मध्यप्रदेश में उठाये जा रहे कदमों की दिशा
दो दशक से ज्यादा हो गए हैं, जब से मध्यप्रदेश सबसे ज्यादा बच्चों में मौजूद कुपोषण की ऊंची दर के कारण बार-बार चर्चा में आ जाता है। वर्ष 2001 से राज्य में कुपोषण 12 बार सबसे ज्यादा बहस का विषय बना। वर्ष 2001-02 में मध्यप्रदेश के शिवपुरी-श्योपुर जिलों में 23 बच्चों की कुपोषण के कारण मृत्यु हुई थी। भारत सरकार द्वारा संचालित किये जाने वाले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2005-06) से पता चला कि मध्यप्रदेश में 60 प्रतिशत बच्चे कम वजन के और 50 प्रतिशत बच्चे ठिगनेपन के शिकार हैं।
इसके बाद वर्ष 2004-06 में पुनः इन्हीं जिलों के साथ खंडवा जिले में 39 बच्चों की मृत्यु दर्ज हुई। वर्ष 2007-09 में सतना के दो विकासखंडों में 27 बच्चों की मृत्यु हुई। इसके बाद झाबुआ में, रीवा में, सिंगरौली में, बड़वानी जैसे जिलों में भी कुपोषण के बच्चों के मृत्यु दर्ज हुई। ये सभी बच्चे अनुसूचित जाति और जनजाति समुदायों से सम्बन्ध रखते थे। कुपोषण को समाप्त करने के लिए यह वैज्ञनिक मांग स्थापित हुई कि इन बच्चों को आंगनवाड़ी केंद्र के माध्यम से अंडे प्रदान किये जाएँ, जो कि प्रोटीन और सूक्ष्म पोषक तत्वों का अच्छा स्रोत है, लेकिन धार्मिक भावनाओं की धार ने बच्चों के पोषण के मूलभूत अधिकार की डोर को काट दिया।
वर्ष 2016 में पुनः श्योपुर में 160 बच्चों की मृत्यु हुई. तब आयकर विभाग ने पोषण आहार बनाने वाली कम्पनियों की जांच पड़ताल की। शुरू में तो पता चला कि बहुत गंभीर कदाचरण हुआ है, लेकिन अंतिम निष्कर्ष का कुछ पता नहीं चला। आखिर यह उन बच्चों का मामला जो था, जो भूख और कुपोषण के साथ जी रहे थे। फिर यह साबित हुआ कि मध्यप्रदेश में पोषण आहार कार्यक्रम के हक धारक तो बस पोषण आहार का उत्पादन और वितरण करने वाली कम्पनियां हैं, जिन्हें सालाना पोषण आहार के व्यापार से प्रत्यक्ष रूप से 250 करोड़ रुपये का लाभ हो रहा था, लेकिन इसके बाद भी व्यवस्था की गैर-जवाबदेहिता के चलते, केवल 65 प्रतिशत पोषण आहार ही बच्चों तक पहुंच रहा था।
मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने 2 फरवरी 2018 में अपने एक अंतरिम आदेश में साफ-साफ टिप्पणी की कि मध्यप्रदेश में पोषण आहार से मुनाफा कमानी वाली कंपनियों से सरकार में सांठ-गांठ है। सरकार द्वारा पोषण आहार से मुनाफा अर्जित करने वाली कंपनियों को व्यवस्था से अलग नहीं किया जा रहा है, बल्कि उन्हें बनाए रखने की हर संभव कोशिश की जा रही है।
इन सालों में 1397 बच्चों की कुपोषण से मौत साबित करने वाले अध्ययन हुए, लेकिन शासन व्यवस्था ने अपनी रिपोर्टों से साबित कर दिया कि उन बच्चों का कोई वजूद था ही नहीं. राज्य के महालेखाकार के अध्ययन से एक बार फिर यह बात सामने आई है कि मध्यप्रदेश शासन के पोषण आहार पर बच्चों का कोई हक ही नहीं है।
यह इतिहास बताने का मकसद सिर्फ इतना सा है कि मध्यप्रदेश में कुपोषण की स्थिति गंभीर रही है, बच्चों का जीवन कुपोषण के कारण संकट में रहा है, लेकिन शासन व्यवस्था बच्चों के प्रति जवाबदेय और संवेदनशील नहीं है। 18 सालों से यह मांग की जा रही है कि राज्य में पोषण आहार के कार्यक्रम के लिए पर्याप्त बजट आवंटित किया जाना चाहिए, लेकिन जिस वक्त 12-15 ग्राम प्रोटीन और 500 कैलोरी के लिए कम से कम 16 रुपये की आवश्यकता है, वहां यह आवंटन केवल 8 रुपये है. मध्यप्रदेश में चार बार समाज के सबसे प्रभावशाली समूहों के दबाव में पोषण आहार कार्यक्रम में अण्डों को शामिल करने से रोका गया, लेकिन पोषण आहार में जब-जब भ्रष्टाचार की बात उभरी, तब-तब शाकाहारी राजनीतिक समुदाय मौन हो गया. कितना अजब विरोधाभास है कि सबसे उच्चतम नैतिक सिद्धांतों का पालन करने वाले समुदायों ने बच्चों की कुपोषण से मृत्यु और पोषण आहार में भ्रष्टाचार पर एक बार भी कोई प्रश्न नहीं पूछा!
