खान-पान

सरकार की लापरवाही से जीएम उत्पादों की भरमार

भारत में जीएम खाद्य उत्पादों का आयात, निर्यात, उत्पादन और वितरण स्वीकृत नहीं है।

DTE Staff

सीएसई की पड़ताल इस मामले में सरकार की कमियों को भी उजागर करती है। अब तक सरकार ने इस मामले में बहुत एहतियात बरतते हुए ही जीएम फसलों के व्यावसायिक उत्पादन को अनुमति नहीं दी है। ऐसा सिविल सोसाइटी के लगातार दबाव की वजह से हो पाया है।

1990 में पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अंतर्गत गठित की गई जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रैजल कमिटी (जीईएसी) द्वारा बीटी बैंगन एवं जीएम सरसों के व्यावसायिक उत्पादन की भी अनुमति प्रदान कर दी थी पर इसके बावजूद सरकार इस दिशा में कोई प्रयास नहीं पाई। लेकिन संसाधित और पैक किए गए खाद्य उत्पादों के लिए अनुमोदन प्रक्रिया में दरारें होने के कारण जीएमओ खाद्य पदार्थों का भारत में आने का रास्ता साफ हो चला है।

खाद्य सुरक्षा एवं संरक्षण अधिनियम के अनुच्छेद 3 के अनुसार “खाद्य पदार्थ” की श्रेणी में वह हर वस्तु आती है जो मानव उपभोग के लिए बनी हो, चाहे वह प्रसंस्कृत हो या नहीं। जीएम खाद्य पदार्थ भी इसी श्रेणी में आते हैं। इससे यह साफ होता है कि जहां तक भारत में जीएम खाद्य पदार्थों के विनियमन का सवाल है, उसके लिए जिम्मेदार एकमात्र संस्था एफएसएसएआई ही है। किन्तु केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अंतर्गत वर्ष 2006 में इसका गठन होने के बाद से ही यह लगातार अपनी जिम्मेदारी से भागती आ रही है (देखें, व्यवस्था में खामियां)।

जहां एफएसएसएआई जान बूझकर अंजान बनी रही वहीं, 2007 से 2018 के बीच जीईएसी ने तीन जीएम प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को मंजूरी दी है। वे हैं डोरिटोज के टोर्टिया चिप्स, कनौला तेल एवं सोयाबीन तेल। साफ तौर पर एफएसएसएआई ने न तो इन मानकों को निर्धारित करने में कोई खास समय दिया, न ही खाद्य पदार्थो के आयात संबंधित नियम बनाने में।

वर्ष 2011 में एफएसएसएआई ने कपास के तेल एवं आटे के लिए मानक निर्धारित करते हुए वनस्पति तेल के रूप में इसके प्रयोग की अनुमति दी। लेकिन ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बनाई गई जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह तेल जीएम कपास से न निकाला जा रहा हो। दिसंबर 2017 में इस संस्था ने शारीरिक चयापचय या मेटाबोलिज्म एवं हाइपोएलजर्निक बीमारियों के लिए विशेष रूप से विकसित 95 तरह के खाद्य पदार्थों के आयात की स्वीकृति बिना यह सोचे दे दी कि इन खाद्य पदार्थों में जीएम सामग्री हो सकती है।

इसी दौरान, वर्ष 2013 में उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय, खाद्य एवं जन-वितरण प्रणाली ने कानूनी मेट्रोलॉजी (पैकेज्ड कमोडिटीज) अधिनियम 2011 में एक संशोधन किया जिसके फलस्वरूप जीएम खाद्य पदार्थों एवं जीएम के प्रयोग से बने खाद्य पदार्थों, दोनों पर ही जीएम का लेबल लगाना अनिवार्य कर दिया गया।

उपभोक्ता मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाले कानूनी मेट्रोलॉजी विभाग के निदेशक बीएन दीक्षित बताते हैं कि यह नियम केवल पैकिंग के लिए हैं और घरेलू एवं आयातित, दोनों ही किस्म के खाद्य पदार्थों पर लागू होते हैं। यह जीएम खाद्यान्नों के उपयोग को रोकने के लिए किया गया था क्योंकि वे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं।” हालांकि इन नियमों के बनाए जाने के पीछे की मंशा साफ थी लेकिन इनका कोई अर्थ नहीं है क्योंकि भारत में जीएम खाद्य पदार्थों का आयात प्रतिबंधित है किंतु इन नियमों की वजह से ऊहापोह की स्थिति बनी है।

