मानर गांव का करीब 12 हेक्टेयर का जंगल  फोटो: मिधुन विजयन/ सीएसई
जंगल

भारत के जंगलों की सेहत पर संकट: प्रकाश संश्लेषण दक्षता में आई गिरावट

आईआईटी खड़गपुर के शोधकर्ताओं ने भारत के जंगलों की सेहत को लेकर एक चौंकाने वाला शोध किया है

DTE Staff

देश के जंगलों की सेहत को लेकर आईआईटी खड़गपुर के एक नए अध्ययन ने चिंता बढ़ा दी है। इस अध्ययन में कहा गया है कि भारत के जंगलों की प्रकाश संश्लेषण दक्षता यानी पेड़ों की वह क्षमता, जिससे वे सूरज की रोशनी, पानी और कार्बन डाइऑक्साइड को भोजन और ऊर्जा में बदलते हैं, पिछले एक दशक में लगभग 5 प्रतिशत घट गई है।

यह गिरावट खासतौर से पूर्वी हिमालय, पश्चिमी घाट और गंगा के तटीय मैदानों के पुराने जंगलों में सबसे ज्यादा पाई गई है।

क्यों है यह चिंता की बात?

जंगल केवल हमारी सांसों के लिए ऑक्सीजन ही नहीं देते, बल्कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने में भी अहम भूमिका निभाते हैं। जब जंगलों की प्रकाश संश्लेषण क्षमता घटती है तो इसका मतलब है कि वे वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को पहले जितना नहीं खींच पा रहे। इसका असर न सिर्फ पर्यावरण पर, बल्कि जंगलों की अपनी सेहत पर भी पड़ता है।

अध्ययन में सामने आया है कि अब जंगल गर्मी, सूखा, जमीन और हवा की नमी में कमी, और जंगल की आग जैसी आपदाओं के सामने पहले से ज्यादा कमजोर हो गए हैं। यही वजह है कि आज भारत के केवल 16 प्रतिशत जंगल ही “हाई इंटीग्रिटी” यानी उच्च संपूर्णता बनाए हुए हैं।

यह अध्ययन आईआईटी खड़गपुर के सेंटर फॉर ओशन, रिवर, एटमॉस्फियर एंड लैंड साइंसेज से जुड़े प्रोफेसर जयनारायणन कुट्टीप्पुरथ और शोधकर्ता राहुल कश्यप ने किया है। इसका शीर्षक

“वीकिंग ऑफ फॉरेस्ट कार्बन स्टॉक डयू टू डिक्लाइनिंग इकोसिस्टम फोटोसिंथेटिक एफिशिंएसी अंडर दी करंट एंड फ्यूचर क्लाइमेट चेंज सिनेरियो इन इंडिया” है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि भारत में भले ही हरितीकरण यानी पेड़ लगाने और जंगलों का विस्तार करने का काम बड़े पैमाने पर हुआ है और हम दुनिया में कार्बन अवशोषण में अहम योगदान दे रहे हैं, लेकिन जंगलों के स्वास्थ्य में लगातार गिरावट आ रही है।

विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर यह रुझान जारी रहा तो भारत के जंगल जलवायु परिवर्तन की मार झेलने में और कमजोर पड़ सकते हैं। ऐसे में जरूरी है कि केवल पेड़ लगाने पर ही नहीं, बल्कि पुराने जंगलों की सुरक्षा और उनके प्राकृतिक ढांचे को मजबूत बनाने पर भी ध्यान दिया जाए।

अध्ययन के प्रमुख लेखक राहुल कश्यप कहते हैं, "यह जैव विविधता को भी खतरे में डाल रहा है और उन्हें विलुप्त होने की ओर ले जा रहा है। पारिस्थितिक रूप से नाजुक क्षेत्रों में जंगलों के अवक्रमण से भविष्य में जलवायु परिवर्तन की बहुत अधिक स्थितियां पैदा हो सकती हैं।"

प्रोफेसर जयनारायणन कुट्टीप्पुरथ ने आगाह किया कि हमें वनों को जलवायु परिवर्तन की समस्या का पूरा हल मानने की गलती नहीं करनी चाहिए। पेड़-पौधे और जंगल भले ही कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं, लेकिन आज जितना मानवजनित कार्बन उत्सर्जन हो रहा है, उसके मुकाबले यह समाधान अकेला काफी नहीं है।

उन्होंने चेतावनी दी कि आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन, बार-बार आने वाली चरम मौसमी घटनाएं, कृषि विस्तार, वृक्षारोपण परियोजनाएं और तेज विकास गतिविधियां जंगनों के लिए बड़ा खतरा बन सकती हैं। इन कारणों से तेजी से जंगलों की कटाई और गिरावट हो सकती है।

उन्होंने कहा, अगर यह सिलसिला चलता रहा तो भारत के घने जंगल धीरे-धीरे सवाना (यानी हरी-भरी भूमि का सूखी घास वाली भूमि में बदल जाना) में बदल सकते हैं। इसका मतलब होगा कि हमारे जंगल अपनी मूल पहचान और ताकत खो देंगे।