जिस तरह के कुपोषण की स्थिति मध्यप्रदेश में रही है, उसका बहुत सीधा जुड़ाव राज्य में शिशु और बाल मृत्यु दर के साथ भी स्थापित होता है. राज्य की बाल मृत्यु दर और प्रदेश में होने वाले सभी जीवित जन्मों की संख्या के आंकलन से यह समझ आता है कि मध्यप्रदेश में इक्कीसवीं सदी के पहले 22 सालों में लगभग 3.96 करोड़ जीवित जन्म हुए हैं, और अगर औसतन और बाल मृत्यु दर लगभग 70 प्रति हजार जीवित जन्म रही है। इस मान से 27.72 लाख बच्चों की मृत्यु पांच साल से कम उम्र में हुई है, जिनमें से लगभग 10 प्रतिशत में अतिगंभीर तीव्र कुपोषण मृत्यु का एक प्रत्यक्ष कारण रहा है, लेकिन इसके मूल कारणों का विश्लेषण करके बच्चों के गरिमामय जीवन के मूल अधिकार को सुनिश्चित करने के बजाये, कुपोषण को प्रचार के एक अवसर के रूप में तब्दील कर दिया गया।
सरकार की दृष्टि से हालात क्या हैं?
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (5) के मुताबिक मध्यप्रदेश में 19 प्रतिशत बच्चे अल्प पोषित (मध्यम कुपोषित) और 6.5 प्रतिशत बच्चे अति गंभीर तीव्र कुपोषित हैं. लेकिन धरातल पर की जाने वाली माप जोख कोई और ही कहानी बयान करती है। राज्य में कितने बच्चे कुपोषित हैं, इसी में असमंजस की स्थिति है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (5) के अनुसार मध्यप्रदेश में 19 प्रतिशत बच्चे अल्प पोषित (लम्बाई के अनुसार कम वजन) हैं, लेकिन महिला एवं बाल विकास विभाग के अनुसार केवल 3.93 प्रतिशत बच्चे की कुपोषित हैं।
मध्यप्रदेश सरकार द्वारा जून 2022 में की गई वृद्धि निगरानी में 60.46 लाख बच्चों में से महज 2.008 लाख बच्चे (3.32 प्रतिशत) ही मध्यम कुपोषित पाए गए और केवल 36580 बच्चे (0.60 प्रतिशत) ही अति गंभीर तीव्र कुपोषित हैं। इसी क्रम में हम देख सकते हैं कि लगभग 12 लाख मध्यम कुपोषित बच्चों में से 10 लाख बच्चों की वास्तविक पोषण स्थिति को जांचा ही नहीं जा सका है। अति गंभीर कुपोषण एक आपदा है।
लगभग 3.60 लाख बच्चे इस श्रेणी में हैं, लेकिन 90 प्रतिशत अति गंभीर कुपोषित बच्चे नजर से ओझल हैं। राज्य की रिपोर्ट को अगर स्वीकार कर लिया जाए, तो मध्यप्रदेश अब एक कुपोषण मुक्त प्रदेश माना जाएगा, क्योंकि 5 प्रतिशत से कम होने पर कुपोषण को नगण्य ही माना जाता है.।
जमीनी हालात क्या हैं?
यह अध्ययन 15 सितम्बर 2022 को किया गया है। मध्यप्रदेश के रीवा संभाग की एक आंगनवाडी की यह वास्तविकता है। इसमें हम गाँव और आंगनवाड़ी केंद्र के नाम का उल्लेख नहीं कर रहे हैं, क्योंकि इससे बस प्रताड़ना का दौर भर शुरू होता है, बदलाव का नहीं। इस आंगनवाड़ी केंद्र में 6 माह से 36 माह आयु के 62 बच्चे दर्ज हैं। जिन्हें नियमानुसार हर महीने पोषण आहार (टेक होम राशन) के 4-4 पैकेट मिलना चाहिए, लेकिन इस केंद्र पर 45 प्रतिशत पोषण आहार कम पहुंचा।
जनवरी से अगस्त 2022 की अवधि में यहाँ 1984 पैकेट पोषण आहार मिलना चाहिए था, लेकिन वास्तव में 1080 पैकेट ही पहुंचाया गया. फरवरी, मार्च और अप्रैल महीने तो ऐसे रहे, जिनमें एक पैकेट भी पोषण आहार वहां नहीं पहुंचा। यह बस एक बानगी है। ऐसी स्थिति मध्यप्रदेश में सर्वव्यापी है।
मध्यप्रदेश में कुपोषण की स्थिति और राज्य व्यवस्था की भूमिका से यह तो साफ हो ही जाता है कि पोषण सुरक्षा और कुपोषण से मुक्ति नीति से ज्यादा नियत और नैतिकता का विषय है. बजट आवंटन में कमी, पोषण आहार की आपोर्र्ती में कमी, खराब गुणवत्ता, पोषण स्थिति में निगरानी में लापरवाही और जानकारियों-आंकड़ों को सार्वजनिक पटल से हटाये जाने की पहल; ये सब साबित करते हैं कि मध्यप्रदेश में कुपोषण का खेल खेला जा रहा है, जिसमें निजी और शासन व्यवस्था खिलाड़ी हैं और बच्चे खिलौने।
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