खान-पान

खाद्य सुरक्षा के साथ पोषण सुरक्षा भी जरूरी

गरीब बच्चों तक अन्न पहुंचाना उतना बड़ा मुद्दा नहीं है। लेकिन फिर सवाल उठता है कि आखिर बच्चे कुपोषित क्यों हैं?

Sunita Narain

जब भी बच्चों में कुपोषण की खबरें सुर्खियां बनती हैं, जैसा कि पिछले दिनों मध्य प्रदेश से खबर आई, मैं बहुत असमंजस में पड़ जाती हूं। भारत के अनाज भंडार भरे पड़े हैं। सरकार का अनुमान है कि इस वर्ष देश में खाद्यान्न का रिकॉर्ड उत्पादन होगा। इस तरह देखा जाए तो देश में अन्न की वैसे कोई कमी नहीं है। यहां तक कि तमाम खामियों और भ्रष्टाचार के बावजूद देश के हरेक कोने में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) भी मौजूद है। गत वर्षों में कई राज्य सरकारों ने बेहद रियायती दरों पर खाद्यान्न वितरण की योजनाएं सफलतापूर्वक लागू की हैं। भारत में आंगनबाड़ी नाम से दुनिया का सबसे बड़ा और अनोखा सामुदायिक रसोई कार्यक्रम चल रहा है। मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि किसी गांव में स्वास्थ्य केंद्र भले ढूंढने से न मिले, लेकिन आंगनबाड़ी जरूर होगी। इसलिए गरीब बच्चों तक अन्न पहुंचाना उतना बड़ा मुद्दा नहीं है। लेकिन फिर सवाल उठता है कि आखिर बच्चे कुपोषित क्यों हैं? आप लोग भी कई बार यह सोचते होंगे।

जाहिर है कि समस्या भोजन उपलब्धता की नहीं है। पेचीदा सवाल यह है कि है कि हमारे बच्चे किस तरह का खाना खा रहे हैं। यहां हमें दो चीजों में अंतर समझना होगा: खाद्य सुरक्षा और पोषण की सुरक्षा। खाद्य सुरक्षा का मतलब है, भूख मिटाने के लिए भोजन की उपलब्धता। जबकि आजकल हम जिस समस्या से जूझ रहे हैं वह कुपोषण यानी पोषण सुरक्षा का मुद्दा है। पोषण के लिए सिर्फ भोजन मिलना काफी नहीं है, बल्कि भोजन में आवश्यक पोषक तत्व भी होने चाहिए ताकि बच्चों का पूरा विकास हो सके।

हमारी एक स्टोरी बताती है कि कैसे मध्य प्रदेश में लाखों बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। लंबे समय से ऐसा भयंकर कुपोषण जिसके चलते बच्चों के लंबाई रूक जाती है और उम्र के हिसाब से शरीर का विकास नहीं होता। कुपोषण का यह सबसे महत्वपूर्ण संकेत माना जाता है। हमारी स्टोरी इस विडंबना को सामने लाती है कि ऐसे वृद्धि रोकने वाले कुपोषण से पीड़ित अधिकतर बच्चे आदिवासी समुदायों से हैं। मतलब, खाने-पीने की पौष्टिक चीजों से भरपूर वन क्षेत्रों के आसपास रहने वाले लोग ही पोषण से वंचित हैं। इससे साफ तौर पर पता चलता है कि आदिवासी परिवारों को कई वजहों से उनका पौष्टिक आहार मिलना बंद हो गया है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 72 प्रतिशत आदिवासी महिलाओं को सप्ताह में एक बार भी फल खाने के लिए नहीं मिलता है। यानी सरकारी सस्ते अनाज के चलते खाद्य सुरक्षा तो मिल रही है लेकिन पोषण का स्तर गिरता जा रहा है।

कुपोषण के विरुद्ध संघर्ष में अब भारत को खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ पोषण सुरक्षा पर भी ध्यान देना चाहिए। हमें यह देखना होगा कि लोगों तक ‘अन्न’ के बजाय ‘पौष्टिक आहार’ कैसे मिले। क्या यह बहुत बड़ी महत्वाकांक्षा है? लोग सवाल उठा सकते हैं कि जब हरेक परिवार को तय मात्रा में अनाज मुहैया कराना ही मुश्किल हो रहा है तब हम पौष्टिक आहार के बारे में कैसे सोच सकते हैं। लेकिन यह संभव है और पोषण सुरक्षा इस तरह सुनिश्चित हो सकती है।

पहला, अपनी रसोई में पारंपरिक भोजन की तरफ लौटने वाले लोगों को हमें प्रोत्साहन देना होगा। पारंपरिक आहार स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुरूप होने के कारण विविधता और पोषण से भरपूर होते हैं। कुछ दशक पहले तक, आदिवासी आबादी का कुपोषित मिलना दुर्लभ था। ये लोग जंगलों में जाकर कई प्रकार के फल-सब्जियां ले आते थे। इससे इन्हें पोषण सुरक्षा तो मिलती ही थी, साल भर इनकी खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित रहती थी। लेकिन अब देश भर में हमारे आहार की विविधता कुछ लोकप्रिय सब्जियों और दो प्रमुख अनाजों गेहूं और चावल तक सीमित हो गई है।

दूसरा, मौजूदा सार्वजनिक वितरण प्रणाली और आंगनबाड़ी व्यवस्था के माध्यम से भोजन की आदत में जरूरी बदलाव लाया जा सकता है। शुरुआत में राशन केंद्रों को रियायती दरों पर स्थानीय खाद्यान्न और मोटे अनाज बेचने चाहिए। यह सरकारी राशन स्थानीय समुदायों के लिए बहुत मायने रखता है, इसलिए राशन केंद्रों के जरिये स्थानीय अनाज तुरंत लोगों तक पहुंच जाएगा। सत्तर के दशक में गेहूं आदिवासी क्षेत्रों में इसी तरह पहुंचा था और आहार में शामिल हो गया। आंगनबाड़ी केंद्रों के लिए सिर्फ स्थानीय सब्जियां ही खरीदी जानी चाहिए। इससे न केवल स्थानीय लोगों को स्थानीय सब्जियों की खेती के लिए आर्थिक प्रोत्साहन मिलेगा, बल्कि वे जंगल से खाने-पीने की पौष्टिक चीजें हासिल करने के लिए भी प्रोत्साहित होंगे। आंगनबाड़ी केंद्रों में बच्चों के साथ-साथ गर्भवती महिलाएं और बच्चों को दूध पिलाने वाली माताएं भी आती हैं, यहां स्थानीय भोजन मिलने से इन सभी को पोषण सुरक्षा मिल सकेगी।

स्टोरी बताती है कि यदि हम वनों को भोजन के स्रोत के तौर पर देखने की समझदारी दिखाते तो शायद आज देश के करोड़ों बच्चे भयंकर कुपोषण का शिकार न होते। संदेश साफ है, भोजन को केवल जीने के लिए आवश्यक कैलोरी का स्रोत न समझकर, भावी पीढ़ी के पोषण का स्रोत भी मानना चाहिए।