छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदाय के लिए वनाधिकार के तहत हासिल सामुदायिक वन प्रबंधन अधिकार (सीएफआरआर) असली आजादी है। इसे कामेपुर गांव के उदाहरण से समझा जा सकता है। जंगल यहां के ग्रामीणों की जीवरेखा है।
सीतानदी टाइगर रिजर्व के बफर जोन में शामिल कामेपुर गांव की वन संसाधन प्रबंधन समिति के अध्यक्ष उदयराम नेताम कहते हैं कि 2015 में गांव के 2,366 हेक्टेयर जंगल का सामुदायिक वनाधिकार (सीएफआर) था, लेकिन 2021 में उसे सीएफआरआर में बदल दिया गया और क्षेत्र भी बढ़ाकर 3,304 हेक्टेयर कर दिया गया। उदयराम नेताम कहते हैं कि सीएफआर में केवल चारे पर ग्रामीणों का अधिकार था, वनोपज और वन प्रबंधन पर नहीं। सीएफआरआर मिलने से ये अधिकार उन्हें हासिल हो गए हैं जो ग्रामीणों के लिए असली आजादी थी।
उदयराम नेताम कहते हैं कि सीएफआरआर से वनोपज पर अधिकार मिलने के बाद ग्रामीण हर गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर जंगल में ध्वजारोहण करते हैं क्योंकि इस अधिकार की अहमियत उनके लिए बहुत मायने रखती है। उनका कहना है कि ग्रामीणों को पूरे साल कोई न कोई वनोपज मिलती है, जैसे जनवरी में पातालकुंभड़ा, भिलवा, महुआ, तेंदू फल, तेंदूपत्ता, चार, साल बीज, जंगली मशरूम, भुई नीम, आंवला, बाइबिडिंग और माहुल पत्ता आदि शामिल हैं। इनसे ग्रामीणों आजीविका मजबूत होती है। गांव से पलायन शून्य होने की वनोपज से आय मुख्य वजह है।
कामेपुर की वन संसाधन प्रबंधन समिति के सचिव रामेश्वर कपिल कहते हैं कि मौजूदा समय में जंगल में लकड़ी की कटाई पूरी तरह बंद हो गई है। वह बताते हैं कि समिति ने वन विभाग को भी पेड़ों को काटने की इजाजत नहीं दी है, जिससे वन विभाग उनसे नाराज है। रामेश्वर कपिल का मानना है कि ग्रामीणों की 60-70 प्रतिशत आय वनोपज से होती और शेष 30 प्रतिशत कृषि से होती है। वह कहते हैं सीएफआरआर ने कामेपुर के ग्रामीणों की आर्थिक स्वतंत्रता दी है और इसीलिए ग्रामीणों के लिए जंगल की आजादी उनकी जीवरेखा है।
राइट्स एंड रिसोर्स इनिशिएटिव द्वारा जुलाई 2015 में प्रकाशित रिपोर्ट “पोटेंशियल फॉर रिकग्निशन ऑफ कम्यूनिटी फॉरेस्ट रिसोर्स राइट्स अंडर इंडियाज फॉरेस्ट राइट एक्ट” में पाया गया था कि देश भर में कम से कम 4 करोड़ हेक्टेयर वन भूमि सीएफआरआर के लिए पात्र है।
रिपोर्ट के अनुसार, कम से कम 15 करोड़ लोग (जिनमें लगभग 9 करोड़ आदिवासी शामिल हैं) ऐसे समुदायों में रहते हैं जिन्हें सीएफआरआर से लाभ होगा। देश में ऐसे 120 जिले हैं जो ज्यादातर मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में स्थित हैं। इनमें 40 प्रतिशत से अधिक आबादी ऐसे गांवों में रहती है जिनके पास वन भूमि है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत के कम से कम एक चौथाई (1,70,000) गांव सीएफआरआर के लिए पात्र हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, सरकार 4 करोड़ हेक्टेयर वन भूमि को ग्राम सभाओं के अधिकार क्षेत्र में लाकर आदिवासियों की रचनात्मक क्षमता को उजागर कर सकती है, जिससे वन क्षेत्रों में पारिस्थितिकी बहाली, सामुदायिक संरक्षण, आजीविका सृजन और विकास को बढ़ावा मिलेगा।
गरियाबंद जिले में आदिवासी समुदाय को सीएफआरआर दिलाने में अहम भूमिका निभा रहे गैर लाभकारी संगठन खोज के सचिव बेनीपुरी गोस्वामी डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि व्यक्तिगत वनाधिकार और सामुदायिक वनाधिकार यूजर राइट देते हैं जबकि सीएफआरआर प्रबंधन, संरक्षण और पुनर्जनन का दायित्व सौंपता है और यह सबसे महत्वपूर्ण है। वन विभाग जंगल टिंबर की दृष्टि से देखता है, जबकि समुदाय आजीविका और एनटीएफपी (नॉन टिंबर फॉरेस्ट प्रॉड्यूस) के हिसाब से वनों को देखता है। वह बताते हैं कि इसी कारण सीएफआरआर वाले गांवों में जंगल में आग की बेहतर प्रबंधन है। उनका यह भी कहना है कि कई ग्राम सभाओं ने अपने गांव के जंगल में कई कई साल आग नहीं लगने दी जिससे नई वनोपज पनपी और उसने ग्रामीणों की आजीविका को मजबूत किया।
गरियाबंद के मंडल वनाधिकारी लक्ष्मण सिंह भी मानते हैं कि वनों का संरक्षण जरूरी है। और जब संरक्षण होता है, तब सब चीजें अपने आप बढ़ने लगती हैं। वह कहते हैं कि वनोपज पर निरंतरता को बनाए रखने के लिए यह अधिकार तब मिलता है जब ग्रामसभा प्रबंधन का आश्वासन देती है।
बेनीपुरी गोस्वामी कहते हैं कि वनाधिकार के तहत कोई भी अधिकार चाहे वह व्यक्तिगत हो, सामुदायिक हो या सीएफआरआर कोई भी अधिकार आसानी से नहीं मिलता। उदंती सीतानदी टाइगर रिजर्व के कोर गांवों में तो यह और मुश्किल है। कामेपुर गांव में तो सीएफआरआरएमसी और वन विभाग के बीच अब तक तनातनी है क्योंकि उन्होंने वन विभाग को जंगल से लकड़ी नहीं काटने दी। सामुदायिक वन प्रबंधन समिति के सचिव रामेश्वर कपिल कहते हैं कि वन विभाग हमें अपना दुश्मन मानता है क्योंकि सीएफआरआर के तहत जंगल का बड़ा हिस्सा उनके हाथ से चला गया है।