जाड़े के मौसम में हिमालय से आने वाले एक फल का मुझे बेसब्री से इंतजार रहता है। साल के पहले दो महीनों के दौरान दिल्ली की सब्जी मंडियों में एक बड़े आकार के नीबू जैसे खट्टे फल, गलगल (सिट्रस स्यूडोलिमोन या पहाड़ी नीबू) को देखा जा सकता है। मोटे छिलके वाले इस खट्टे फल का इस्तेमाल हरी मिर्च के साथ अचार बनाने में किया जाता है। यह कच्चा अचार होता है और जल्दी खराब हो जाता है, इसलिए एक से दो सप्ताह के लिए ही मेरे भोजन का अनिवार्य हिस्सा बन पाता है। इसके अचार में फल के गूदे की खटास और छिलके की कड़वाहट रहती है, जिससे चावल और दाल का स्वाद बेमिसाल बन जाता है।
इस साल फरवरी में जब मैं इसका अचार बना रही थी, तभी खबर आई कि उत्तराखंड के चमोली जिले में एवलांच के कारण भीषण बाढ़ आ गई है। इस बाढ़ ने बांध समेत अपने रास्ते में आने वाली सभी चीजों को नष्ट कर दिया। गलगल इस इलाके में पाया जाता है। संभवत: गलगल के पेड़ भी बाढ़ की चपेट में आ गए होंगे। नागपुर स्थित नेशनल रिसर्च सेंटर फॉर सिट्रस के अनुसार, चमोली देश के उन गिने-चुने स्थानों में से है, जहां खट्टे फलों की एक जबरदस्त अानुवांशिक विविधता पाई जाती है। भारत में खट्टे फलों की करीब 27 प्रजातियां पाई जाती हैं। वैसे तो इनमें से ज्यादातर, लगभग 23 पूर्वोत्तर में पाई जाती हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड सहित हिमालय के उत्तर-पश्चिमी तलहटी में गलगल अधिक पाया जाता है। आम और सेब के साथ उत्तराखंड में उगाई जाने वाली शीर्ष तीन बागवानी फसलों में सिट्रस फल जैसे माल्टा, नीबू, लाइम और गलगल आदि शामिल हैं। हालंकि इनके उत्पादन के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
विकास परियोजनाओं के लिए अक्सर गलगल जैसे जंगली पेड़ों को काट दिया जाता है क्योंकि इनके महत्व का कोई आकलन नहीं किया गया है। बांधों के निर्माण से पहले बनाई गई पर्यावरणीय प्रभाव आकलन रिपोर्ट में भी गलगल वृक्षों पर होने वाले प्रभावों का कोई उल्लेख नहीं किया जाता। चमोली बाढ़ के दौरान गलगल के पेड़ों के नुकसान का कोई जायजा नहीं लिया गया होगा। लेकिन फल पर प्रतिकूल प्रभाव महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत सिट्रस फलों की उत्पत्ति का केंद्र है। नीबू के पेड़ों को जलवायु परिवर्तन और रोगों से बचाने के लिए गलगल जैसे जंगली प्रजाति के पेड़ों का संरक्षण महत्वपूर्ण है।
इन फलों में ऐसे जीन हैं, जिन्हें क्रॉस-ब्रीडिंग के माध्यम से व्यावसायिक किस्मों में स्थापित किया जा सकता है। गलगल की उपज भी अधिक होती है। यह सिट्रस कैंकर (खट्टे फलों में लगने वाला रोग) टॉलरेंट भी है और तापमान भिन्नता के लिए भी अनुकूलित है। यह 40 डिग्री सेल्सियस की गर्मी से लेकर 4 डिग्री सेल्सियस की सर्दी तक में जीवित रह सकता है। पहाड़ी नीबू की प्राकृतिक विविधता का अध्ययन करने के लिए 2012-13 में हिमाचल प्रदेश के यशवंत िसंह परमार विश्वविद्यालय और दिल्ली के नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज के शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन किया। अपने अनुसंधान में उन्होंने पाया कि गलगल में एक साथ फूल और फल लगने का अनूठा गुण है। यह गुण पेड़ को पूरे साल उत्पादन का मौका प्रदान करता है।
