इस बार “इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2023” एक बहुत ही उत्साह देने वाले शीर्षक के साथ सामने आई है। इसमें कहा गया कि बीते दो वर्षों में देश के वन और वृक्ष आवरण में 1,445 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोतरी हुई,जो अब देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 25.17 प्रतिशत है। हालांकि, दो साल में एक बार प्रकाशित होने वाली इस रिपोर्ट का विश्लेषण देश में वनों की स्थिति को लेकर एक चिंता पैदा करने वाली असलियत उजागर करता है।
रिपोर्ट के मुताबिक कुल वन क्षेत्र में बढ़ोतरी में से केवल 11 प्रतिशत (156.41 वर्ग किलोमीटर) को वन क्षेत्र की वृद्धि के रूप में दर्ज किया गया है। इन्हें ऐसे क्षेत्रों के रूप में परिभाषित किया गया है जहां कैनोपी यानी छायादार वनों का घनत्व 10 फीसदी या उससे अधिक है और जो कम से कम एक हेक्टेयर के क्षेत्र में फैले हुए हैं। बाकी 89 प्रतिशत वृद्धि “वृक्ष आवरण” के बेहतर आंकड़ों से जुड़ा हुआ है, जिसमें ऐसे पेड़ या हरित जमीनी टुकड़े शामिल हैं जो रिकॉर्ड किए गए वन क्षेत्रों के बाहर हैं, साथ ही एक हेक्टेयर से कम आकार के क्षेत्रों में फैले हुए हैं।
वर्ष 2023 में वन आवरण में वृद्धि मात्र 0.02 प्रतिशत थी, जो 2021 की तुलना में न के बराबर है। कर्नाटक के पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक बीके सिंह के मुताबिक,“यह वृद्धि पिछले दशक में देखी गई औसत वार्षिक वृद्धि 0.23 प्रतिशत के मुकाबले बहुत कम है।” इसके अलावा दर्ज किए गए वन क्षेत्रों के भीतर मात्र 7.28 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि दर्ज हुई है, जो सरकारी रिकॉर्ड में “वन” के रूप में वर्गीकृत सभी क्षेत्रों को संदर्भित करता है। इसमें मुख्य रूप से आरक्षित और संरक्षित वनों के साथ ही राजस्व दस्तावेजों में दर्ज या राज्य के कानूनों के तहत “वन” के रूप में आधिकारिक तौर पर परिभाषित किए गए गांव के वन शामिल हैं। शेष 149.13 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि रिकॉर्ड किए गए वन क्षेत्रों के बाहर है जो राज्य वन विभागों के अधिकार क्षेत्र से भी बाहर है।
रिपोर्ट पहली बार वन आवरण परिवर्तन मैट्रिक्स के माध्यम से वनों की गुणवत्ता में चिंताजनक परिवर्तनों को उजागर करती है। मैट्रिक्स एक संरचित डेटा तालिका है, जिसका उपयोग अलग-अलग घटकों के बीच संबंधों या बदलावों को दर्शाने के लिए किया जाता है। वन आवरण परिवर्तन मैट्रिक्स वनों के विभिन्न श्रेणियों के बीच हुए बदलाव को ट्रैक करता है। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) ने वनों को चार श्रेणियों में बांटा है। पहला अत्यधिक घनत्व वाले वन (डेंस फॉरेस्ट) यानी जिनका कैनोपी घनत्व 70 प्रतिशत या उससे अधिक हो, दूसरा मध्यम सघन वन (मॉडरेटली डेंस फॉरेस्ट) जिसका कैनोपी घनत्व 40-70 प्रतिशत हो। वहीं, तीसरा खुला वन (ओपन फॉरेस्ट) है जिसका कैनोपी घनत्व 10 से 40 फीसदी होता है। इसके बाद आखिर में झाड़ीदार क्षेत्र (स्क्रब) आते हैं, यह ऐसे वन क्षेत्र हैं जिनका कैनोपी घनत्व 10 प्रतिशत से कम हो और जिनमें झाड़ियां पेड़ों के साथ मिलकर होती हैं।
ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2021 और 2023 के बीच दर्ज किए गए वन क्षेत्रों के 9,500 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र गैर-वन क्षेत्र में बदल गए। इसमें अत्यंत सघन वन श्रेणी में 231.18 वर्ग किलोमीटर मध्यम सघन वन श्रेणी में 2,246.83 वर्ग किलोमीटर और खुले वन श्रेणी में 5,451.31 वर्ग किलोमीटर और झाड़ीदार वन श्रेणी में 1,578.35 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र शामिल हैं। हालांकि, इसी रिपोर्ट में वन घनत्व में उल्लेखनीय वृद्धि का दावा भी किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक 44.43 वर्ग किमी गैर-वन क्षेत्र “बहुत घने” वन में बदल गया, जबकि 481.13 वर्ग किमी ओपन फॉरेस्ट “बहुत घने” वन में बदल गए (देखें, संदेह पैदा करने वाला सच)। हालांकि, विशेषज्ञ इन बड़े बदलावों पर सवाल उठाते हैं। संरक्षण पारिस्थितिकीविद् एम.डी. मधुसूदन के मुताबिक, “गैर-वन क्षेत्र का दो वर्षों के भीतर बहुत घने वन में बदल जाना पारिस्थितिक रूप से असंभव है।” वह कहते हैं “फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया इन तेजी से हुए परिवर्तनों के लिए कोई व्याख्या भी नहीं देता।”
