खान-पान

आधार की मार

केंद्र सरकार के आधार संबंधी अधिसूचना की तलवार पिछले दस माह से देश भर के 12 करोड़ से अधिक नौनिहालों के निवाले पर लटकी हुई है।

Anil Ashwani Sharma

केंद्र सरकार के आधार संबंधी अधिसूचना की तलवार पिछले दस माह से देश भर के 12 करोड़ से अधिक नौनिहालों के निवाले (मध्यान्ह भोजन) पर लटकी हुई है। डाउन टू अर्थ ने देश भर के चौदह राज्यों में मध्याह्न भोजन पर आधार की अनिवार्यता पर जानकारी इकट्ठी की। इसमें पता चलता है कि केंद्र सरकार के अधिसूचना संबंधी संशोधन के बावजूद शुरुआती पांच से छह माह तक लगभग 68 फीसदी बच्चे मध्याह्न भोजन से वंचित रहे। अनिल अश्विनी शर्मा का विश्लेषण

नोएडा के सेक्टर-66 स्थित ममूरा गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाने वाली सालू कुमारी तेजी से स्कूल की ओर कदम बढ़ा रही है। इसका कारण है कि उसके स्कूल में आधार कार्ड बनाने वाले कर्मचारी आने वाले हैं। उसे बताया गया है कि बिना आधार के अब मिड डे मील यानी एमडीएम (मध्याह्न भोजन) नहीं मिलेगा। हालांकि इस साल आधार बनाने की सूचना कम से कम आधा दर्जन बार शिक्षक दे चुके हैं। लेकिन हर बार कुछ न कुछ समस्या आ जाती है और आधार के लिए तमाम तरह की जरूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं। मेरठ शिक्षा मंडल के सहायक निदेशक अशोक सिंह ने इसका कारण बताया कि कभी इंटरनेट की समस्या तो कभी मशीन बच्चों की आंखें या अंगुलियों के निशान नहीं ले पा रही होती। वे कहते हैं कई बार लखनऊ से आदेश आता है कि आधार कितने बने हैं लेकिन जब हम बताते हैं कि टीम तो आप ही भेजेंगे तो अधिकारीगण चुप्पी साध लेते हैं। वास्तव में देशभर के लगभग बारह करोड़ बच्चे दिसंबर में होने वाली अपनी अर्द्धवार्षिक परीक्षा की तैयारी इस बार अपनी पाठ्यपुस्तकों से न करके एक अलग तरह की परीक्षा देने की तैयारी में पिछले दस माह से जुटे हुए हैं। जी हां इस समय अधिकांश छात्रों का समय बस आधार कार्ड के बारे में सोचते हुए बीत रहा है।

यह समस्या अकेले राजधानी से सटे नोएडा अकेले में ही नहीं है। इस संबंध में बिहार के सहरसा जिले के प्राइमरी स्कूल के प्रिंसिपल पंकज कुमार  कहते हैं, आधार बनाने की समस्या देशभर के स्कूलों में एक चुनौती बन गई है। इस चुनौती को शिक्षकगण अपने स्तर पर भी नहीं झेल पा रहे हैं। कारण कि यह सरकारी काम है और इसमें वे पूरी सावधानी बरत रहे हैं। वे कहते हैं, आधार की अनिवार्यता की अधिसूचना के चलते पूरे देश में पिछले दस माह से प्राइमरी व माध्यमिक स्कूलों में पढ़ाई न के बराबर हो रही है। शिक्षक से लेकर अभिवावक व छात्र बस इसी उधेड़बुन में अपना वक्त जाया कर रहे हैं कि कब इस आधार से मुक्ति मिलेगी। बच्चों के माता-पिता इसी बात पर माथापच्ची करते नजर आते हैं कि आधार के लिए जरूरी कागजात कैसे जुटाने हैं। भोपाल से 15 किलोमीटर दूर स्थित खेड़ी गांव में चल रहे प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर ओमप्रकाश जायसवाल कहते हैं पिछले दस माह से इस आफत की पुड़िया (अधिसूचना) ने हमारा जीना दुश्वार कर दिया है।

