की जननी कहे जाने वाले ‘भूमि अधिकारों’ की (अ)सफ़लता – आज़ भारत मे लोकतंत्र के निकायों यानि व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की संवेदनशीलता और रहमोकरम पर है।
एक ऐसा लोकतंत्र - जहां व्यवस्थापिका भूमि सुधारों के राजनैतिक तर्कों से अनभिज्ञ, कार्यपालिका भूमि अधिकारों के प्रशासनिक संभावनाओं के प्रति असंवेदनशील और न्यायपालिका 'भूमिहीनों के भूमि अधिकारों' पर अमूमन असहाय है।
परिणामतः भारत मे 'जल, जंगल और जमीन' पर निर्भर रहने वाली आधी से अधिक आबादी अपने संवैधानिक अथवा सांकेतिक अधिकारों से वंचित रह गयी ।
ग़ौरतलब है कि भारत सरकार (सामाजिक-आर्थिक जनगणना रिपोर्ट, 2015) के अनुसार लगभग 5.37 करोड़ लोग भूमिहीन हैं। महत्वपूर्ण यह भी है कि भारत सरकार के कानून और न्याय मंत्रालय के अनुसार (फरवरी 2025) भारत के विभिन्न अदालतों में भूमि और संपत्ति मामलों से संबंधित लगभग 5.19 करोड़ प्रकरण लंबित हैं।
वास्तव मे भूमि अधिकारों को लेकर न्याय की भावनायें और संभावनायें, इन दो अबूझ सांख्यिकी के मध्य दफन है। इसका सरल अर्थ यह है कि भूमि सुधारों की अपूर्णता के आखेट, न्यायालयों के समक्ष बरसों से खड़े वो करोड़ों वंचित भी हैं, जिन्हें कम से कम ‘न्याय’ तो अब तक नही ही मिला।
और इसका जटिल निष्कर्ष है कि भूमि अधिकारों को सुनिश्चित और सुरक्षित करने हेतु जवाबदेह लोकतांत्रिक निकाय लगभग असंवेदनशील और एक हद तक अक्षम ही साबित हुये हैं।
भारत के संवैधानिक व्यवस्था में 'अधिकारों और न्याय' का प्रमुख निर्धारक तंत्र - न्यायपालिका है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी एन भगवती ने कहा था कि - न्याय मे विलंब होना भी एक व्यवस्थागत अन्याय है।
विगत दशकों से न्यायालयों मे लंबित लगभग 5.19 करोड़ प्रकरणों के मध्य - वंचितों और भूमिहीनों के लिये पूरे न्यायतंत्र का ही, एक हद तक असहाय हो जाना वास्तव मे अमानवीय त्रासदी है।
संभव है कि व्यवस्थापिका के समक्ष अपने ही स्थापनाओं से संबंधित (राज)नैतिक सीमाएं हों और वह वित्तीय समीकरणों से बंधे हों, कार्यपालिका प्रशासनिक रूप से बंधनमुक्त और स्वायत्त होते हुये भी (राज)नैतिक रूप से आज्ञाकारी रह गया हो - ऐसे मे न्याय के लिए प्रतीक्षारत भूमिहीनों और वंचितों के लिये अब न्यायपालिका ही तो अंतिम उम्मीद है।
व्यवस्थापिका और कार्यपालिका से लगभग पराजित हो कर न्यायपालिका के शरण में खड़े, उम्मीदग्रस्त करोड़ों वंचितों और भूमिहीनों के बरक्स - इसे अब देखा, सुना और समझा जा सकता है।
7 फ़रवरी 2025 को माननीय सांसद असदुद्दीन ओवैसी के द्वारा अदालतों में लंबित भूमि संबंधी मामलों को लेकर संसद मे पूछे गये सवाल के जवाब मे, भारत सरकार के क़ानून और न्याय मंत्रालय के राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) द्वारा बेहद महत्वपूर्ण जानकारी संसद के पटल पर रखी गयी।
माननीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल द्वारा नेशनल जुडिसियल डाटा ग्रिड (30 जनवरी 2025 तक) की जानकारी के अनुसार बताया कि सर्वोच्च न्यायालय में भूमि से संबंधित 82,922 (अर्थात 1 प्रतिशत से कम) प्रकरण, उच्च न्यायालयों में 62,28,980 (अर्थात 12 प्रतिशत) प्रकरण तथा जिला और संबंधित न्यायालयों में 4,56,17,477 (अर्थात 87 प्रतिशत) प्रकरण लंबित हैं।
मंत्री द्वारा संसद मे यह भी बताया गया कि न्यायालयों में लंबित प्रकरणों के त्वरित समाधान हेतु वर्ष 2011 में भारत सरकार द्वारा नेशनल मिशन फॉर जस्टिस डिलीवरी (न्याय प्रदान करने हेतु राष्ट्रीय अभियान) प्रारंभ किया गया। इस मिशन का प्रथम उद्देश्य - न्याय की सुलभता और त्वरित निपटारे की व्यवस्था तथा दूसरा उद्देश्य, बेहतर न्यायिक जवाबदेही हेतु पैमाने निर्धारित करना और न्यायतंत्र की क्षमता का विकास करना था।
इस मिशन के तहत अब तक चरणबद्ध तरीके से लंबित प्रकरणों के निपटारे, अदालतों के लिये बेहतर सुविधाओं की उपलब्धता, अधिक संख्या में लंबित प्रकरणों वाले क्षेत्रों के लिये नीतिगत सुधार और सबसे महत्वपूर्ण अदालती प्रक्रियाओं की पुनर-इंजीनियरिंग करना शामिल है।
बहरहाल, न्याय के लिये संचालित इस राष्ट्रव्यापी अभियान के अंतर्गत - भूमि संबंधी लंबित न्यायायलीन प्रकरणों के समाधान और संबंधित व्यवस्थागत सुधारों के लगभग 14 बरस पूरे हो चुके हैं, इसीलिये इस मिशन की उपलब्धियों की रिपोर्ट सार्वजनिक होनी ही चाहिये।
यह इसलिये कि अपने भूमि अधिकारों के लिये न्याय के द्वार पर कतारबद्ध खड़े लोगों में उम्मीद बनी रहे और इसलिये भी कि वंचितों के लिये समर्पित सरकारों की राजनैतिक सफ़लताओं को समाज जान सके। लेकिन जब तक ये आंकड़े और रिपोर्ट, महज बौद्धिक शोध और सरकारी दावों का ताना-बाना बना रहेगा, तब तक न्यायतंत्र उसकी तमाम संवैधानिक प्रतिबद्धताओं के बावज़ूद भी प्रतीक्षरत वंचितों को वह सम्मान कदाचित नहीं दे पाएगा जिसका हकदार संविधान ने उसे घोषित तौर पर किया है।
सत्य तो यह है कि भूमिहीनों और वंचितों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये त्वरित न्याय व्यवस्था, लंबित विवादों को सुलझाने के लिये वैकल्पिक अदालतों का संचालन, विधिक सेवा सुविधाओं का विस्तार और सक्षम अदालतों को गठित करने वाले ये तमाम नारे, लगभग चार दशकों के बाद भी अपनी ही सीमाओं मे सीमित रह गये हैं ।
आज़ पूरी दुनिया मे लंबित न्यायालयीन मामलों मे भारत का स्थान प्रथम है जो निःसंदेह 'न्याय के लिये जनसंख्या के दबाव' को दर्शाता है - लेकिन यह भी जाहिर करता है कि न्याय के लिए हरेक (और विशेष रूप से गरीब) को बहुत लंबी प्रतीक्षा करनी होगी।
भारत सरकार के नीति आयोग (वर्ष 2018) के अनुसार भारत के विभिन्न न्यायालयों मे लंबित प्रकरणों के निपटारे मे लगभग 324 बरस लगेंगे। यह निर्णय देने / और न्याय होने मे न्यायिक विलंब का दुःखद सारांश है।
