खान-पान

झारखंड में मिड डे मील में प्याज, लहसुन, अंडा बंद, केंद्रीकृत किचन व्यवस्था पर उठे सवाल

मिड डे मील की जिम्मेवारी इस्कॉन की संस्था को सौंपी गई है। खाद्य सुरक्षा जन अधिकार मंच, पश्चिमी सिंहभूम ने जिले के चार प्रखंडों इसका सर्वेक्षण किया

DTE Staff

झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के चार प्रखंडों के सभी सरकारी विद्यालयों में मध्याह्न भोजन (मिड डे मील) के लिए लागू केंद्रीकृत किचन व्यवस्था फेल रही है। स्कूली बच्चे इस व्यवस्था से त्रस्त हो गए हैं और पुरानी मध्याह्न भोजन व्यवस्था को फिर से लागू करने की मांग कर रहे हैं। खाद्य सुरक्षा जन अधिकार मंच, पश्चिमी सिंहभूम द्वारा किए गए सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है। 

यह रिपोर्ट 17 दिसम्बर 2023 को जारी की गई। इस मौके पर जन चर्चा का भी आयोजन किया गया। कार्यक्रम में चारों प्रखंड से अनेक अभिभावक, बच्चे, रसोईया व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया व अपने अनुभव रखे। जन चर्चा में शिक्षा विभाग के मध्याह्न भोजन के नोडल पदाधिकारी एवं राज्य के कई सामाजिक कार्यकर्ता भाग लिए।

जिले के चार प्रखंड सादर, झिंकपानी, खुंटपानी, तांतनगर के 370 सरकारी विद्यालयों (अधिकांश ग्रामीण क्षेत्र में हैं) में जनवरी-अप्रैल 2023 से मध्याह्न भोजन में केंद्रीकृत किचन व्यवस्था लागू की गई है। 

यह किचन अन्नामृत फाउंडेशन द्वारा चलाए जा रहे हैं, जो इस्कॉन मंदिर की संस्था है। चाईबासा में केंद्रीकृत किचन की स्थापना टाटा स्टील व जिला प्रशासन के सहयोग से की गई है, जिसमें खाना बनकर गाड़ी के माध्यम से विद्यालयों में भेजा जाता है।

केंद्रीकृत किचन से मिल रहे मध्याह्न भोजन की व्यवस्था को समझने के लिए मंच द्वारा सितंबर  व नवम्बर 2023 में चारों प्रखंडों के 23 पंचायतों के 42 विद्यालयों में सर्वेक्षण किया गया। सर्वेक्षण के दौरान विद्यालय के छात्रों, शिक्षकों व रसोईयाओं से विस्तृत चर्चा की गई।

सर्वेक्षण के नतीजे चौकाने वाले रहे। सभी 42 विद्यालयों के छात्रों ने कहा कि पहले जो विद्यालय में ही रसोईये द्वारा मध्याह्न भोजन बनता था, वह सेंट्रल किचन से मिल रहे भोजन से बेहतर था। 92 प्रतिशत विद्यालयों के शिक्षकों ने भी कहा कि विद्यालयों में ही बन रहे भोजन की गुणवत्ता व स्वाद सेंट्रल किचन के भोजन से बेहतर था। साथ ही, 90 प्रतिशत विद्यालयों के शिक्षकों ने यह भी कहा कि अभी की तुलना में बच्चे पहले ज्यादा खाते थे, जब विद्यालय में ही खाना बनता था। 

अब खराब गुणवत्ता और स्वाद पसंद ना आने के कारण बच्चों द्वारा भोजन फेंकना आम बात हो गयी है। सर्वेक्षण के दौरान भी कई विद्यालयों में बच्चे मध्याह्न भोजन फेंकते दिखे। अधिकांश विद्यालयों के शिक्षकों ने स्वीकार किया कि पहले जब विद्यालय में ही भोजन बनता था, वे खुद भी वह खाना खाते थे। लेकिन अब वे अपना टिफिन लाते हैं।

सर्वेक्षण के दौरान बच्चो ने कहा कि पहले विद्यालय में भोजन बनता था, जो गर्म, ताजा और स्वादिष्ट होता था। हरी साग-सब्जी भी मिलती थी। रोज दाल मिलती थी, लेकिन सेंट्रल किचन के खाने में एक अजीब महक रहती है। स्वाद घर के खाने से बिलकुल अलग होता है। 

सर्दी में खाना जल्दी ठंडा हो जाता है। हरा साग कभी नहीं मिलता है। सब्जी में केवल आलू-पटल रहता है, जिसके बड़े-बड़े टुकड़े रहते हैं, जो कभी-कभी पूरा सीझते भी नहीं हैं। कई बार चावल लस-लस (बासी) हो जाते हैं। दाल पानी-जैसी  रहती  है और कई बार तो पूरी उबली भी नहीं होती। कई बार दाल खट्टी भी हो जाती है।