जब से यह जारी हुई है तब से हम बस बच्चों के आधार बनाने की प्रक्रिया में ही रात-दिन सोते जागते जुटे हुए हैं। इसके बावजूद अब तक मेरे स्कूल में पंजीकृत 152 बच्चों के आधार नहीं बन पाए हैं। बस हर बार जिला शिक्षा विभाग से आदेश आता है कि अमुक तारीख को आधार कार्ड वाले आपके स्कूल आएंगे लेकिन हकीकत है कि वे आज तक हमारे स्कूल नहीं पहुंचे हैं। प्राइमरी व माध्यमिक स्कूलों से मिली जानकारी के अनुसार  देशभर में अब तक लगभग तीस फीसदी छात्रों के ही आधार बन पाए हैं। हालांकि आधार नहीं होने के कारण शुरूआती माहों के बाद एमडीएम छात्रों को  मिलने लगा है लेकिन इसके बावजूद आधार का भूत गरीब मां-बाप के जेहन से उतरने का नाम नहीं ले रहा है।

मध्य प्रदेश के रीवा जिले से 80 किलोमीटर दूर हिनौती गांव में खेतिहर मजदूर बंभोलिया कोल कहता है, हम जैसे गरीबों के बच्चों को भी दो रोटी देने के लिए सरकार कागजात (आधार) बनाने पर तुली हुई है। ऊपर से यह तो पिछले कितने माहों से बन भी नहीं पा रहा है। मैं भी पिछले कई माहों से कई बार मजदूरी का नागा करके स्कूल के मास्टर के पास जरूरी कागजात पहुंचाने गया लेकिन हर बार वह कोई न कोई और कागजात की मांग कर देता है। मेरे जैसे अंगूठा छाप मजदूर की यह समझ से परे बात लगती है कि तीन साल का बच्चा भी कागजात दिखाएगा तो तो उसे स्कूल से खाना मिलेगा। उसकी पत्नी गुस्से में कहती है, सरकार तो ऐसे कागजात मांग रही है जैसे वे हमारे बच्चों को 56 प्रकार का भोग खिला रहे हों। खिचड़ी पाने के लिए भी अब सरकार को कागजात दिखाओ। 
     
आधार से लिंक करने की केंद्र सरकार की अधिसूचना (केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा 28 फरवरी, 2017) से देश के करीब 12 लाख स्कूलों में लगभग 12 करोड़ बच्चों को मिलने वाला एमडीएम प्रभावित हुआ है। इस योजना पर सरकार सालाना करीब साढ़े नौ हजार करोड़ रुपए खर्च करती है। इस अधिसूचना से एमडीएम योजना कितनी प्रभावित हुई है? जब यह अधिसूचना जारी हुई थी तब तो देशभर में लगभग 65 फीसद ऐसे बच्चों को एमडीएम देना पूरी तरह से बंद कर दिया गया था, जिनके पास आधार कार्ड नहीं था। इलाहाबाद शहर से लगभग 40 किमी दूर करछना ब्लॉक के झीरी लच्छीपुर गांव स्थित प्राथमिक विद्यालय में लगभग 200 बच्चे पढ़ते हैं, और सभी बच्चों के पास आधार कार्ड शुरू में नहीं थे।

यहां के एक अभिभावक इंद्रजीत यादव बताते हैं, कि शुरू में आधार कार्ड न होने के कारण मेरे बच्चे को दोपहर में कई महीनों तक खाना नहीं मिला। हालांकि देश के राजधानी से सटे उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में वर्तमान में एमडीएम योजना के लाभार्थी बच्चों की संख्या स्कूलों के कुल नामांकन का 43.36 फीसद ही है। राज्य के प्राथमिक स्तर पर 123.57 लाख एवं उच्च प्राथमिक स्तर पर 54.94 लाख बच्चे पंजीकृत हैं। मध्याह्न भोजन प्राधिकरण उत्तर प्रदेश के आंकड़ों के मुताबिक, प्रदेश में अभी 77 लाख 40 हजार 142 बच्चे ही इस योजना से लाभान्वित हो रहे हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है देश के दूरस्थ इलाकों बसे राज्यों में क्या स्थिति होगी।

