खान-पान

हरे रेगिस्तान का सूखा सच

सीमा के उस पार सिंध में अब भी खेत-खलिहान के साथ ज्यादा छेड़खानी नहीं की गई है

DTE Staff

यशवंत कुमार, अनूपगढ़, राजस्थान
भारत-पाक विभाजन दोनों देश का सबसे बड़ा दुखद हादसा था। विभाजन ने दोनों मुल्कों के लोगों को अपनी जड़ों से दूर होने के लिए मजबूर किया। हमारे दादा-दादी ने भी सिंध के अपने जन्म स्थान को छोड़ा और भारत के भूगोल में आकर बस गए थे। तब से लेकर एक लंबा वक्त गुजर गया है।

सात दशकों ने हमारी पीढ़ियों को बदला। भाषा तो अभी भी हम वही बोलते हैं जो हमारे दादा-दादी बोलते थे। यहां तक कि पहनने-ओढ़ने और खान-पान के तरीके भी बहुत नहीं बदले हैं। आप अगर सरहद के उस पार भी चले जाएंगे तो दस्तरखान पर पड़ी थाली यह महसूस नहीं होने देगी कि आपका देश बदल गया है। लेकिन एक फर्क महसूस होगा।

वहां की थाली में अब भी सहज रूप से मोटे अनाज की प्रधानता है। वहां स्वास्थ्य क्रांति के नाम पर मोटे अनाज पर बड़ी कंपनियों का कब्जा नहीं हुआ है और वो ढाई सौ ग्राम के महंगे पैकेटों में नहीं मिलते हैं।

देश बंटने के बाद कुछ बदला है तो बस हमारे आसपास की आबोहवा। सीमा के उस पार सिंध में अब भी खेत-खलिहान के साथ ज्यादा छेड़खानी नहीं की गई है। जबकि वह इलाका हमारे यहां से केवल डेढ़ सौ किलोमीटर ही दूर है। लेकिन वहां की थाली में अब भी मक्का-ज्वार भोजन का आधार बना हुआ है।

हमारे इलाके में तो सब कुछ बदल गया है। मुझे याद है, जब मैं छोटा था तो दादी मक्के की घी चुपड़ी रोटी कपड़े में लपेट कर मेरे बस्ते में डाल देती थी और यही हमारा सुबह का नाश्ता से लेकर दोपहर का भोजन तक होता था। लेकिन हमारे इलाके में विकास की एक ऐसी आंधी आई कि हम रेगिस्तान में अब गन्ना उगा रहे हैं और खेतों में ही गुड़ तक बनाकर बेच रहे हैं।

आज हमारे रेगिस्तान को “ग्रीन डेजर्ट” कहा जाता है। सरकारें इसका श्रेय अपने खाते में डालती रही हैं। हां, अब बदला यह है कि हमारे छोटे से कस्बे में बीमारों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। वह भी कोई ऐसी-वैसी नहीं लाइलाज कैंसर जैसी बीमारी तेजी से बढ़ी हैं। जिस रेगिस्तान में पानी की एक-एक बूंद की कीमत होती है वहां आज नहर बह रही है। वे सारी फसलें उगाई जा रही हैं जो अब तक केवल हरियाणा-पंजाब के मालिकाना हक सरीखा होता था। सत्तर के दशक तक तो हमारे किसान अपने खेतों में खाद के नाम पर साल भर इकट्ठा किए गए घूरे के ढेर को तोड़कर डाल देते थे।

अब हालत यह है कि हम और अधिक पैदावार के लिए एक ही फसल में तीन-तीन बार यूरिया डालकर भी संतोष नहीं कर पा रहे हैं। अब थाली में कहने के लिए केवल लस्सी और मक्के की रोटी या उसका चूरमा नहीं है। अब तो थाली कटोरियों से भर जाती है, लेकिन शरीर भी बीमारियों का घर बन चुका है। यही कारण है कि हम जितना कमाते नहीं हैं उससे अधिक गवां देते हैं अपने शरीर को खोखला करके। अभी मैं देखता हूं कि मेरे दादा जी अपने जीते जी सेहत की दिक्कतों से नहीं जूझते थे।

मुझे याद नहीं कि कभी कोई वैद्य दादाजी का इलाज करने के लिए घर आया हो। यही हाल मेरे पिताजी का भी है। दादा और पिता की तुलना में हमारी थाली ज्यादा भरी-पूरी लगती है। हमें लगता है कि हम अपने बच्चों के लिए पौष्टिक खाने का इंतजाम कर सकते हैं। लेकिन थाली में सिर्फ खाने की संख्या में इजाफा हुआ है।

गिनती में बढ़े खानों ने सेहत से जुड़ी दिक्कतें बढ़ा दी हैं। हमारे बच्चे आज थाली में पड़े खाने की कैलोरी के बारे में बता सकते हैं। लेकिन इन खानों से उनके शरीर को वैसी सकारात्मक ऊर्जा नहीं मिलती जितनी मोटे अनाज की थाली से मिल जाती थी। आज भी हमारे बहुत से नाते-रिश्तेदार पाकिस्तान में हैं। उनकी और हमारी यह साझा चिंता है कि हम खाने को खा रहे या खाना हमें खा रहा। यह हरे रेगिस्तान का सूखा सच है।