“आज से दो साल पहले मेरे गांव मेलबा सहित आस-पास के क्षेत्र में जोजरी नदी में जोधपुर से बहकर आने वाले केमिकलयुक्त पानी को पीने से वन्यजीवों खासकर चिंकारा, काले हिरण और गायों की मौत हो रही थी।पिछले साल आठ से ज्यादा चिंकारा और काले हिरण जोजरी का गंदा पानी पीने से मरे थे। साथ ही गर्मियों में जानवरों को पीने के लिए पानी नहीं मिलता था, लेकिन दो साल में ही हालात बदल गए हैं। इस साल हमने एक भी चिंकारा को गंदे पानी के वजह से मरते नहीं देखा, वहीं गांव के ओरण में चिंकारा की संख्या 38 से बढ़कर 46 हो गई है।”
राजस्थान के जोधपुर से बाड़मेर की ओर 46 किमी दूर मेलबा गांव के पर्यावरणविद् श्रवण पटेल के चेहरे पर यह बताते हुए काफी खुशी और संतोष था। श्रवण ने दूषित पानी से हिरणों को बचाने के लिए अपने गांव के ओरण में बीते दो साल में 12 खैली (छोटा तालाब) बनाई हैं। इनमें ओरण के वन्यजीवों को ना सिर्फ पीने के लिए मीठा पानी मिल रहा है बल्कि उनकी गंदे पानी से जान भी बची है। खैली बनाने की वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने से उनकी यह पहल पश्चिमी राजस्थान के 7 जिलों तक पहुंच गई है। इस वीडियो को 50 मिलियन व्यूज मिले।
एक छोटा आइडिया और बदली ओरण की रंगत
श्रवण कहते हैं, “दो साल पहले मैं इंटेक संस्था की मदद से अपने दोस्त के साथ चूरू जिले के तालछापर सेंचुरी गया था। वहां मैंने वन्यजीवों के लिए विशेषतौर पर हिरणों के लिए बनी खैली देखीं, जिनमें आसानी से हिरण ही नहीं बल्कि कोई भी जानवर पानी पी सकता है। मेरे गांव में जो खैली सरकार ने बनाई थीं, उनकी मुंडेर काफी ऊंची थी, इससे छोटे जानवर और सरीसर्प खैली में पानी कम होने की स्थिति में पानी नहीं पी पाते थे। इसीलिए मैंने तालछापर के कॉन्सेप्ट को अपने गांव में अप्लाई किया। हमने शुरूआत में धवा-डोली, जैसलमेर में खैली बनाई।”
कैसे बनती है लो-स्लोव्ड वॉटर पॉइंट?
श्रवण पटेल का खैली बनाने में सहयोग करने वाे सुनील बिश्नोई कहते हैं, “खैली बनाने के लिए एक क्षेत्र के ढलान वाले एरिया को चुना जाता है। फिर 15 फीट की रस्सी लेकर बीच में एक खूंटी लगाई जाती है और रस्सी को चारों तरफ घुमाया जाता है। इस वृत्ताकार आकृति के बीचों बीच ढाई फीट गहरा गड्ढा बनाया जाता है और फिर इसके चारों तरफ स्लोव बना दिया जाता है।खैली बनाने में करीब दो हजार ईंट लगती हैं।”
सुनील आगे बताते हैं, “ईंट लगाने से एक तो पानी जमीन में रिसता नहीं है, दूसरा हवा की वजह से ठंडा रहता है। तीसरा, इन खैली को इस तरह से डिजायन किया गया है कि इसमें कोई भी जीव-जंतु ऊंट से लेकर सांप और मधुमक्खी तक पानी पी सकते हैं।