ध्यान देने की बात है कि केंद्र सरकार की संशोधित अधिसूचना को जारी हुए दस महीने से अधिक होने को आए हैं लेकिन अब भी देश के कई इलाकों में यह सूचना नहीं पहुंची है। इस संबंध में इंडिया फूड कैंपेन की समन्वयक दीपा सिन्हा कहती हैं, “वास्तव में केंद्र सरकार जानबूझ कर इस संशोधित सूचना को नहीं पहुंचाना चाहता है। नहीं तो देश के करोड़ों बच्चों को मिलने वाले भोजन के प्रति सरकार इतनी बेरुखी नहीं बरतती।” राष्ट्रपति पुरस्कार विजेता गौममबुद्ध नगर स्थित माध्यमिक स्कूल के प्रिंसिपल छोटे लाल सिंह कहते हैं, “मैं अपनी 45 साल की नौकरी में बीस साल तक एमडीएम की खूबियों और खामियों को देखता और परखता आया हूं। ऐसे में केंद्र सरकार का एमडीएम के लिए भी आधार अनिवार्य करना करोड़ों गरीब बच्चों के मुंह से निवाला छीनने जैसा ही है।” वह कहते हैं, “सरकारी स्कूलों में ये बच्चे भोजन की खातिर तो ही आते हैं और इसके कारण उन्हें कुछ अक्षर ज्ञान भी हो जाता है।



सरकार का कहना है कि हम चाहते हैं कि यह योजना सही बच्चे तक पहुंचे। सवाल उठता है कि पका हुआ भोजन तो सही बच्चे तक ही पहुंचता है। नहीं तो सरकार ने ऐसे कैसे सोच लिया है यह खाना संपन्न बच्चे खा लेंगे। कई बार तो खाने में स्वाद नहीं होने के कारण गरीब बच्चे भी एमडीएम को खाने से इनकार कर देते हैं।”

स्कूलों में आधार की अनिवार्यता जैसी अधिसूचना ने देश के दूरस्थ इलाकों में बसे गांवों के अभिभावकों को मानसिक रूप से भी कमजोर बना दिया है। इसे समझने के लिए उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से करीब 180 किलोमीटर दूर एक छोटे से जिले बस्ती के ग्राम पंचायत गनेशपुर के दिहाड़ी मजदूर ननकू के पास जाना होगा। साल में बमुश्किल दो-ढाई सौ दिन का रोजगार और 300 रुपए दिहाड़ी पाने वाले भूमिहीन ननकू के जिम्मे पांच बच्चों सहित परिवार के सात सदस्यों का खाना-पीना, दवा-दारू और जीवनयापन की जिम्मेदारी है। जब से गांव के सरकारी स्कूल में दिन में मुफ्त खाना मिलने लगा है, उसके चार बच्चे रोजाना स्कूल जाने लगे हैं। ननकू कहता है कि उसके बच्चों को कम से कम पौष्टिक आहार तो मिलने लगा है, वह तो सपने में भी बच्चों को इस तरह का खाना देने के बारे में नहीं सोच सकता था’।

कुछ महीने पहले ननकू का बेटा स्कूल से आया और बोला, “बापू, मास्टरजी बोले हैं कि अब जिसका आधार होगा, उसे ही खाना मिलेगा।” तबसे ननकू परेशान है, यह सोचकर कि गांव में तो बहुत से लोगों का आधार कार्ड नहीं बन पाया है, तो उसके बच्चों का आधार बनना तो और मुश्किल है। और, आधार नहीं बनेगा तो बच्चे फिर से भुखमरी की हालत में आ जाएंगे।

