खान-पान

आहार संस्कृति: मिजोरम की शान है चाऊ-चाऊ

पहाड़ी इलाकों में किसानों को एक आकर्षक विकल्प प्रदान करती है चायोटे की खेती

Vibha Varshney

चायोटे का फल एक बड़ी, खुरदरे छिल्के वाली नाशपाती की तरह दिखता है और नीचे की तरफ से यह एक मुक्के जैसा लगता है। इसका गूदा कुछ-कुछ खीरे जैसा है। लोकप्रिय भाषा में इसे चाऊ-चाऊ कहते हैं और इसका उपयोग सब्जी के रूप में किया जाता है। भारत में इसके आगमन को एक सदी से ज्यादा समय हो गया है लेकिन इसके बावजूद यह बाजारों में आसानी से नहीं मिलता और मिलता भी है तो बहुत महंगा। दक्षिण दिल्ली के एक बाजार में मैंने एक चयोटा 70 रुपए में खरीदा।

माना जाता है कि इसके पौधे (सेचियम इदुले) की उत्पत्ति मैक्सिको में ही हुई क्योंकि वहां चाऊ-चाऊ की कई जंगली प्रजातियां पाई जाती हैं। संभवत: चायोटे की पहचान और इसकी खेती सबसे पहले 12वीं शताब्दी ईसा पूर्व दक्षिणी मैक्सिको में ही की गई थी। यह पौधा वहां से ही कई ऊष्णकटिबंधीय और ऊपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में फैल गया जहां अब इसकी खेती की जाती है। यह खीरे की उन कुछ प्रजातियों में से एक है जिसकी उत्पत्ति भारत में नहीं हुई है। इस सब्जी को 1800 के अंत में वेल्श मिशनरियों द्वारा देश के उत्तर पूर्वी हिस्से में लाया गया था। मिजोरम में इसको सबसे पहले लाने की बात की जाती है, जहां इसे इस्कुट कहा जाता है। इसकी खेती अब हिमालय की तलहटी में मिजोरम के सिहफिर से लेकर पश्चिम में हिमाचल प्रदेश के मंडी तक की जाती है। इसे दक्षिण भारत में मुख्यत: तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में भी उगाया जाता है। मेघालय में चाऊ-चाऊ को पिसकोट और हिमाचल प्रदेश में लोनकू के नाम से जाना जाता है। तमिलनाडु में चायोटे को मेराक्कई और कर्नाटक में बैंगलोर वांकया या बैंगलोर बैंगन के रूप में जाना जाता है।

विविध उपयोग

चाऊ-चाऊ का पौधा बहुउद्देशीय है और इसके फल के साथ, इसकी मुलायम टहनियां, दिल के आकार के पत्ते और आलू की तरह दिखने वाली जड़ें भी खाई जाती हैं। इसकी नरम टहनियों का उपयोग टोकरियां और टोपियां बनाने में किया जाता है और इसकी पुरानी सख्त टहनियों से एक फाइबर निकलता है जिससे रस्सियां बनाई जाती हैं। अगर कुछ खाए जाने से बच भी जाए तो उसका उपयोग चारे के रूप में किया जाता है। मिजोरम में हुए एक अध्ययन से पता चलता है कि इसके फल और पत्तियां सुअरों के लिए काफी फायदेमंद हैं और ये जानवरों के लिए बनाए विशेष भोजन जितना ही अच्छा है। खास बात यह है कि इससे उनके विकास और उनको मिलने वाले पोषक तत्वों में कोई कमी नहीं आती है। यह अध्ययन जुलाई 2015 में वेटरनरी वर्ल्ड जर्नल में प्रकाशित हुआ था।

यह वनस्पति खनिजों, फाइबर, प्रोटीन, विटामिन, कैरोटीनॉयड, पॉलीसेकेराइड, फेनोलिक और फ्लेवोनोइड यौगिकों समेत अन्य पोषक तत्वों का एक उत्कृष्ट स्रोत है, इसलिए इसका उपयोग फार्मास्युटिकल, कॉस्मेटिक और फूड इंडस्ट्रीज (खाद्य उद्योगों) में किया जाता है। चाऊ-चाऊ एक कम कैलोरीयुक्त फल है। यही कारण है कि यह शिशु और अस्पताल के आहार के लिए एक अच्छा विकल्प माना जाता है। यह फल विटामिन सी, विटामिन ई और फोलेट के साथ ही पोटेशियम, कैल्शियम, फास्फोरस और मैग्नीशियम जैसे खनिजों से भरपूर होता है। सितंबर 2021 में फ्रंटियर्स इन प्लांट साइंस में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, इस फल में एंटी-कार्डियोवास्कुलर (हृदयरोग रोधी), एंटीडायबिटिक (मधुमेह रोधी), एंटीओबेसिटी (मोटापारोधी), एंटीअल्सर (अल्सररोधी) और एंटीकैंसर (कैंसररोधी) गुण जैसे औषधीय गुण होते हैं।

रोपण सामग्री के अभाव के कारण इस वनस्पति का जितना व्यवसायीकरण होना चाहिए था उतना नहीं हो सका है। ऐसी कोई व्यवसायिक किस्में भी उपलब्ध नहीं है जिनका उपयोग किसान कर सके। कद्दू प्रजाति की सब्जियों, जिनमें कई बीज होते हैं, के विपरीत चायोटे के फल में एक ही बीज होता है और एक पौधे को उगाने के लिए एक फल की जरूरत होती है। पर इस समस्या का एक बहुत ही आसान हल है। ये कलम से आसानी से उग जाता है और इस तरह यह भी सुनिश्चित किया जा सकता है कि इसकी आनुवांशिक शुद्धता पीढ़ी दर पीढ़ी बनाई रखी जा सके।

