छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले की कोटरी नदी पार करते ही अबूझमाड़ इलाके के पहले गांव कांदाड़ी की सीमा शुरू हो जाती है। यह इलाका माओवादी आतंक का पर्याय माना जाता रहा है। इसलिए सिविल ड्रेस में कई स्थानों पर सुरक्षा कर्मी जहां-तहां नदी के पहले और उसके पार करने व गांव में घुसने वाले नए लोगों पर दूर से ही नजर रखते हैं।
नदी पार करते ही अबूझमाड़ के घने जंगल अवश्य दिखाई पड़ते हैं, लेकिन अब इनकी स्थिति धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही है। क्योंकि नदी के इस पार बड़ी मात्रा में अवैध रूप से रेत खनन किया जा रहा है।
इसके कारण नदी के जल स्तर और जंगल के बीच लगभग नौ से 10 फीट का अंतर पैदा हो गया है, यानी इतनी मात्रा में रेत निकाली जा चुकी है। इसके चलते नदी किनारे से जंगल तक पहुंचने के लिए बकायदा एक चढ़ाई करनी पड़ती है।
रेत खनन का यह सिलसिला अनवरत रूप से चल रहा है। हालांकि, यहां ध्यान देने की बात है कि यह रेत नदी किनारे बसे कंदाड़ी गांव में उपयोग नहीं की जा रही है, बल्कि इसे अवैध रूप से नदी के दूसरे पार ले जाया जा रहा है।
सिर पर घर के सामान का बोझा लिए युवा आदिवासी पड्टा ने डाउन टू अर्थ को बताया कि सूरज ढलते ही यहां से रेत निकालने का काम शुरू हो जाता है। यह सिलसिला अल सुबह तक चलता है। वह बताते हैं कि इससे हमारे गांव के जंगल बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं।
वह नदी के किनारे दर्जनों वृक्षों को दिखाते हुए कहते हैं कि बताइए, रेत निकालने के कारण वृक्षों की दस फीट नीचे तक की जड़ें दिखने लगी हैं। वह कहते हैं कि कुछ ही दिनों में आंधी में यह पेड़ गिर जाएगा। साथ ही मिट्टी के काटव को रोकने के लिए लगे ये पेड़ धीरे-धीरे कम होते जाएंगे। इससे नदी के पाट और बढ़ते जाएंगे।
वह कहते हैं कि इस संबंध में हमने गांव की सरपंच से भी शिकायत की, लेकिन अब तक उन्होंने इस संबंध में ग्राम सभा नहीं बुलाई है। डाउन टू अर्थ, इस समस्या पर बात करने के लिए गांव की सरपंच के घर पहुंचा, लेकिन उनके घर पर ताला लगा हुआ था।
जंगलों के वृक्षों की दिखती जड़ों से अकेले पड्टा ही दुखी नहीं हैं बल्कि कांदाड़ी के पास के दूसरे गांव खैरी पदा के निवासी सोमा भी कहते हैं कि इसके कारण नदी का पाट पिछले पांच वर्षों में लगभग दस फिट और चौड़ा हो गया है। वह बताते हैं कि जैसे-जैसे रेत खनन की जा रही है, उसी रफ्तार से जंगल के वृक्ष आंधी में गिरते जा रहे हैं और नदी का पाट लगातार बढ़ते जा रहा है।
सोमा बताते हैं कि हर साल वर्षाकाल शुरू होता है तो राज्य सरकार द्वारा नदी-नालों से रेत खनन पर दस जून से लेकर 15 अक्टूबर तक पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाता है। इसके बावजूद यहां खनन का सिलसिला हमेशा जारी रहता है।
कई ग्रामीणों ने कहा कि नदी के पार कांकेर जिले की पखांजूद तहसील में जितने भी निर्माण कार्य हो रहे हैं, वे सभी यहीं की रेत से किए जा रहे हैं। इस संबंध में राज्य की नदियों के संरक्षण के लिए चलाए जा रहे ‘नदी बचाओ अभियान’ के गौतम बंद्योपाध्याय ने डाउन टू अर्थ को बताया कि इस बात का हमेशा ध्यान रखना होगा कि रेत नदी को बनाती है, नदी रेत नहीं बनाती।
गांव के मुहाने पर ही घोटुल (आदिवासी समुदाय की चौपाल) बना हुआ है। बाहरी लोगों को गांव के अन्य हिस्से में जाने के लिए बकायदा अनुमति के लिए पांच घंटे से अधिक इंतजार करना पड़ा। अनुमति मिलने के बाद ही जा पाए। हालांकि घोटुल के सामने से गुजरने वाले कई युवा आते-जाते रहे और अपना अनुभव ‘डाउन टू अर्थ’ से साझा करते रहे।
ज्यादातर आदिवासियों का कहना है कि यहां पर एक साल पहले ही प्रधानमंत्री रोजगार गारंटी योजना के तहत सड़क का निर्माण हुआ है, लेकिन देखने वाली बात ये है कि देशभर में इस योजना के तहत बनने वाली सड़कें अधिकांशत: पक्की डामर वाली होती हैं। लेकिन यहां कच्ची सड़क बनाई है। ज्यादातर ग्रामीणों ने कहा कि यह पहाड़ी और ऊबड़-खाबड़ वाला इलाका है और यहां हर दस कदम पर नाले-नालियां हैं।
इसे पाटने या इस पर छोटे-छोटे पुलिया बनाने की जरूरत है। यहां जिस सड़क का निर्माण किया गया है वह एक तो कच्ची है और बारिश के समय में तो इस पर चलना भी नामुमकिन हो जाता है, साथ ही इस सड़क पर मौजूद एक भी नालों पर पुलिया का निर्माण नहीं किया गया है।
आदिवासी क्षेत्रों में बसे गांवों का क्षेत्रफल बहुत बड़ा होता है, और एक घर से दूसरे घर की अच्छी-खासी दूरी होती है। घना जंगल होने के कारण बाहरी आदमी आसानी से इस जंगल में गुम हो जाएगा। ऐसा नहीं है कि इस गांव में सरकारी योजनाओं का प्रवेश नहीं हुआ है।
लेकिन, गांव को देखकर लगता है कि बस ये चीजें इसलिए बना दी गईं ताकि सरकारी आंकड़ों में दिखाया जा सके कि यहां शौचालय बन गए हैं, पेयजल की व्यवस्था हो गई और गांव की सड़कें बन गई हैं। लेकिन जब डाउन टू अर्थ ने गांव का चक्कर लगाया तो पाया कि शौचालय किसी भी घर में नहीं है।
बस घोटुल के पास ही जीर्ण-शीर्ण अवस्था में एक शौचालय दिखा। यह भी इसलिए पता चला कि टूटे-फूटे एक कमरे के बाहर शौचालय लिखा देखा। इसी प्रकार से पेयजल के नाम पर एक टूटा-फूटा बिना हैंडल का हैंडपंप दिखाई पड़ा।
ग्रामीणों ने बताया कि यह दो साल पहले लगाया था, लेकिन इसमें कभी पानी नहीं आया है। यह हैंडपंप गांव के एक कोने में ठूठ बन कर खड़ा है और इस बात का संकेत दे रहा है कि इस आदिवासी गांव में कथिततौर पर पेयजल की व्यवस्था हो गई है।
जारी...