प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक 
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भारत में 11.8 करोड़ बच्चों को स्कूल में मिल रहा है पोषण, चार सालों में 30 फीसदी बढ़ा आंकड़ा: रिपोर्ट

‘स्टेट ऑफ स्कूल फीडिंग’ रिपोर्ट में खुलासा दुनिया भर में मिड-डे मील जैसी योजनाएं न सिर्फ बच्चों को पोषण दे रही हैं, बल्कि कृषि, रोजगार और स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी सहारा दे रही हैं

Lalit Maurya

  • भारत में स्कूलों में पोषण आहार पाने वाले बच्चों की संख्या 2020 से 2024 के बीच 30 फीसदी बढ़कर 11.8 करोड़ हो गई है।

  • यह जानकारी संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में सामने आई है, जो बताती है कि स्कूलों में दिया जाने वाला भोजन अब सिर्फ पोषण का जरिया नहीं, बल्कि समानता, शिक्षा और विकास का इंजन बन चुका है।

  • रिपोर्ट में जो वैश्विक आंकड़े साझा किए हैं उनके मुताबिक 2020 के बाद से दुनिया में 8 करोड़ अतिरिक्त बच्चे सरकारी स्कूल आहार कार्यक्रमों से जुड़ चुके हैं।

  • अब कुल मिलाकर 46.6 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जिन्हें स्कूलों में भोजन मिल रहा है, यानी सिर्फ चार साल में इस आंकड़े में 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।

  • अफ्रीका इस बदलाव में सबसे आगे है, जहां केन्या, मेडागास्कर, इथियोपिया और रवांडा जैसे देशों में करीब दो करोड़ नए बच्चे राष्ट्रीय स्कूल आहार कार्यक्रमों से जुड़े हैं।

  • रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि स्कूलों में मिलें वाला भोजन सिर्फ बच्चों को स्कूल में बनाए नहीं रखता, बल्कि उनकी सीखने और समझने की क्षमता को भी बढ़ाता है।

  • स्कूल में भोजन से जुड़े कार्यक्रम गणित और भाषा जैसे विषयों में प्रदर्शन को सुधारने का सस्ता और असरदार तरीका हैं, जो कई पारंपरिक शिक्षा सुधारों से बेहतर नतीजे दे रहे हैं।

भारत में 11.8 करोड़ बच्चों को स्कूलों में मुफ्त पोषक आहार मिल रहा है। वहीं पिछले चार वर्षों में देखें तो इस योजना से लाभान्वित होने वाले बच्चों की संख्या में 30 फीसदी से अधिक का इजाफा हुआ है।

यह जानकारी संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्ल्यूएफपी) द्वारा जारी नई रिपोर्ट “द स्टेट ऑफ स्कूल फीडिंग वर्ल्डवाइड” में सामने आई है। रिपोर्ट में साझा आंकड़ों के मुताबिक 2020 के दौरान भारत में जहां 9.04 करोड़ बच्चों को स्कूल में आहार उपलब्ध कराया गया, वहीं 2024 में यह आंकड़ा बढ़कर 11.8 करोड़ पर पहुंच गया।

देखा जाए तो स्कूलों में दिया जाने वाला भोजन अब सिर्फ पोषण का जरिया नहीं, बल्कि समानता, शिक्षा और विकास का इंजन बन चुका है। इसे अब एक मानव अधिकार के रूप में देखा जा रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने इस दिशा में अग्रणी भूमिका निभाते हुए स्कूलों में बच्चों को भोजन उपलब्ध कराना, शिक्षा देने वालों की कानूनी जिम्मेदारी बना दिया है।

रिपोर्ट में जो वैश्विक आंकड़े साझा किए हैं उनके मुताबिक 2020 के बाद से दुनिया में 8 करोड़ अतिरिक्त बच्चे सरकारी स्कूल आहार कार्यक्रमों से जुड़ चुके हैं। अब कुल मिलाकर 46.6 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जिन्हें स्कूलों में भोजन मिल रहा है, यानी सिर्फ चार साल में इस आंकड़े में 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।

इस दिशा में सबसे बड़ी प्रगति उन देशों में दर्ज की गई है जहां सबसे ज्यादा जरूरत है। उदाहरण के लिए कमजोर देशों में पिछले दो वर्षों में स्कूलों में पोषण पाने वाले बच्चों की गिनती में 60 फीसदी की वृद्धि हुई है। अफ्रीका इस बदलाव में सबसे आगे है, जहां केन्या, मेडागास्कर, इथियोपिया और रवांडा जैसे देशों में करीब दो करोड़ नए बच्चे राष्ट्रीय स्कूल आहार कार्यक्रमों से जुड़े हैं।

स्कूलों का भोजन: सिर्फ पोषण नहीं, विकास की ताकत

रिपोर्ट के मुताबिक पुख्ता सबूत बताते हैं कि स्कूलों में मिलने वाले भोजन से जुड़े यह कार्यक्रम न केवल बच्चों के पोषण और सेहत के लिए जरूरी हैं, बल्कि ये छोटे किसानों की आय को बढ़ाने के साथ-साथ स्थानीय रोजगार पैदा करने, पर्यावरण अनुकूल भोजन को बढ़ावा देने और कार्बन उत्सर्जन को घटाने में भी मददगार हैं।

