कोटरी नदी को पार करने के लिए नाव पर सवार होना लाजिमी है। फोटो: अंकुश तिवारी 
जंगल

छत्तीसगढ़ रिपोर्टर डायरी- एक: अबूझमाड़ क्या अब नहीं रहा 'अबूझ'?

छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ के गांव सालों से “अबूझ” पहेली बने हुए हैं लेकिन डाउन टू अर्थ ने इन जंगल पहाड़ों में बसे गांवों का दौरा किया है और पाया कि अब भी इनकी स्थिति जस की तस बनी हुई है यानी यहां अब भी सरकारी विकास की अवधारणा आदिवासियों से कोसों दूर है

Anil Ashwani Sharma

आपको तैरना आता है? यह सवाल कोटरी नदी (छत्तीसगढ़ के सबसे अधिक नक्सल प्रभावित कांकेर जिले के छोटे बेठिया थाना क्षेत्र में बहती है) पर लकड़ी की दो टूटी-फूटी डोंगियों को जैसे-तैसे रस्सी से बांध कर चलाने वाले एक युवा आदिवासी मंगू ने तेज आवाज में पूछा।

उस पार जाने के लिए काफी देर से खड़े एक ग्रामीण के हां कहने पर मंगू ने उसे नाव के एक छोर पर बैठने के लिए नहीं, बल्कि खड़े होने का निर्देश दिया। कारण कि इस नाव पर संतुलन बनाने के लिए सवारियों के भार के हिसाब से इधर-उधर बैठाया जाता है।

इस नाव की लकड़ी पानी के झटकों के कारण कई स्थानों पर कट गई है। साथ ही नाव के कई हिस्से में छेद हो गए हैं। यही कारण है कि नाव में कई थालियां इधर-उधर पड़ी हुई हैं। नाव में जब पानी भर जाता है तो उसे बाहर निकालने का काम भी सवारियों को सौंपा जाता है।

इस नाव पर इंसानों के अलावा गाय, भैंस, बकरी, मुर्गा से लेकर साइकिल और कई बार बाइक भी पार कराई जाती है।

यह दृश्य तब है, जब छत्तीसगढ़ ने अपने राज्य का दर्जा पाने की रजत जयंती इसी माह मनाई है। राज्य का दर्जा मिलने के 25 साल पूरे होने पर राजधानी में भव्य पैमाने पर एक हफ्ते तक रजत जयंती समारोह मनाया गया।

कोटरी नदी से राज्य स्तरीय समारोह 287 किलोमीटर दूर है लेकिन यहां की स्थिति वैसी ही है, जैसे 25 साल पहले थी। छत्तीसगढ़ के राज्य बनने के पहले जब यह मध्य प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था, आज भी उसी स्थिति में स्थिर सा है।

कोटरी नदी एक विभाजक रेखा जैसी है। इस नदी को पार करने का मतलब यह है कि आप छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्र यानी बस्तर के अबूझमाड़ इलाके में पहुंच गए हैं, जहां सैकड़ों सालों से सरकारी योजनाएं नहीं पहुंच पाई हैं।

विभाजित विकास की झलक इस नदी को पार करने के तौर-तरीकों को देख कर ही मिल जाती है। अब तक इस नदी पर पुल तो दूर की बात है, एक रप्टा (अस्थायी कच्चा पुल) तक नहीं बनाया गया है। इतनी कमियों के बाद भी यहां के माहौल में निराशा कम ही दिखती है।

डोंगी को आरपार ले जाने के लिए काम कर रहे दो युवाओं में से एक सोमा ने ‘डाउन टू अर्थ’ को बताया कि यहां पर हम सभी गांव वाले बारी-बारी से यह काम करते हैं। ग्राम सभा में बकायदा इस पर चर्चा होती है और उसके बाद गांव के हर घर को इसमें भागीदारी मिलती है।