अवैध हैं जीएम उत्पाद

जीएमओ वैसे जीव, पौधे, जानवर या सूक्ष्मजीव हैं जिनके आनुवंशिक पदार्थों (डिऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड अथवा डीएनए) में कुछ ऐसे बदलाव किए गए हैं जो प्राकृतिक प्रजनन या पुनर्संयोजन द्वारा संभव नहीं हैं। उनका उत्पादन आनुवांशिक इंजीनियरिंग तकनीक या फिर डीएनए की पुनर्संयोजन तकनीक के माध्यम से किया जाता है। इस प्रक्रिया में वैज्ञानिक कुछ खास जीनों को एक जीव से दूसरे जीव में स्थानांतरित करते हैं ताकि दूसरे जीव में भी वह विशेषताएं उत्पन्न हो सकें। ये दोनों जीव एक ही या भिन्न प्रजाति के भी हो सकते हैं। अब तक इस तकनीक का प्रयोग मुख्यतः खेती में किया गया है। इसके माध्यम से फसलों में कीटरोधी गुण तो डाले ही जा सकते हैं, साथ ही साथ उनकी पोषक एवं खरपतवार नाशक क्षमता भी बढ़ाई जा सकती है।

उदाहरण के तौर पर वैज्ञानिक कपास, मक्का एवं सोया की बीटी प्रजातियां विकसित करने में सफल हो गए हैं। इस प्रक्रिया के अंतर्गत इन पौधों में एक जीवाणु, बैसिलस थूरिजिएंसेस की आनुवांशिक सामग्री मिलाई जाती है जिसके फलस्वरूप बीटी जहर प्रोटीन का उत्पादन होता है। बॉलवर्म कीड़े इन्हें खाकर तुरंत ही मर जाते हैं क्योंकि यह जहर उनकी आंतों की कोशिकाओं को नष्ट कर देता है।

ठीक इसी तरह वैज्ञानिकों ने मक्का, सोयाबीन, रेपसीड एवं कपास की हर्बिसाइड टॉलरेंट (एचटी) किस्में भी विकसित की हैं। इस प्रक्रिया में पौधों में उपस्थित उस एन्जाइम को संशोधित किया जाता है जो ईपीएसपीएस (5- एनॉलपायरुविलशिकीमेट-3-फॉस्फेट सिंथेज) के उत्पादन के लिए जिम्मेदार है। इस संशोधित जीन द्वारा बनाए गए एन्जाइमों पर ग्लाइफोसेट एवं ग्लूफोसिनेट जैसे हर्बिसाइड का असर नहीं होता।

इंटरनेशनल इम्यूनोफार्मेकलॉजी के अगस्त 2018 अंक में प्रकाशित हुए एक अध्ययन के अनुसार, बीटी प्रोटीन की वजह से चूहों में दुष्प्रभाव (इम्यून रिएक्शन, खाद्य एलर्जी एवं आंतों में सूजन) देखे गए हैं। और यह अपनी तरह का इकलौता अध्ययन नहीं है। जीएम खाद्य पदार्थों से मानवों के स्वास्थ्य पर होने वाले दुष्प्रभावों पर कोई दीर्घकालिक अध्ययन नहीं किए गए हैं। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं संयुक्त राष्ट्र कृषि एवं स्वास्थ्य संगठन ने कोडेक्स एलिमेंटेरियस नामक एक संस्था का गठन किया है जिसने जीएम खाद्यों से संबंधित खतरों पर एक मूल्यांकन रिपोर्ट तैयार की है। इन दिशानिर्देशों के अनुसार, जीएम खाद्य स्वयं तो जहर की शक्ल अख्तियार कर ही सकते हैं, साथ ही वे अन्य एलर्जनों अथवा अनजाने जीएम प्रोटीनों से अभिक्रिया करके एलर्जिक प्रतिक्रियाएं भी पैदा कर सकते हैं।