सर्वेक्षण के दौरान अधिकांश शिक्षकों और रसोईयों ने ऐसी ही टिप्पणियां की। उनका कहना था कि चूंकि खाना बिना प्याज, लहसुन और स्थानीय पसंद अनुरूप मसाले के बिना मशीन में बनता है और ताजा नहीं मिलता है, इसलिए स्वाद सही नहीं होता है और खराब हो जाता है। 

बच्चों, शिक्षकों व रसोइयाओं ने कहा कि गर्मी के मौसम में भोजन (चावल / दाल) अक्सर खराब हो जाता था, जिसके कारण बच्चे खा नहीं पा रहे थे। जब विद्यालय में ही मध्याह्न भोजन बनाता था, तब शिक्षक व ग्रामीण उसकी निगरानी कर सकते थे। लेकिन अब शिक्षकों और ग्रामीणों का सेंट्रल किचन से आ रहे भोजन की गुणवत्ता और स्वाद की समस्या पर किसी प्रकार का हस्तक्षेप संभव नहीं है।

यह भी बात सामने आई कि केंद्रीकृत किचन व्यवस्था लागू होने के बाद लगभग एक चौथाई सर्वेक्षित विद्यालयों में बच्चों को नियमित रूप से दो अंडा प्रति सप्ताह मिलना बंद हो गया है। अन्नामृत फाउंडेशन खाने में अंडे नहीं देती है। अंडे के पैसे अभी भी विद्यालय को भेजे जाते हैं। जबकि अब विद्यालय में भोजन नहीं बनता है व अंडा पकाने के लिए अलग से पैसा नहीं दिया जाता है, अनेक विद्यालयों में बच्चों को अंडा नहीं मिलता है।

केंद्रीकृत किचन व्यवस्था से स्थानीय आजीविका पर भी बुरा असर पड़ा है। पहले गांव व स्थानीय हाट से ही किसानों से मौसम के अनुसार साग-सब्जी खरीद के विद्यालय में मध्याह्न भोजन बनाया जाता था, लेकिन सेंट्रल किचन व्यवस्था लागू होने के बाद यह बंद हो गया है। 

रसोइयाओं का कई महीनों का भुगतान बकाया है। सर्वेक्षण के दौरान रसोइयाओं ने इस डर को साझा किया कि केंद्रीकृत किचन के कारण आने वाले दिनों में रसोइयाओं, जो गांव के सबसे वंचित वर्ग से होते हैं, की नौकरी समाप्त हो सकती है।

झारखंड विधानसभा के 2023 के मॉनसून सत्र में मझगांव विधायक निरल पूर्ति ने केंद्रीकृत किचन से मिल रहे खराब भोजन और बच्चों द्वारा न खाने पर विधान सभा में सवाल उठाया था। विभाग ने कहा था कि अगर सुधार नहीं हुआ तो केंद्रीकृत किचन के संचालन में बदलाव किया जाएगा। 

जन चर्चा में सर्वेक्षण की बातों को सुनने के बाद विशेष वक्ताओं ने अपनी बता रखा। मुखिया संघ के अध्यक्ष हरिन तमसोय ने कहा कि विभागीय पदाधिकारियों को भी केंद्रीकृत किचन से ही खाना चाहिए। नरेगा सहायता केंद्र, लोहरदगा के सनयारी उरांव ने कहा कि लोहरदगा में भी अन्नामृता फाउंडेशन द्वारा केंद्रीकृत किचन में ऐसी ही समस्याएं है। 

झारखंड नरेगा वॉच के राज्य सयोजक जेम्स हेरेंज ने कहा  कि मध्याह्न भोजन गरीबों के लिए भीख नहीं है, बल्कि संविधान से निकला हुआ अधिकार है। आदिवासी बच्चों को जबरदस्ती खराब खाना खिलाना संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है।  

पोषण शोधकर्ता दीपक तुबिद ने कहा कि बच्चों के पोषण के लिए प्रोटीन, जिसका आदिवासी क्षेत्रों में प्रमुख स्रोत मांस मछली है, बहुत जरूरत है, लेकिन अभी मध्याह्न भोजन में यह पर्याप्त नहीं मिलता है। 

भोजन का अधिकार अभियान बलराम ने कहा कि अन्नमृत फाउंडेशन द्वारा मध्याह्न भोजन में प्याज, लहसन व अंडा न देना इस्कॉन के खास धार्मिक विचार से प्रेरित है। बच्चों पर कोई खास धार्मिक सोच थोपना व इन खाद्य पदार्थों से वंचित करना संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है। 

कार्यक्रम का संचालन कमला देवी व नारायण कांडेयांग ने किया। सर्वेकर्ता अशोक मुंडरी, डोबरो बारी, हेलेन सूँडी, जयंती मेलगंडी,  मानकी तुबिड, नरेश पूर्ति, रमेश जेराई, सिराज दत्ता व सिदियु कायम समेत मंच के कई कार्यकर्ताओं ने बात रखी।