आधार बनाने को लेकर तमाम तरह की विसंगतियां अक्सर सामने आती हैं। ऐसे में ननकू की आशंका निराधार नहीं है कि एमडीएम योजना में बच्चों के लिए आधार अनिवार्य करने से बड़ी संख्या में बच्चे योजना का लाभ पाने से वंचित न हो जाएं। हालांकि, उत्तर प्रदेश मध्याह्न भोजन प्राधिकरण में जन सूचना अधिकारी सहायक उप निदेशक आनंद पांडे का कहना है कि आधार के कारण मध्याह्न भोजन के आबंटन में सरकारी स्तर पर कोई कटौती नहीं की गई है। सभी बच्चों का आधार कार्ड बेसिक शिक्षा विभाग को बनवाने की जिम्मेदारी मिली है। पहले की तरह ही बच्चों को मध्याह्न भोजन दिया जा रहा है।

महिला व बाल कल्याण के क्षेत्र में कार्यरत आॅल इंडिया वीमेंस कांफ्रेंस की मध्य क्षेत्र की प्रमुख नीरू जैन कहती हैं, “यह सही है कि लाखों की संख्या में ऐसे गरीब अभिभावक हैं, जो बच्चों को स्कूल भोजन के लिए ही भेजते हैं। ये लोग एक तरह से बच्चे के एक वक्त के भोजन के लिए इस योजना के भरोसे रहते हैं। कई जगह तो बच्चे भोजन के वक्त ही स्कूल में जाते हैं और भोजन करके वापस चले आते हैं। इस योजना के नाम पर धांधलियां भी खूब हुई हैं। ऐसे में वास्तविक लाभार्थी तक योजना पहुंचाने में आधार अनिवार्य करना फायदेमंद हो सकता है। लेकिन आधार बनाने की प्रक्रिया पर ही सवालिया निशान लग रहे हैं।

बुंदेलखंड क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता जयंत सिंह तोमर कहते हैं, “इस क्षेत्र के गरीबों के लिए मध्याह्न भोजन योजना वरदान जैसा है। अभी तक आधार बनाने और दूसरी योजनाओं में आधार अनिवार्य करने के परिणाम बहुत उत्साहजनक नहीं रहे हैं। ऐसे में इस योजना में भी आधार की अनिवार्यता कहीं बच्चों के मुख से एक टाइम मिलने वाला निवाला न छीन ले।”

सुप्रीम कोर्ट ने 27 जून 2017 को एक जनहित याचिका सुनवाई करते समय दिशानिर्देश दिया था कि किसी को भी आधार न होने के कारण सरकारी योजनाओं का लाभ लेने से वंचित नहीं किया जा सकता है। एमडीएम योजना को भी आधार से जोड़ने पर सामाजिक कार्यकर्ता इसी तरह के सवाल उठा रहे हैं और आशंका जता रहे हैं कि इससे लाखों की संख्या में बच्चे योजना से वंचित हो जाएंगे। हालांकि लखनऊ विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के समन्व्यक राकेश द्विवेदी केंद्र के इस निर्णय से इत्तिफाक रखते हैं। द्विवेदी कहते हैं, “आधार अनिवार्य करने से वास्तविक लाभार्थी को पहचानना और योजना का लाभ स्कूलों में दाखिल सौ फीसद बच्चों तक पहुंचाना आसान होगा। इस योजना में अभी तक गड़बड़ी की बड़ी शिकायतें रही हैं। भोजन बच्चों तक न पहुंचाकर उस अनाज को बाजार में बेचने की भी शिकायतें आती रही हैं। ऐसे में आधार अनिवार्य हुआ तो वास्तविक लाभार्थियों की संख्या निर्धारण कर इस योजना से भ्रष्टाचार दूर करने में मदद मिलगी। हां, सरकार को यह जरूर देखना चाहिए कि बच्चों का आधार बनाने में लापरवाही न होने पाए।”  