किसी फसल के जीनोम में बदलाव करने से उसकी पोषण क्षमता पर भी असर पड़ सकता है। इससे भी ज्यादा खतरनाक स्थिति उत्पन्न हो सकती है अगर यह जीन शरीर की कोशिकाओं या आंतों में रहनेवाले सूक्ष्मजीवियों में प्रविष्ट हो जाए। इस जीन के प्रतिजीवी या एंटीबायोटिक रोधी होने की स्थिति में हम फिर से पूर्व-प्रतिजीवी काल में धकेल दिए जा सकते हैं जहां एक हल्के जुकाम से मौत संभव है।

सीताराम भरतिया इंस्टीच्यूट ऑफ साइंस एंड रिसर्च, नई दिल्ली में शिशु विशेषज्ञ एवं पोषणविद के रूप में काम करने वाले एचपीएस सचदेव जोकि जीएम गोल्डन राइस के समर्थक हैं, उनका भी मानना है कि “जब तक जीएम फसलों का वयस्कों पर असर न देख लिया जाए और जब तक हम यह सुनिश्चित न कर लें कि इसके कोई दुष्प्रभाव नहीं हैं, तब तक नवजातों को इनसे दूर ही रखना सही है।”

जबकि अब तक ट्रांसजेनिक खाद्य पदार्थों की सुरक्षा पर निर्णय नहीं हो पाया है, जैव सुरक्षा पर कार्टाजिना प्रोटोकॉल, संभावित प्रतिकूल पारिस्थितिक और स्वास्थ्य प्रभावों को लेकर वैज्ञानिक अनिश्चितता की स्थिति में जीएमओ के उपयोग और रिलीज को सीमित करने के लिए देशों को एहतियाती सिद्धांत का पालन करने की हिदायत देता है। डब्ल्यूएचओ का सुझाव है कि “चूंकि विभिन्न जीएमओ में अलग-अलग जीन होते हैं जिन्हें कई तरीकों से अंत:स्थापित किया जाता है, ऐसे में देशों को विभिन्न आबादी और भौगोलिक क्षेत्रों में जीएम खाद्य पदार्थों की सुरक्षा का मूल्यांकन अवश्य करना चाहिए।”

फसलों में जैव प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ावा देने वाले गैर लाभकारी अंतरराष्ट्रीय संगठन इंटरनेशनल सर्विस फॉर द एक्विजिशन ऑफ एग्री बायोटेक एप्लीकेशंस (आईएसएएए) के आंकड़े दर्शाते हैं कि कम से कम 30 जीएम फसलों को दुनिया भर में विकसित किया गया है। करीब 24 देशों ने फसलों की वाणिज्यिक खेती की मंजूरी दे दी है। इनकी खपत भोजन, चारा और अन्य वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए की जा सकती है। 43 देश जीएम फसलों के आयात की अनुमति देते हैं, लेकिन सुरक्षा चिंता के मद्देनजर अभी तक खेती की मंजूरी बाकी है। स्वैच्छिक या अनिवार्य लेबलिंग इन देशों में जीएम खाद्य पदार्थों के विनियमन का एक महत्वपूर्ण तरीका है। (देखें, जीएम लेबलिंग की अवधारणाएं,)।

जीएम लेबलिंग की अवधारणाएं
 
जीएम भोजन की लेबलिंग के वक्त सुरक्षा आकलन पर ध्यान दिया जाता है। इसके महत्व को ध्यान में रखते हुए विभिन्न देशों ने मिश्रित धारणाओं का अपनाया है। इसमें शामिल हैं

अनिवार्य अथवा स्वैच्छिक धारणा : यूरोपियन यूनियन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, ब्राजील, दक्षिण कोरिया और कुछ अन्य देशों ने अनिवार्य धारणा को अपनाया है जबकि अमेरिका और कनाडा जीएम भोजन की स्वैच्छिक धारणा की इजाजत देता है। कुछ अन्य देश भी स्वैच्छिक जीएम मुक्त लेबलिंग की अनुमति देते हैं।