डब्ल्यूएफपी की कार्यकारी निदेशक सिंडी मैककेन का इस बारे में कहना है, “स्कूल में मिलने वाला भोजन सिर्फ एक पौष्टिक थाली नहीं है। यह कमजोर और जरूरतमंद बच्चों के लिए गरीबी से बाहर निकलने और शिक्षा व अवसरों की नई दुनिया में कदम रखने का रास्ता भी है।“

उनके मुताबिक दुनिया भर की सरकारें साबित कर रही हैं कि यह कार्यक्रम आने वाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक भविष्य के लिए सबसे समझदार और सस्ती निवेश नीति है। रिपोर्ट बताती है कि इस पहल की अगुवाई अब खुद सरकारें कर रही हैं। 2020 से 2024 के बीच इन कार्यकर्मों पर किया जाने वाला वैश्विक निवेश दोगुना होकर 43 अरब डॉलर से बढ़कर 84 अरब डॉलर पर पहुंच गया है।

इसमें से 99 फीसदी धन अब देशों के अपने बजट से आ रहा है। यह दर्शाता है कि अब स्कूलों में मिलने वाले भोजन को विदेशी मदद नहीं, बल्कि राष्ट्रीय विकास को आगे बढ़ाने वाली एक सशक्त नीति के रूप में देखा जा रहा है। हालांकि, आर्थिक रूप से कमजोर देशों में घरेलू निवेश अभी भी सीमित है, जबकि जरूरत सबसे ज्यादा वहीं है।

रिपोर्ट के मुताबिक, बच्चों को स्कूलों में भोजन मुहैया कराने से जुड़े कार्यक्रमों में सबसे तेज बढ़त उन देशों में हुई है जो ‘स्कूल मील्स कोएलिशन’ का हिस्सा हैं। यह एक वैश्विक नेटवर्क है जिसमें 100 से अधिक सरकारें, 6 क्षेत्रीय संस्थाएं और 140 से अधिक साझेदार शामिल हैं। अब हर तीन में से दो बच्चे, जिन्हें हाल ही में स्कूलों में भोजन मिलना शुरू हुआ है, इसी गठबंधन के सदस्य देशों से हैं।

सीखने की क्रांति का रास्ता

इस पहल को आधुनिक वैश्विक सहयोग का एक सफल मॉडल माना जा रहा है। इसके प्रयासों से 2020 के बाद राष्ट्रीय स्कूल भोजन नीति वाले देशों की संख्या 56 से बढ़कर 107 हो गई है।

रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि स्कूलों में मिलें वाला भोजन सिर्फ बच्चों को स्कूल में बनाए नहीं रखता, बल्कि उनकी सीखने और समझने की क्षमता को भी बढ़ाता है। नए शोध के मुताबिक, स्कूल में भोजन से जुड़े कार्यक्रम गणित और भाषा जैसे विषयों में प्रदर्शन को सुधारने का सस्ता और असरदार तरीका हैं, जो कई पारंपरिक शिक्षा सुधारों से बेहतर नतीजे दे रहे हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक यह कार्यक्रम दुनिया का सबसे बड़ा सामाजिक सुरक्षा जाल भी हैं, जो जलवायु संकट, महामारी या युद्ध जैसी आपदाओं में बच्चों तक मदद पहुंचाते हैं।

देखा जाए तो यह कार्यक्रम एक सामाजिक सुरक्षा कवच की तरह काम करते हैं, जो किसी भी संकट चाहे वह सूखा हो, आर्थिक झटका हो या अन्य आपदा के दौरान बच्चों को भूख से बचाने में मदद करता है।

भारत का मिड-डे मील कार्यक्रम बना उदाहरण

भारत का मिड-डे मील कार्यक्रम इसका सशक्त उदाहरण है। शोध से पता चला है कि इस योजना ने सूखे के समय बच्चों में पोषण की कमी के प्रभाव को काफी हद तक सीमित कर दिया। यह दिखाता है कि स्कूलो में मिलने वाला भोजन संकट के दौर में भी बच्चों को आवश्यक पोषण से जोड़कर खाद्य असुरक्षा से बचाव की एक मजबूत ढाल बन सकता है।

रिपोर्ट से यह भी पता चला है कि इन कार्यक्रमों पर हर एक डॉलर के निवेश पर वापस सात से 35 डॉलर तक का आर्थिक फायदा मिलता है। इनका फायदा एक साथ कई क्षेत्रों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा और कृषि में दिखता है।

स्कूलों में बच्चों को भोजन उपलब्ध कराना स्थानीय रोजगार को बढ़ाने का एक मजबूत जरिया भी है। दुनियाभर में 46.6 करोड़ बच्चों तक भोजन पहुंचाने से करीब 74 लाख लोगों को रसोई से जुड़ा रोजगार मिला है। इसके अलावा परिवहन, कृषि और आपूर्ति श्रृंखला से जुड़े कामों में भी लाखों नए रोजगार पैदा हुए हैं।

इतना ही नहीं स्थानीय स्तर पर उगाए भोजन (होम-ग्रोन स्कूल फीडिंग) से स्थानीय अर्थव्यवस्था और पर्यावरण दोनों को फायदा होता है। शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में इन योजनाओं का फायदा बच्चियों को अधिक मिलता है। इसके साथ ही महिलाओं को भी रोजगार के नए अवसर मिलते हैं।