पर, बाल अधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत लखनऊ की सामाजिक कार्यकर्ता अर्चना शर्मा कहती हैं, “लगता नहीं कि फर्जीवाड़ा रोकने का यह तरीका, बहुत कारगर होगा। इसे रोकने के लिए सरकार को योजना को उम्दा तरीके से लागू कराना चाहिए ताकि अधिक से अधिक बच्चे स्कूल आएं। पीडीएस और मनरेगा जैसी योजनाओं में आधार अनिवार्य करने से बहुत से लोग इसके फायदे से वंचित हो गए, क्योंकि उनके फिंगर प्रिंट ही मैच नहीं करते। बच्चों के मामले में तो यह समस्या और आएगी। यदि योजनाओं में सरकार गड़बड़ी नहीं रोक पा रही है तो यह उसके क्रियान्वयन एवं निगरानी तंत्र की खामी है और इसको सुधारा जाना चाहिए।”

राज्य के मिर्जापुर और सोनभद्र जैसे पिछड़े हुए जिलों में स्थिति उतनी अच्छी नहीं है। जिले के ग्रामीण क्षेत्र में 1565 और शहरी क्षेत्र में 46 प्राथमिक विद्यालय हैं जबकि सोनभद्र में 1804 ग्रामीण क्षेत्र में प्राथमिक्र विद्यालय हैं। मिर्जापुर के बेसिक शिक्षा अधिक प्रवीण तिवारी के अनुसार, “यहां पढ़ने वाले 85 से 90 फीसद बच्चों के पास आधार कार्ड अब तक बन पाए हैं। लेकिन अब भी दस से पंद्रह फीसद बच्चों के आधार कार्ड नहीं बन पाए हैं।”

बिहार में चल रहा जोड़-घटाव

“मध्याह्न भोजन के लिए आधार अनिवार्य”, यह खबर बाद में भले बदल गई, लेकिन पहली बार 29 फरवरी, 2017 को जब बिहार तक ये पंक्तियां पहुंचीं तो एमडीएम से जुड़ी पूरी प्रणाली हिल गई है। पटना स्थित एमडीएम के निदेशक का कार्यालय इसका जोड़-घटाव कर अंदर ही अंदर परेशान है। हालत यह है कि कोई आधार पंजीकरण को मनमानी बता रहा है तो कोई इसे असंभव टास्क। स्वयंसेवी संगठन यह पता करने में लगे हैं कि आखिर आधार की अनिवार्यता को लेकर वस्तुस्थिति क्या है।

एक तरफ केंद्र सरकार ने आधार को लेकर बैकफुट पर आने वाला बयान दिया तो दूसरी तरफ केंद्रीय मानव संसाधन विभाग जुलाई-अगस्त तक लगातार आधार पंजीयन को लेकर ताकीद भरी चिट्ठी राज्य को भेज रहा है। राज्य मध्याह्न भोजन योजना समिति के सचिव और मध्याह्न भोजन योजना बिहार के निदेशक विनोद कुमार सिंह सीधा-सादा जवाब देते हैं कि केंद्र और राज्य सरकार के निर्देशों के तहत मध्याह्न भोजन मुहैया कराया जा रहा है। आधार लिंक को लेकर अभी कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं मिला है।

केंद्र सरकार की ओर से 16 अगस्त, 2017 को राज्य में मिड-डे मील से जुड़े आला अधिकारियों को जारी पत्र में एक तरह से आधार पंजीकरण की अनिवार्यता स्पष्ट कर दी गई है। इन स्थितियों में झारखंड में आधार पंजीकरण शिक्षा विभाग के लिए बहुत बड़ा टास्क होगा। पहाड़ों-जंगलों के बीच बसे गांव और कई जगह गांवों की पहुंच से दूर स्कूल। पहाड़ी जंगलों से घिरे कई जिलों के कई स्कूल ऐसे हैं, जहां आज भी 15 अगस्त, 26 जनवरी, 02 अक्तूबर जैसे अवसरों पर ही मिड-डे मील की चर्चा होती है। झारखंड में शिक्षा विभाग के अधिकारी इस पर कुछ भी बोलने से परहेज कर रहे हैं। केंद्र सरकार की ओर से इसी साल 16 अगस्त को जारी चिट्ठी और उसके साथ आधार पंजीकरण के लिए 21 जुलाई को आए थ्री इन वन यूनिफाइड फॉर्म को लेकर भी अधिकारी कुछ नहीं बोल रहे हैं।