सिंह रिपोर्ट के तथ्य को उजागर करते हुए इस पर सवाल उठाते हैं। उनका मानना है कि अधिकतम दो वर्षों में वन घनत्व केवल एक श्रेणी तक सुधार सकता है। मिसाल के तौर पर “मध्यम सघन वन” कड़े उपायों के साथ “अत्यधिक सघन वन” बन सकता है लेकिन एक गैर-वन इतनी कम अवधि में “अत्यधिक सघन वन” नहीं बन सकता।
हरित आवरण और घनत्व में हुए इस बड़े बदलाव के पीछे की प्रबल संभावना यह है कि दर्ज किए गए वन क्षेत्रों में कृषि भूमि को भी वन आवरण के रूप में गिना जा रहा है। मधुसूदन का कहना है, “ऐसे क्षेत्रों को वन क्षेत्र से बाहर किया जाना चाहिए क्योंकि वे वास्तविक वन आवरण नहीं रखते।”
कई गांव जो दर्ज वन क्षेत्रों के भीतर स्थित हैं, उनमें अनुसूचित जनजाति और वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम, 2006 (एफआरए) के प्रावधान अभी तक पूरी तरह से लागू नहीं किए गए हैं। इसलिए वे अब तक राजस्व भूमि में परिवर्तित नहीं हुए हैं और अभी भी दर्ज वनों के रूप में ही गिने जा रहे हैं। यदि गैर-वन क्षेत्र (198,385.35 वर्ग किमी) को हटा दिया जाए तो देश का दर्ज वन क्षेत्र घटकर 542,877.46 वर्ग किमी ही रह जाएगा।
भारत के कुल वन आवरण में 2013 और 2023 के बीच 2.38 प्रतिशत की वृद्धि हुई लेकिन कम से कम 11 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कमी दर्ज की गई। पूर्वोत्तर भारत सबसे अधिक संवेदनशील क्षेत्र बना हुआ है,जहां असम और सिक्किम को छोड़कर आठ में से छह राज्यों में वन आवरण में गिरावट देखी गई। ऐसा नहीं है कि हाल ही के वर्षों में भारत ने ऐसी गिरावट देखी है। स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट (एसओएफआर) 1997 के मुताबिक 1950 से 1980 के बीच भारत ने लगभग 45 लाख हेक्टेयर जंगल खो दिए। इसके अलावा, 1987 में वन मूल्यांकन शुरू होने से लेकर 1997 तक भारत ने अपनी हरित संपदा विशेष रूप से उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में खोना जारी रखा।
अब ताजा वन आकलन रिपोर्ट में भी इसी ओर इशारा है। अरुणाचल प्रदेश ने देश में सबसे बड़ी कमी दर्ज की है, जहां वन आवरण 1,000 वर्ग किमी से अधिक घट गया। यह 2013 के वन आवरण का 1.62 प्रतिशत है। इसके बाद मिजोरम का स्थान है, जिसने 987.70 वर्ग किमी या 2013 के अपने वन क्षेत्र का 5.2 प्रतिशत वन आवरण खो दिया। नागालैंड में 794 वर्ग किमी की कमी हुई, जो 2013 के वन आवरण का 6.11 प्रतिशत है।
यहां तक कि पश्चिमी घाट ने भी पिछले एक दशक में 58.22 वर्ग किमी का वन आवरण खो दिया। छह राज्यों में फैले 45 पश्चिमी घाट जिलों में से 25 ने गिरावट दर्ज की। तमिलनाडु के नीलगिरी जिले ने 2023 में 2013 की तुलना में 123.44 वर्ग किमी का नुकसान किया, इसके बाद केरल के इडुक्की जिले (97.44 वर्ग किमी) और पुणे (82.65 वर्ग किमी) का स्थान है।
दिल्ली स्थित थिंक टैंक विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के जलवायु और पारिस्थितिकी टीम के प्रमुख देबादित्य सिन्हा कहते हैं, “जैव विविधता वाले ऐसे हॉटस्पॉट्स जो अपनी प्राकृतिक पुरानी वन संरचनाओं के लिए जाने जाते हैं, उनका तेजी से क्षरण हो रह है। इनमें प्राकृतिक वनों की गुणवत्ता और मात्रा तेजी से घट रही है।”
सरकार के वन संरक्षण प्रयासों के बावजूद वनों का तेजी से क्षरण हो रहा है। केरल की पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक प्रकृति श्रीवास्तव कहती हैं, “वनीकरण, दोबारा वनीकरण और पारिस्थितिकीय बहाली पर करोड़ों रुपए का निवेश करने के बावजूद वनों की स्थिति बिगड़ रही है।”