इस फल के अन्य फायदे भी हैं। गलगल की खेती शायद ही कभी की जाती है। यह जंगल से इकठ्ठा किया जाता है, इसलिए हम कह सकते हैं कि यह जैविक है। लेकिन दिल्ली में इसे खरीदना महंगा है, क्योंकि यह आमतौर पर बाजारों में नहीं मिलता। अचार बनाने के लिए (रेसिपी देखें) मैंने 20-20 रुपए के दो गलगल खरीदे। इस भाव पर भी गलगल खरीदकर अचार बनाना सस्ता है क्योंकि पारंपरिक सामानों का एक लोकप्रिय ऑनलाइन विक्रेता गलगल, अदरक, मिर्च के अचार के 450 ग्राम पैक के लिए 549 रुपए वसूलता है।
उत्तराखंड में गलगल के रसदार गूदे का उपयोग सलाद में भी किया जाता है। इसे सरसों के पत्तों की चटनी, नमक और गुड़ के साथ मिलाया जाता है। गलगल के स्वाद को बढ़ाने के लिए इसे सरसों के तेल के धुएं में भी रखा जाता है। हिमाचल प्रदेश में लोग इस फल के रस को “चुख” बनाने के लिए गाढ़ा करते हैं और जब ताजा फल उपलब्ध नहीं होता, तब इसका उपयोग करते हैं। यशवंत सिंह परमार यूनिवर्सिटी ऑफ हॉर्टिकल्चर एंड फॉरेस्ट्री के शोधकर्ताओं ने पाया है कि इसके रस में 20 ग्राम नमक प्रति लीटर मिलाने और फिर 20 मिलीलीटर सरसों तेल के साथ स्टोर करने पर इसे करीब 10 महीने तक आराम से इस्तेमाल किया जा सकता है। यह प्रक्रिया स्वाद, रंग और सुगंध को बनाए रखने में मदद करती है।
आधुनिक अनुसंधान ने भी गलगल के छिलके को उपयोगी बताया है। यह फल के वजन का 25-35 प्रतिशत है और पेक्टिन का एक समृद्ध स्रोत है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में यह इस्तेमाल होता है। हरियाणा में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के फार्मास्युटिकल साइंसेज इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं ने पाया है कि गलगल की पत्तियां में एंटीऑक्सिडेंट और मधुमेह रोधी गुण होते हैं। उन्होंने पाया है कि चूहों में इसके प्रयोग से हाई फास्टिंग शुगर लेवल, लिपिड लेवल और ऑक्सीडेटिव तनाव कम होता है।
खाने में गलगल का विकल्प भले ही मिल जाए, लेकिन इसके सांस्कृतिक मूल्य का विकल्प नहीं है। हिमाचल प्रदेश में गलगल त्योहारों का एक हिस्सा है। वहां के “सैर” नामक त्योहार में इसका इस्तेमाल होता है, जो देवताओं को अच्छी फसल के लिए धन्यवाद देने के लिए मनाया जाता है। कांगड़ा जिले में परंपरा के अनुसार, गांव का नाई गलगल को एक टोकरी में रखकर घर-घर जाता है और लोग टोकरी के आगे सिर झुकाकर भविष्य में बेहतर फसल के लिए प्रार्थना करते हैं। संकट के दौर से गुजर रहे हिमालयी राज्यों को इसकी सख्त जरूरत भी है।
व्यंजन : गलगल और हरी मिर्च का अचार
सामग्री:
विधि: गलगल और हरी मिर्च को अच्छे से धो लें। इसे एक सूती कपड़े में लपेटें और रात भर सूखने दें। गलगल को छोटे टुकड़ों में काट लें और हरी मिर्च को लम्बाई में काट लें। मसालों को गलगल और मिर्च के टुकड़ों के साथ अच्छी तरह मिलाएं और पर्याप्त सरसों तेल में मिला दें। एक साफ और सूखे कांच के जार में इसे डाल दें। थोड़ा और सरसों तेल डालें और अच्छी तरह मिलाने के लिए जार को हिलाएं। बोतल को लगभग तीन से पांच दिनों तक धूप में रखें। इसके बाद, अचार खाने के लिए तैयार है।