वह कहते हैं कि महीने के तीस-इकतीस दिनों के अंतराल में गांव के हर घर के सदस्य को नाव चलाने का मौका मिलता है। यह नाव गांव वालों के लिए आय का स्रोत है। कह सकते हैं कि यह एक प्रकार से सहकारी कार्य है जिसमें हर आदमी को कार्य करने का मौका मिलता है।

डोंगी चलाने वाले दूसरे नाविक मंगू कहते हैं कि साल के दो माह (अप्रैल-मई) यहां पानी बहुत कम हो जाता है, जब नाव नहीं चलाई जा सकती है, तब हम पूरी तरह से उस पार से कट जाते हैं।
अबूझमाड़ के कंदाड़ी गांव जाने के लिए डोंगी पर सवार बुजुर्ग अमीन मड़िया अपने झोले में किराने का सामान लिए हुए हैं, वह डाउन टू अर्थ को बताती हैं कि मैं बचपन से ही डोंगी पर सवार होकर इस पार नोन-तेल (नमक तेल) लेने आती-जाती रही हूं।

वह बताती हैं कि सुबह एक मुर्गा झोला में डाल कर घर से निकली थी। अब शाम को लौटना हो पा रहा है। कारण यह कि कई बार नदी पार करने में ही घंटों लग जाते हैं। डोंगी एक और आर-पार जाने वालों की संख्या सैकड़ों में होती है।

ऐसे में कई बार लंबा इंतजार करना पड़ जाता है। मुर्गा कितने में बिक जाता है? पूछने पर वह मायूसी से कहती हैं कि कभी तो ठीक भाव मिल जाता है, कभी तो कोचिया (दलाल) लूट लेता है। वह ठीक से भाव नहीं दिलाता है।

नाव पर ही साइकिल पकड़े युवा मनका गोंड ने बताया कि वह यह जानकारी लेने गया था कि महीने में दिया जाने वाला राशन कब मिलेगा। क्या पता चला? पूछने पर उनका जवाब था, “राशन देने वाले ने कहा कि अभी दो माह बाद आना।”

ध्यान रहे कि इन गांवों में पांच किलो अनाज हर माह न देकर एक साथ ही चार-चार माह का देते हैं, ताकि आदिवासियों को बार-बार कस्बा न आना पड़े। खास कर बारिश के समय में और मुश्किल होती है। हालांकि इनका आरोप है कि सरकारी लोग कहते हैं कि हम आपकी सुविधा के लिए एक साथ चार माह का अनाज देते हैं।

वास्तविकता यह है कि चार माह का राशन देते समय राशन वाले हमें कम तौल कर देते हैं। हम देखते हैं कि तराजू बराबर नहीं रहता। हम तराजु को देखने की कोशिश करते हैं तो सरकारी कर्मचारी अनाज को फटाफट हमारे कपड़े पर उलट देते हैं।

हमारे सवाल पूछने पर कहते हैं कि इतना मिल रहा है, ये कम है क्या? इस आरोप पर डोंगी में बैठे अन्य आदिवासियों ने भी हामी भरी।

बीच मझधार में पहुंचने पर नदी का प्रवाह तेज होने से नाव डगमगाने लगी, लेकिन जल्दी ही संतुलन बनाने के लिए डोंगी चलाने वाले नाविक और अन्य चार-पांच आदिवासी जल्दी ही नदी में कूद कर डोंगी को किनारे लगाने के लिए उनकी मदद करने लगे।

नाव डगमगाने के बावजूद डोंगी पर सवार किसी भी व्यक्ति के चेहरे पर शिकन नहीं थी। उनके लिए यह खतरा रोजमर्रा की बात है। नाव के किनारे लगते ही नाविकों ने एक-एक करके सबसे पैसे लिए। वे इकट्ठे किए हुए पैसे को एक प्लास्टिक के डिब्बे में रखते हैं ताकि वह पानी से गिला न हो जाए।

डोंगी से नदी पार करने वाले एक सवार से दस रुपए, साइकिल का दस रुपए और बाइक का पचास रुपए शुल्क लिए जाते हैं। नदी के इस पार का यह इलाका अबूझमाड़ की शुरुआत मानी जाती है।

जारी ...