वर्ष 2014 में वनों की स्थिति सुधारने के लिए ग्रीन इंडिया मिशन शुरू किया गया था। इसके तहत 2019-20 से 2023-24 के बीच राज्यों को 624.71 करोड़ रुपए दिए गए। गौर करने वाली बात है कि यह कई अन्य केंद्रीय और राज्य योजनाओं के अतिरिक्त है जो वनीकरण और पारिस्थितिकी पुनर्स्थापन के उद्देश्य से चलाई जा रही हैं।
श्रीवास्तव कहती हैं कि मिसाल के तौर पर मध्य प्रदेश को ग्रीन इंडिया मिशन के तहत 88.92 करोड़ रुपए प्राप्त हुए फिर भी 2011 से 2021 के बीच 5,353.22 वर्ग किमी जंगल खराब हो गए हैं। ओडिशा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। ओडिशा ने ग्रीन इंडिया मिशन के तहत पिछले पांच वर्षों में 74.91 करोड़ रुपये का उपयोग किया, जबकि 79 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। इसके बावजूद, लगभग 1,600 वर्ग किमी जंगल खराब हो गए।
श्रीवास्तव ने आगे कहा, “ऐसा लगता है कि फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया और केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम के तहत निजी एजेंसियों को लाभ पहुंचाने के लिए वनों के डायवर्जन को बढ़ावा दे रहे हैं। वह इसे वनीकरण और वनों के संवर्द्धन के उपकरण के रूप में पेश कर रहे हैं और ग्रीन क्रेडिट्स के माध्यम से वनों के डायवर्जन के छिपे हुए एजेंडे को छिपा रहे हैं।”
ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम का उद्देश्य है कि राज्य वन विभाग के तहत आने वाली खराब भूमि के टुकड़ों की पहचान हो और उन्हें निजी एजेंसियों और निवेशकों के फंडिंग के माध्यम से वृक्षारोपण के लिए खोला जाए। इसके बदले में निवेशकों को ग्रीन क्रेडिट्स दिए जाते हैं, जो गैर-वन उद्देश्यों के लिए वनों के डायवर्जन के लिए अनिवार्य वनीकरण अनुपालन के रूप में उपयोग किए जाएंगे।
2023 की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 10 वर्षों में खराब हुई 91,024.93 वर्ग किमी भूमि (जिसे वन के रूप में पहचाना गया है) में लगाए गए प्रत्येक पेड़ के लिए एक क्रेडिट दिया जाएगा। इन क्रेडिट्स का व्यापार करके गैर-वन गतिविधियों के लिए वनों का डायवर्जन किया जाएगा।
यह प्रक्रिया खामियों से भरी है क्योंकि वृक्षारोपण की सफलता को सिर्फ दो वर्षों में आंका नहीं जा सकता। वृक्षारोपण की विफलता के बावजूद यह वन डायवर्जन का रास्ता साफ करेगी। श्रीवास्तव का कहना है कि यह योजना केवल उपयोगकर्ता एजेंसियों को लाभ पहुंचाने के लिए बनाई गई है जबकि इसका नुकसान वनों को झेलना पड़ रहा है।
श्रीवास्तव कहती हैं, “यह प्रक्रिया न केवल डायवर्ट किए गए वनों के नुकसान का कारण बनती है बल्कि उस गैर-वन भूमि का भी नुकसान करती है, जिसे अन्यथा अनिवार्य वनीकरण के लिए चिह्नित किया गया होता।”
सिन्हा कहते हैं कि समस्या की जड़ यह है कि वर्तमान वन मूल्यांकन की पद्धति प्राकृतिक और मानव-निर्मित वन आवरण के बीच अंतर करने में असमर्थ है। यह एक गंभीर समस्या है क्योंकि वृक्षारोपण (प्लांटेशन) प्राकृतिक वनों द्वारा प्रदान की जाने वाली पारिस्थितिकीय सेवाओं, जैव विविधता और कार्बन अवशोषण के लाभों की बराबरी नहीं कर सकता।
डाउन टू अर्थ ने भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) के महानिदेशक को इस पद्धति पर स्पष्टीकरण मांगते हुए ईमेल भेजा था। हालांकि पत्रिका के प्रकाशित होने तक कोई उत्तर नहीं मिला।
हर राज्य और केंद्र शासित प्रदेश नियमित रूप से वृक्षारोपण अभियान चलाते हैं लेकिन रिपोर्ट यह स्पष्ट नहीं करती कि ये वृक्षारोपण वन आवरण को बढ़ाने में सफल रहे हैं या असफल। सिंह का कहना है कि इससे बेहतर तरीका यह होगा कि यह दर्शाया जाए कि मौजूदा प्राकृतिक वनों का कितना हिस्सा सख्त संरक्षण उपायों या कृत्रिम पुनर्जनन प्रयासों के माध्यम से उच्च घनत्व श्रेणियों में पहुंचा है।
जब तक यह स्पष्ट नहीं होता तब तक देश वृक्षारोपण और वनों के बाहर के वृक्ष आवरण से हुए हरित आवरण में वृद्धि का उत्सव मनाता रहेगा जबकि प्राकृतिक वन लगातार खराब होते रहेंगे।