लेबलिंग में छूट की सीमा : यह सीमा जीएम डीएनए की मात्रा और वजन पर निर्भर है। उदाहरण के लिए जापान में जीएम अंश की 5 प्रतिशत की सीमा निर्धारित की है जबकि यूरोपियन यूनियन में यह सीमा 0.9 प्रतिशत जीएम डीएनए प्रति अवयव है।

कोडेक्स एलीमेंटेरियस दिशा-निर्देशों के आधार पर, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की वैज्ञानिक सलाहकार निकाय भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद ने 2008 में जेनेटिकिली इंजीनियर्ड पौधों से उत्पन्न खाद्य पदार्थों की सुरक्षा के आकलन के लिए दिशानिर्देश विकसित किए जो एहतियाती सिद्धांतों का पालन करने का सुझाव देते हैं। लेकिन इसे तभी किया जा सकता है जब एफएसएसएआई जीएम खाद्य पदार्थों के लिए एक विनियमन (रेगुलेशन) तैयार करेगा। एफएसएसएआई के चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफिसर पवन अग्रवाल ने डाउन टू अर्थ को बताया, “हम विनियमन तैयार करने की प्रक्रिया में हैं। जीएम खाद्य विनियमन का मसौदा जल्द ही जारी होगा और कुछ ही माह में कानून भी आ जाएगा। ” अब तक इसने केवल जीएम खाद्य उत्पादों की लेबलिंग संबंधी नियमों की रूपरेखा तैयार की है।

डाउन टू अर्थ विश्लेषण से पता चलता है कि तैयार किए गए विनियमन, एफएसएस (लेबलिंग और डिस्प्ले) विनियमन, 2018 को अगर उसके वर्तमान रूप में लागू किया गया तो यह मकसद पूरा नहीं कर पाएगा। यह जीएम भोजन की लेबलिंग अनिवार्य करना चाहता है पर यह लेबल के आकार, रंग और उसे लगाने से संबंधित विवरण निर्दिष्ट नहीं करता है। एफएसएसएआई के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर डाउन टू अर्थ को बताया कि “ड्राफ्ट के अनुसार, सभी खाद्य उत्पाद जिनमें आनुवांशिक रूप से इंजीनियर्ड (जीई) संघटक 5 प्रतिशत या अधिक होंगे, उनको लेबल किया जाएगा। कुल जीई संघटक को उत्पाद में शीर्ष तीन संघटकों के प्रतिशत के आधार पर देखा जाएगा, हालांकि इसमें यह नहीं दर्शाया गया कि यह प्रतिशत किस पर लागू होता है। वह बताते हैं कि प्रारंभिक सीमा किसी खाद्य उत्पाद में शीर्ष तीन जीई संघटकों के वजन पर आधारित है। अब चलिए इस शब्दजाल की व्याख्या करते हैं। प्रस्तावित नियमों के अनुसार, मान लीजिए बीटी कॉटनसीड तेल और एचटी मक्के के तेल का उपयोग कर 100 ग्राम आलू के चिप्स बनाए गए। इन्हें तब तक जीएम लेबल करने की जरूरत नहीं है जब तक ट्रांसजेनिक संघटकों का वजन पांच ग्राम से कम है। यह बेहद ढीला नियम है। यह उत्पाद में भारी मात्रा में एकल जीएम संघटक के उपयोग की अनुमति देगा ताकि वह गैर-जीएम के रूप में पास हो सके। उदाहरण के लिए, यदि 100 ग्राम आलू चिप्स के पैकिट में केवल बीटी कॉटन सीड तेल का उपयोग किया जाता है तो निर्माता जीएम उत्पाद का 4.90 ग्राम तक उपयोग कर लेबलिंग से बच सकते हैं।