आधार पर गतिरोध की आशंका के मद्देनजर फिलहाल झारखंड सरकार जल्द से जल्द स्कूलों को खाना बनाने की जिम्मेदारी से मुक्त करने की तैयारी में है। आधार पंजीकरण के लिए आए थ्री इन वन यूनिफाइड फॉर्म में छात्र, अभिभावक और स्कूल प्रबंधन के दस्तखत चाहिए। इसके लिए झारखंड के स्कूलों में सरकार को अपना नेटवर्क दुरुस्त करना पहला टास्क होगा। जमेशदपुर के अन्नामृत शाखा प्रबंधक शांतो समीर चटर्जी कहते हैं कि फिलहाल आधार पंजीकरण या सभी दिन मध्याह्न भोजन को लेकर कोई दिशा-निर्देश या संदेश उनके पास नहीं पहुंचा है।

31 दिसंबर का दिन नजदीक आ रहा है और उत्तराखंड के 1 लाख 60 हजार बच्चों को स्कूल में दिन में मिलने वाला एमडीएम योजना संकट में पड़ने जा रही है। ये वे बच्चे हैं, जिनके आधार कार्ड विभिन्न कारणों से अब तक बन नहीं पाए हैं और केंद्र सरकार ने इस साल 31 दिसंबर तक अनिवार्य रूप से हर बच्चे का आधार कार्ड बनाकर उसका आधार नंबर स्कूल में मुहैया कराने के लिए कहा है। उत्तराखंड के सभी 13 जिलों में वतर्मान में 7.49 लाख बच्चों को एमडीएम दिया जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, अब तक 6.34 लाख बच्चों का आधार कार्ड बन चुका है, लेकिन अब जो 1.60 बच्चे बाकी रह गए हैं, उनका आधार कार्ड बनाने का काम राज्य में लगभग बंद पड़ा हुआ है। कारण है कि शहरों के साथ ही छोटे-छोटे कस्बों में चलने वाले सभी आधार केंद्र बंद कर दिए गए हैं। राज्य में  कुछ समय पहले तक कई छोटे-छोटे कस्बों में भी निजी एजंसियों द्वारा आधार केंद्र चलाए जा रहे थे, लेकिन अब उनमें से ज्यादातर के लाइसेंस या तो रद्द कर दिए हैं या उनमें कुछ जरूरी संशोधन करने के लिए कहा गया है। ऐसे में ये सभी आधार केंद्र बंद   हैं और आधार कार्ड बनाने का काम लगभग ठप हो गया है।

दक्षिण भारत में थोड़ा उजाला

तमिलनाडु एक ऐसा प्रदेश है जहां सबसे पहले 1962 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कामराज के प्रयास से राज्य के बच्चों को शिक्षा के प्रति प्रोत्साहित के लिए स्कूलों में मिड डे मील योजना की शुरुआत की गई। 1982 में मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन ने इस योजना की गंभीरता से शुरुआत की। तमिलनाडु सरकारी स्कूल के प्रधानाध्यापक संघ के अध्यक्ष सामी सत्यमूर्ति का कहना है कि आधार कार्ड इस योजना के तहत जोड़ दिया गया है। ग्रामीण इलाकों में लोगों में आधार कार्ड के प्रति जागरूकता व आधार कार्ड केंद्र की कमी के कारण विद्यार्थियों को इस योजना के तहत जोड़ा नहीं जा सका है।

एमडीएम योजना देशभर में 15 अगस्त 1995 को शुरू हुई। लेकिन इतिहास के पन्नों को खगालें तो 400 वर्ष पूर्व भागलपुर में अरबी के विद्वान हजरत मखदूम शहबाज मुहम्मद द्वारा स्थापित मदरसे में एमडीएम योजना लागू की गई थी।