पूरी दुनिया मे न्यायालयीन मामलों के विश्लेषण को लेकर जारी ‘वर्ल्ड जस्टिस रिपोर्ट’ (वर्ष 2025) मे जो ‘रूल ऑफ लॉ इंडेक्स’ बनाया गया उसके अनुसार - भारत के न्यायालयों द्वारा समय और गुणवत्ता के आधार पर निर्णय देने की वैश्विक रैंकिंग, पूरी दुनिया के 143 देशों की सूची में 114 (अर्थात अति चिंतनीय) है।
जाहिर है भारत में न्यायालयीन सुधारों को लेकर और उसमें भी ग़रीबों को समय से न्याय सुनिश्चित करने के लिये बहुत कुछ किया जाना शेष है। कदाचित यह सुधार उन टूटती हुई उम्मीदों को ज़िंदा कर सकते हैं जिसके संबल पर करोड़ों भूमिहीन और वंचित, न्यायालयों की शरण मे आये थे और आज़ भी न्याय की प्रतीक्षा मे हैं।
सुतनु मांझी पहली बार वर्ष 1988 में अपने 4 बीघा जमीन के हक के लिए बंगाल के उच्च न्यायालय मे न्याय पाने की उम्मीद से गया - और अब तक वापस नहीं आ सका। तमिलनाडु की चिन्नम्मा जिसे उसकी अपनी जमीन से ताकतवर लोगों ने बेदखल कर दिया, वह अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए वर्ष 2002 से तंजावुर जिला अदालत के जागने की प्रतीक्षा मे है।
वर्ष 1998 मे ग़ैर वाज़िब भूमि अधिग्रहण में अपना खेत गवां चुकी उड़ीसा के सुंदरगढ़ की जिला अदालत मे याचिकाकर्त्ता कांति देवी हो या फिर पंजाब के फाजिल्का जिला न्यायालय मे 17 बरसों से अपने जमीन के हक के लिए खड़ी सुखविंदर कौर - इन सबकी बूढ़ी होती उम्मीदें और उन उम्मीदों को पूरा करने वाले न्यायतंत्र की असहायता, सब सवालों के सन्नाटे में है।
सुतनु, चिन्नम्मा, कांति देवी और सुखविंदर कौर जैसे करोड़ों वंचितों का वज़ूद, उस बेपनाह अवाम की तरह है जिन्होंने अपने ही सरजमीं मे बेजमीन हो कर मरने के बजाये, न्यायतंत्र के सामने पूरे साहस और धैर्य के साथ खड़ा होने का विकल्प चुना।
संयोगवश अब तक न्याय का विकल्प – ‘केवल और केवल न्याय’ ही है। इसीलिये आज सरकार और समाज की यह नैतिक - राजनैतिक जवाबदेही है, कि वह उन 5,19,29,379 वंचितों को आंकड़ों के चक्रव्यूह से बाहर लाए, और उस न्याय को सुनिश्चित करे जिसे भारत के संविधान ने घोषित और पोषित किया है।
और इसके लिए ग्राम न्यायालय और विकेन्द्रित न्याय व्यवस्था, निःसंदेह बेहतर विकल्प हैं, जिसे आजमाया जाना शेष है। भारत में न्यायालयों के समक्ष न्याय की प्रतीक्षा में खड़े वंचितों और भूमिहीनों के लिये उनका भूमि अधिकार ही ‘समग्र मानवाधिकार’ का प्रथम पायदान है।
प्रश्न शेष है कि समाज के हाशिए में धकेल दिए गए वंचितों की वो बुढ़ाती पीढ़ियां जिन्होंने इस देश को अपनी मातृभूमि माना - क्या ‘दो बीघा ज़मीन के अधिकार’ के बिना उनकी अपनी नागरिकता अपूर्ण नहीं है?
स्वाधीनता के अमृतकाल में भी, दशकों से न्याय के लिये प्रतीक्षारत खड़े भूमिहीनों और वंचितों के मानवाधिकार को लेकर समाज और सरकार के मौन ‘हाँ और ना’ के मध्य देश की आधी आबादी - पूरे न्याय के स्वप्न देखने के लिये अभिशप्त है।
(लेखक रमेश शर्मा – एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)