ब्राजील में अगर ट्रांसजेनिक सामग्री, संघटकों के वजन के एक प्रतिशत से अधिक हो जाए तो उत्पाद को जीएम लेबल करना पड़ेगा। इसके अलावा, जीएम खाद्य उत्पादों को नियंत्रित करने के लिए यह एक बेहद महंगा तरीका होगा। क्यूपीसीआर तकनीक काफी महंगी है। जीएम घटक के लिए प्रत्येक खाद्य नमूने का परीक्षण करने में, सीएसई के समान, इसका उपयोग करने की लागत करीब दस हजार रुपए हो सकती है। अगर किसी उत्पाद में जीएम घटक की मात्रा को मापना है तो इसकी लागत 25,000 रुपए से 60,000 रुपए तक हो सकती है। उत्पाद को जीएम लेबल किया जाना चाहिए या नहीं? क्या यह जांचने के लिए एफएसएसएआई प्रति उत्पाद 60,000 खर्च कर सकता है?

इसके अलावा, एक तकनीकी समस्या है। क्यूपीसीआर एक खाद्य उत्पाद में जीएम जीन के प्रतिशत का आकलन कर सकता है। लेकिन जीएम जीन के प्रतिशत को वजन के प्रतिशत में बदलने की स्थिति में प्रत्येक जीएम जीन के लिए मानक संदर्भ सामग्री की आवश्यकता होती है। यहां तक कि विकसित देशों को भी सभी संभावित जीन के लिए मानक प्राप्त करना मुश्किल लगता है। उदाहरण के लिए, इसी कारण से यूरोप ने, उत्पाद में जीएम जीन के प्रतिशत पर अपना विनियमन निर्धारित किया है, उत्पाद में जीएम घटकों के वजन के प्रतिशत पर नहीं। दूसरे शब्दों में, एफएसएसएआई ने विनियमन का जो मसौदा आगे बढ़ाया है, वह बहुत महंगा और लागू करने में बहुत बोझिल है। इसलिए, एफएसएसएआई को निर्माताओं की दया पर निर्भर होना होगा कि वे स्वयं घोषित करें कि उत्पादों में जीएम अवयव शामिल हैं या नहीं। और 5 प्रतिशत वजन विनियमन, जीएम उत्पादों के भारतीय बाजार में कानूनी तौर पर प्रवेश करने का मार्ग बन सकता है।

कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि विनियमन मसौदे ने एफएसएसएआई के दोहरे मापदंडों का पर्दाफाश किया है (देखें, दोहरा मापदंड, पृष्ठ 35)। भूषण कहते हैं, “प्राधिकरण ने ऑर्गेनिक फूड के लिए कड़े विनियमन निर्धारित किए है। लेकिन जीएम खाद्य पदार्थ को महज स्वघोषणा के साथ ही पास किया जा रहा है जिसकी सुरक्षा पर संदेह है।”

क्या हो उपाय?

भारत अब तक जीएम खाद्य फसलों की खेती को सीमित रखने में कामयाब रहा है। लेकिन जीएम खाद्य पदार्थों ने अवैध रूप से आयात या जीएम कॉटनसीड तेल के उपयोग व जीएम कपास से निर्मित पशु फीड के माध्यम से हमारी खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर लिया है। अवैध कारोबार को रोकने के लिए एफएसएसएआई को एकजुट होकर अपना काम करना चाहिए।

शुरुआत के लिए, खाद्य नियामक को बाजार में बिकने वाले सभी जीएम उत्पादों की पहचान करनी चाहिए और इस अवैध काम के लिए जिम्मेदार कंपनियों और व्यापारियों पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए। जीएम खाद्य मंजूरी प्रक्रिया का मध्य बिंदु सुरक्षा मूल्यांकन है। एफएसएसएआई को अनिवार्य तौर पर घरेलू रूप से उत्पादित और आयातित, दोनों प्रकार के जीएम खाद्य उत्पादों के लिए ऐसी प्रणाली स्थापित करनी होगी। मूल्यांकन केस-टू-केस आधार पर किया जाना चाहिए, न कि केवल निर्माताओं के दिए आंकड़ों और अल्पकालिक या खराब डिजाइन के रिसर्च पर के आधार पर। परिणाम को लोगों के लिए सार्वजनिक किया जाना चाहिए।