आधार की अनिवार्यता पर अपने अधिकृत बयान में केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय का कहना है कि देश भर में 13.16 करोड़ बच्चे 11.5 करोड़ स्कूलों में पंजीकृत हैं। और इनमें से 2015-16 में 10.03 करोड़ बच्चों को एमडीएम दिया जा रहा था। आधार की अनिवार्यता के पीछे हमारा उद्देश्य है कि गलत लोग इस योजना का लाभ न उठाएं। वर्तमान में, 13 करोड़ छात्रों में से केवल 30 फीसद छात्रों के आधार कार्ड बन पाए हैं। वहीं भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के अनुसार आधार की 12 अंकों की संख्या वास्तव में यह भी तय करती है लाभ विशेष छात्र को ही मिले।

मवाना (मेरठ से 24  किलोमीटर दूर स्थित) स्थित मेरठ मंडल के सरकारी स्कूली शिक्षकों के प्रशिक्षण केंद्र के उपनिदेशक विनय गिल कहते हैं कि हम शिक्षकों को इस प्रकार से प्रशिक्षित करने पर जोर दे रहे हैं कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को मिलने वाली सभी सरकारी सुविधाओं के बारे में वे अधिक से अधिक संवेदनशील रहें।

यह बात तो है कि आधार को अब तक जिन योजनाओं से जोड़ा गया है, उनके परिणाम आशानुरूप नहीं रहे हैं। अब एमडीएम योजना को आधार से जोड़ने की यह कवायद गरीबों और खासकर दूर-दराज ग्रामीण इलाकों के गरीब बच्चों के अभिभावकों के लिए चिंता का सबब तो है। जाहिर है, इन चिंताओं के समाधान होने तक सवाल तो उठेंगे ही, सरकार की नीयत पर भी और योजना के भविष्य पर भी।

(साथ में लखनऊ से अमित श्रीवास्तव, झारखंड से प्रेरणा, बिहार से आशुतोष, उत्तराखंड से त्रिलोचन भट्ठ और दक्षिण भारत से रितेश रंजन)