पूर्वोत्तर पहाड़ी क्षेत्र के लिए आईसीएआर अनुसंधान परिसर के बागवानी प्रमुख वीरेंद्र कुमार वर्मा के अनुसार, इस क्षेत्र में 70 से अधिक भू-प्रजातियां उपलब्ध हैं जो फल के रंग, उसके आकार और संरचना में विटामिन-सी, चीनी और फिनोल की सामग्री सहित व्यापक भिन्नता दर्शाती हैं। इन सब प्रजातियों का संकलन इस संस्थान में किया गया है।

आईसीएआर-आरसी-एनईएच क्षेत्र, मिजोरम केंद्र ने गर्मी सहन करने वाले चार जीनोटाइप की पहचान की है। इससे गर्म जलवायु और गैर-पारंपरिक क्षेत्रों में इसकी व्यवसायिक खेती का विस्तार करने में मदद मिल सकती है। वीरेंद्र वर्मा इस पौधे की लोकप्रियता के बारे में ये भी बताते हैं कि उत्तर-पूर्व के घरों में इसके एक या दो पौधे होते ही हैं क्योंकि ये अत्यधिक उत्पादक और मजबूत होता है। साथ ही इसका रखरखाव भी आसान है।

1980 के दशक से पहले मिजोरम में बेल को जमीन के छोटे से हिस्से पर ही लगाया गया था। लेकिन बेल के कठोर परिस्थितियों में भी आसानी से उग सकने की क्षमता को देखते हुए झूम खेती (स्थानांतरित खेती) को चाऊ-चाऊ की खेती से बदलने का प्रयास किया गया। मिजोरम सरकार ने वर्ष 1982 में संगठित तरीके से चाऊ-चाऊ की खेती करने के लिए आइजोल जिले के सिहफिर गांव के किसानों का सहयोग किया। सरकार ने 1990 के दशक के दौरान मूल्य समर्थन सब्सिडी प्रदान करके किसानों को उनकी उपज के विपणन में भी मदद की। इससे किसानों को न केवल राज्य के भीतर वनस्पति बेचने में मदद मिली, अन्य राज्यों और यहां तक कि बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों को भी निर्यात करने में मदद मिली।

मिजो व्यंजनों में अहम

मिजोरम में यह एकमात्र वनस्पति है जिसकी एक संगठित विपणन प्रणाली है और इस्कुट ग्रोअर्स एसोसिएशन विपणन में मदद करता है। मिजोरम सरकार के बागवानी विभाग ने वर्ष 2018 में मिजो चाऊ-चाऊ के लिए जीआई टैग के लिए आवेदन किया था, लेकिन याचिकाकर्ता की ओर से इसके उपयोग का इतिहास देने में असफल रहने पर आवेदन को अस्वीकार कर दिया गया।

इसके फल, पत्तियां और कंद के साल के लगभग 10 महीने उपलब्ध रहने के कारण यह मिजो व्यंजनों का एक खास हिस्सा बन गए हैं। जून-दिसंबर से इसके फल और कोमल पत्ते बाजारों में उपलब्ध होते हैं। इसकी जड़ें कंदयुक्त होती हैं और इसका उपयोग आलू के स्थान पर किया जा सकता है। यह सब्जी दक्षिणी भारत में भी बहुत लोकप्रिय है। तमिलनाडु में सांभर, कूटू, पोरियाल और थुवयल जैसे व्यंजनों में इसका उपयोग किया जाता है।

व्यंजन : चायोटे करी की एक मिजो रेसिपी

चायोटे : 1 (चौकोर टुकड़ों में कटा हुआ)
आलू : 1 (उबाल के मसले हुए)
प्याज : 1 (कटा हुआ)
टमाटर : 1 (कटा हुआ)
अदरक : 2 इंच टुकड़ा (कद्दूकस किया हुआ)
लहसु न: 5-6 कलियां (कटी हुई)
मिर्च पाउडर : 1 छोटा चम्मच
धनिया पाउडर : 1 छोटा चम्मच
हल्दी : 1 छोटा चम्मच
तेल : 2 बड़े चम्मच
नमक स्वादानुसार

विधि : सबसे पहले चायोटे को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लें। उसके बाद आलू को उबालें, ठंडा होने पर आलू को छीलें और फिर मसल लें। एक पैन में तेल गर्म कर उसमें कटे हुए प्याज, अदरक और लहसुन डालें। उसके बाद इसमें धनिया पाउडर, लाल मिर्च पाउडर, हल्दी और नमक डालकर कुछ मिनट तक पकाएं। फिर कटे हुए टमाटर डालें और उसके बाद चायोट के टुकड़े डालें। अच्छी तरह मिलाकर इसे पकाएं। थोड़ा पानी भी डाल दें और नरम होने तक पकाएं। मसले हुए आलू डालकर इसे मिलाएं। आप इसे चावल के साथ खाना चाहते हैं या रोटी के साथ, इसी के आधार पर इसमें पानी डालकर इसकी तरी तैयार करें। पानी डालने के बाद इसे कुछ देर तक और पकाएं।