यह मानते हुए कि भारत जीएम खाद्य फसल की खेती की अनुमति नहीं देता है, यहां जीएम का परीक्षण करने के लिए पर्याप्त प्रयोगशालाएं नहीं हैं और इसके नियामक प्राधिकरणों के पास संसाधनों की कमी है। इसे ऐसा लेबलिंग विनियमन बनाना चाहिए जो व्यावहारिक, किफायती है और अवैधता को रोकता हो। इसलिए, भारत को एक प्रवर्तन उपकरण के रूप में अनिवार्य रूप में कड़ी छूट सीमा और गुणात्मक जांच प्रक्रिया अपनानी चाहिए। सबसे पहले, जीएम घटकों का उपयोग करने वाले सभी उत्पादों को लेबल अवश्य किया जाना चाहिए, भले ही अंतिम उत्पाद में जीएम डीएनए या प्रोटीन न हो। दूसरा, प्रारंभिक सीमा केवल उन मामलों के लिए निर्धारित की जानी चाहिए जहां जीएम घटकों ने अनजाने में खाद्य उत्पाद में प्रवेश किया है।

यूरोपीय संघ में सबसे कड़ी प्रारंभिक सीमा जीएम डीएनए के 0.9 प्रतिशत की है, ऑस्ट्रेलिया और ब्राजील ने भी अंतिम उत्पाद के वजन में एक प्रतिशत जीएम घटक की कड़ी प्रारंभिक सीमा निर्धारित की है। चूंकि परिमाणन एक संसाधन गहन प्रक्रिया है, भारतीय प्रवर्तन तंत्र जीएम डीएनए की गुणात्मक जांच (जैसे कि क्यूपीसीआर के माध्यम से) पर आधारित होना चाहिए। हालांकि, जांच प्रक्रिया में नमूना पॉजिटिव पाए जाने पर अनजानी उपस्थिति को साबित करने का काम निर्माता पर छोड़ दिया जाना चाहिए।

चूंकि देश के कई हिस्सों में अंग्रेजी प्राथमिक भाषा नहीं है और अधिकांश खाद्य पैकेज अंग्रेजी में लेबल किए जाते हैं। एफएसएसएआई को जीएम लेबलिंग को उपभोक्ताओं के अनुकूल बनाने के लिए एक प्रतीकात्मक लेबल विकसित करना चाहिए।

लेबलिंग प्रतीकों की तर्ज पर हो सकती है, जैसे कि शाकाहारी और मांसाहारी भोजन के लिए एक वर्ग में डॉट का उपयोग किया जाता है। या फिर ऑर्गेनिक भोजन दर्शाने के लिए पैक के अग्रभाग पर जैविक भारत शब्दों के साथ हाल ही में विकसित हरा टिक इंगित किया गया है। इसके अतिरिक्त, अन्य घटकों के साथ उपयोग किए गए जीएम घटक का उल्लेख किया जाना चाहिए।

भारतीय बाजारों में अवैध जीएम खाद्य पदार्थों की उपलब्धता को रोकने के लिए, एफएसएसएआई को जीएम खाद्य पदार्थों की जांच के लिए प्रयोगशालाएं स्थापित करनी चाहिए जो प्रभावी निगरानी और प्रवर्तन में मदद करती हैं।

भारत चौराहे पर है। जीएम खाद्य पदार्थों के विनियमन के लिए यह या तो विज्ञान आधारित एहतियाती सैद्धांतिक दृष्टिकोण अपना सकता है या स्वाभाविक रवैया अपनाकर खराब विज्ञान और अनैतिक नियमों के आधार पर जीएम खाद्य पदार्थों को अनुमति दे सकता है। भारत में जीएम लेबलिंग विनियमन का मसौदा खराब विज्ञान पर आधारित है और इसे लागू करना मुश्किल है। इसे अवश्य ही खारिज कर दिया जाना चाहिए। यह तथ्य है कि भोजन स्वास्थ्य से संबंधित है। नियमन उपभोक्ताओं का भरोसा जीतने के लिए होना चाहिए। जो भोजन बेचा जाता है वह सुरक्षित और स्वास्थ्य के लिहाज से अच्छा होना चाहिए। यही एजेंडा हो। स्वास्थ्य पर ध्यान होना चाहिए, व्यापार पर नहीं।