राशन की पहुंच अब भी दूर
मीनाक्षी सुषमा 
 

उच्चतम न्यायालय ने 2004-06 और 2009 में आईसीडीएस (इंटीग्रेटड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विस)संबंधी आदेश जारी किए थे। आदेश में कहा गया था कि खाने के सामान की खरीद तथा सामान तैयार करने के काम का विकेन्द्रीकरण किया जाए और इस प्रक्रिया से निजी ठेकेदारों को हटाया जाए। इस आदेश के पहला भाग में कहा गया था कि मध्याह्न भोजन का विकेन्द्रीकरण किया जाए व इसे स्थानीय आंगनवाडि़यों में स्वास्थ्यकर परिस्थितियों में पकाया जाना चाहिए तथा दूसरा आदेश घर के लिए दिए जाने वाले राशन के संबंध में था।
पीडीएस, आईसीडीएस के संबंध में राज्य सरकारों की निगरानी के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त आयुक्त के साथ काम करने वाली दीपा सिन्हा कहती हैं कि केवल खाना बनाने के काम का विकेन्द्रीकरण हुआ है, घर ले जाने वाले राशन में अभी भी समस्या है। केवल केरल और उड़ीसा ही पूरी तरह से विकेन्द्रीकृत हैं। अन्य राज्यों में अभी भी केन्द्रीकृत है तथा कुछ राज्य जैसे राजस्थान, गुजरात और छत्तीसगढ़ में विकेन्द्रीकरण प्रायोगिक परियोजना के तौर पर कुछ प्रखंडो में हो रहा है। तमिलनाडु में मिली-जुली व्यवस्था है, जहां बिना किसी प्रायोगिक परियोजना के दोनों चल रहे हैं। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में अधिप्राप्ति राज्य खाद्य निगम के हाथों में है। वह बताती हैं कि उच्चतम न्यायालय इस मामले में आदेश भेजता रहा है किन्तु योजना के दस वर्ष बाद भी कुछ नहीं बदला। राज्य न्यायालय के आदेशों को गंभीरता से नहीं ले रहे।
सरकार की विकेन्द्रीकृत खरीद योजना (डीपीएस) 1997 में शुरू की गई थी। यह लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टीपीडीएस) के बाद अस्तित्व में आई। डीपीएस के तहत सरकार किसानों को फसल के बाजार मूल्य से अधिक कीमत देकर सीधे उनसे खरीद करती है और टीपीडीएस द्वारा किए गए वर्गीकरण के अनुसार अनाज को कम कीमत पर वितरित करती है। बचा हुआ अनाज भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को दिया जाता है। परिवहन, भंडारण लागत को कम करने और किसानों को फसल की अच्छी कीमत देने के लिए यह व्यवस्था लागू की गई है। पश्चिम बंगाल में भोजन का अधिकार अभियान से जुड़ी कार्यकर्ता अनुराधा तलवार का कहना है कि गेहूं की जगह आयरन युक्त आटा दिया जाता है। लोग गेहूं की जगह आटे को प्राथमिकता देते हैं। उत्पाद की गुणवत्ता भी एक समस्या है। कई बार जो आटा दिया जाता है, उसके इस्तेमाल की तारीख निकल चुकी होती है। दूसरी ओर उच्चतम न्यायालय ने खाद्य सुरक्षा के तहत एक आदेश जारी किया था कि बाजरे जैसे मोटे अनाज को पीडीएस में शामिल किया जाना चाहिए। किन्तु केवल कर्नाटक ने रागी और ज्वार को राज्य पीडीएस में शामिल करके प्रायोगिक परियोजना चलाई थी। मैसर्स स्वामीनाथन अनुसंधान फाउंडेशन ने 2017 में कर्नाटक की बाजरे से संबंधित प्रायोगिक परियोजना पर अध्ययन किया था।
इस अध्ययन से पता चलता कि किसानों को इससे लाभ हुआ व स्थानीय स्तर पर ज्वार और बाजरे की मांग भी थी क्योंकि ये लोगों के भोजन का हिस्सा था। लेकिन अध्ययन के दौरान यह पता चला कि इनकी खेती के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भूमि में कमी आई और नकदी फसलों की खेती को प्राथमिकता दी गई। तब सरकार ने बाजरे की कीमत बढ़ाई और इसके मुख्य प्रतिद्वंद्वी मक्के व कपास की कीमतों में कमी की। भोजन का अधिकार अभियान का हिस्सा रहे नीलैय्या कहते हैं, पिछले आठ महीने से बाजरा बंद हो गया है, अब केवल चावल दिया जा रहा है।
जहां तक विदेशों में इस प्रकार की योजना का सवाल है तो मोजांबिक में एक प्रायोगिक परियोजना शुरू की गई है। यह परियोजना 10 जिलों के 12 स्कूलों में शुरू की गई थी। इस परियोजना का लक्ष्य खाद्य सुरक्षा को बढ़ाने और छोटे किसानों को लाभ पहुंचाने के लिए पूर्व-प्राथमिक और प्राथमिक बच्चों पर जोर देना था। खाद्य और कृषि संगठन ने प्रायोगिक परियोजना पर एक अध्ययन किया था। इस अध्ययन में नीतिगत रूपरेखा व कानूनी मामलों पर ध्यान दिया गया। किन्तु प्रायोगिक परियोजना में बहुत कमियां थीं। संस्थागत खाद्य खरीद कार्यक्रम ने प्रायोगिक परियोजना की कुछ आलोचना की। ब्राजील की बात करें तो वहां की सरकार ने एक कानून लागू किया, जिसमें यह कहा गया था कि स्कूलों के खाद्य कार्यक्रम के लिए की जाने वाली खरीद का 30 प्रतिशत छोटे किसानों से खरीदा जाएगा। वर्तमान में यह विकेन्द्रीकृत खरीद के लिए एक मिसाल बनी हुई है।