पश्चिमी राजस्थान में साफ पानी उपलब्ध कराने और हैरिटेज संरक्षण के काम में लगी संस्था इंटेक से जुड़े यशोवर्धन शर्मा से डाउन-टू-अर्थ ने बात की। वे बताते हैं, “रेगिस्तानी इलाकों में पानी की कमी किसी से छुपी नहीं है। 2017 में ये खबरें आईं कि प्यासे हिरण सड़क पार करते हुए हादसों का शिकार हो रहे हैं। इसके बाद हमने जोधपुर के लूनावपुरा से खैली बनाने के प्रोजेक्ट शुरू किया। हमने निजी और कुछ संस्था की मदद से ग्राउंड पर कुछ कार्यकर्ता खड़े किए। इन्हीं में से श्रवण भी एक हैं।”
वे आगे कहते हैं, “हिरणों को बचाने के लिए प्रदूषित जोजरी नदी के दोनों तरफ खैली बनाने का विचार आया। 2017 से अब तक एक प्रोजेक्ट में तीन खैली और करीब 15 तालाबों का निर्माण और पुनरु्दार कराया है। इससे वन्यजीवों को पानी उपलब्ध हुआ है। आज यह अभियान बाड़मेर, जैसलमेर, जालौर जिलों तक फैल गया है।”
प्रदूषित नदी के समानांतर हर तीन किमी में बनाई खैली
मौसमी नदी जोजरी नागौर जिले के पंदलू गांव से निकलकर जोधपुर होते हए बालोतरा में लूणी नदी में मिलती है। इसकी कुल लंबाई 84 किमी है। जोधपुर के टेक्सटाइल इंड्रस्टी और सीवर की वजह से नदी का आगे का रास्ता बिलकुल प्रदूषित हो गया है। रेगिस्तानी इलाका होने की वजह से यहां के वन्यजीवों के लिए पानी का स्त्रोत भी नदी थी, लेकिन प्रदूषित होने के कारण इस पानी से हिरणों, गायों की मौत हो रही है।
श्रवण कहते हैं, “हमारे बुजुर्ग कहते हैं कि हिरणों को पानी की खुशबू आती है। इसीलिए उन्हें मौत से बचाने के लिए हमने नदी के दोनों तरफ समानांतर तीन किमी चौड़ाई और तीन किमी लंबाई में एक-एक खैली बनाई है ताकि हिरणों को पानी के लिए नदी तक नहीं जाना पड़े। ये खैली मेलबा, राजेश्वर नगर, धवा, डोली, अराबा दूदावता गांवों में बनाई गई हैं, जिनमें बड़ी संख्या में काले हिरण, चिंकारा रहते हैं।”
“एक रुपया प्रतिदिन, वन्यजीवों के नाम” अभियान से बनी सारी खैली
पिछले 8 साल से वन्यजीव संरक्षण के काम में लगे श्रवण डाउन-टू-अर्थ को बताते हैं कि शुरूआत में एक खैली बनाने के लिए हमें एक स्वयं सेवी संस्था ने फंड कर दिया, लेकिन फिर हमने वाट्सएप पर एक रुपया प्रतिदिन, वन्यजीवों के नाम से ग्रुप बनाया। इसमें एक हजार से ज्यादा सदस्य हैं। इसी राशि से हम खैली निर्माण करते हैं। साथ ही अब कई संस्था और लोग भी सामने आ रहे हैं। वे अपने गांव में चंदा या निजी दान से खैलियां बना रहे हैं। एक खैली को बनाने में 30-35 हजार रुपये खर्चा आता है। साथ ही इन्हें पानी से भरने के लिए 1500 रुपये में 5 हजार लीटर का टैंकर डलवाते हैं। शुरूआत में टैंकर हम लोग अपने पैसों से डलवाते थे, लेकिन अब कई समाजसेवी भी इस काम में आगे आ रहे हैं।
यशोवर्धन कहते हैं, ‘एक रुपया प्रतिदिन-वन्यजीवों के नाम’ आइडिया मैंने ही श्रवण को दिया और अब यह आइडिया पूरा अभियान बन गया है। कई इलाकों में ग्रामीणों ने ही चंदा इकट्ठा कर के खैली बनाई हैं। पश्चिमी राजस्थान में वन्यजीवों खासकर चिंकारा, काले हिरणों के लिए समुदायों का नैसर्गिक प्रेम इन सभी कामों की जड़ है।”