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सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बाहर हुए नौ करोड़ से ज्यादा लोग: रिपोर्ट

Shagun

खाद्य असुरक्षा को सामने लाने वाली नागरिकों की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में पात्रता रखने वाले नौ करोड़ से ज्यादा लोग कानूनी तौर पर लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (यानी टारगेटेड पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम, टीडीपीएस) से बाहर हो गए हैं। यह रिपोर्ट, राष्ट्रीय जनतात्रिंक गठबंधन (एनडीए) के दूसरे कार्यकाल के तीन साल पूरे होने के मौके पर 26 मई को जारी की गई।

टीडीपीएस के अंतर्गत इससे मिलने वाले लाभ की पात्रता देने में जिस तरह से लोगों को ‘चिन्हित’ करने को आधार बनाया जाता है, वह हमेशा से इस योजना पर असर  डालता रहा है। ‘वादे और वास्तविकता’ (प्रॉमिसेस एंड रियलिटी) शीर्षक वाली रिपोर्ट के मुताबिक, देश में खाद्य असुरक्षा को कम करने वाली यह एक महत्वपूर्ण योजना है लेकिन इसके लाभार्थियों की पहचान करने में आने वाली जटिलताएं लगातार इस पूरी योजना के प्रभाव को कम करती रही हैं। रिपोर्ट को वादा न तोड़ो अभियान (डब्ल्यूएनटीए) ने जारी किया है, जो 2005 में सिविल सोसाइटी संगठनों ने इस मकसद से तैयार किया था कि सरकार के दावों और उसकी प्रतिबद्धताओं पर नजर रखी जा सके।

टीडीपीएस के अंतर्गत कितने लोगों केा लाभ मिलेगा, इसके लिए सरकार के पास आकड़ों का सा्रेत, 2011 की जनगणना है। इसका नतीजा यह है कि 2011 के बाद से बीते एक के बाद एक सालों में पात्र लोगों का बड़ा हिस्सा इस योजना से बाहर होता चला जा रहा है। रिपोर्ट बताती है कि योजना में कानूनी तौर पर शामिल इस खामी के चलते कम से कम 12 फीसदी आबादी बिल्कुल वैधानिक तरीके से इसका पात्र बनने की प्रक्रिया से बाहर हो गई है।

रिपोर्ट के आंकड़े के मुताबिक, 2021 की अनुमानित आबादी के हिसाब से नौ करोड़ से ज्यादा लोग सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे से बाहर हो गए हैं।

इसके अलावा नेशनल फूड सिक्यॉरिटी एक्ट (एनएफएसए) 2013 के तहत टीडीपीएस के लिए प्राथमिकता वाले परिवारों की पहचान करने के बजाय ज्यादातर राज्य अपने आप, इस योजना में अकेले रहने महिला, संवेदनशील समूहों, ट्रांसजेंडर्स, और दिव्यांगों को शामिल नहीं करते। उन लोगों को भी इसमें नहीं जोड़ा जाता, जो लंबे समय से इस योजना के पात्र बनने से रह गए हैं। राजस्थान, सिक्किम, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों ने उपरोक्त जनसंख्या समूहों में से किसी का अपने आप योजना के पात्र लोगों में नाम नहीं जोड़ा है। यहां तक कि ज्यादातर राज्यों ने इसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लाभार्थियों का नाम भी इसमें अपने आप नहीं शामिल नहीं किया है।

मई 2021 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा था। उसने केंद्र, राज्यों और केंद्र प्रशासित क्षेत्रों को यह सुनिश्चित करने के लिए नोटिस जारी किया था कि पीएमजीकेवाई (प्रधान मंत्री गरीब कल्याण योजना-जिसका मकसद महामारी के बाद गरीब परिवारों को मुफ्त खाद्यान्न उपलब्ध कराना है) का कोई भी लाभार्थी कोविड-19 महामारी के दौरान बायोमीट्रिक प्रमाणीकरण समस्याओं के कारण भोजन के अधिकार से वंचित नहीं रहे।

रिपोर्ट ने कुपोषण को लेकर डालबर्ग एडवाइजर्स और कांतार पब्लिक, बर्नार्ड वैन लीयर फाउंडेशन, पोर्टिकस, एचिडना गिविंग, और डालबर्ग द्वारा वित्त पोषित व नीति आयोग के तकनीकी समर्थन से हाल ही में किए गए अध्ययन का हवाला दिया। इसमें पाया गया है कि महामारी के बाद से देश के लगभग तीस लाख बच्चे कमजोर हो गए हैं। उनमें नौ महीनों के बाद बौनेपन और वृद्धि में रुकावट जैसे लक्षण दिखने लगेंगे। आनुपातिक रूप से ज्यादा बच्चों पर भी इसका असर पड़ सकता है।

पांचवें दौर के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में भी पता चला था कि छह से 23 महीने की शुरुआती उम्र के 89 फीसदी बच्चों को ‘न्यूनतम स्वीकार्य आहार’ भी नहीं मिल पाता। इसके अलावा आबादी के सभी समूहों (चाहे वे पांच साल से कम उम्र के बच्चे हों, किशोर उम्र की लड़कियां और गर्भवती महिलाएं हों) में एनीमिया यानी खून की कमी के मामले बढ़ रहे हैं। 2015-16 में किए गए पिछले सर्वेक्षण में 58.6 फीसदी की तुलना में 2019-21 के सर्वेक्षण में कम से कम 67 फीसदी बच्चों (6-59 महीने) में एनीमिया पाया गया।

इसी तरह 15 से 49 की उम्र-समूह के बालिगों में 25 फीसदी पुरुष और 57 फीसदी महिलाएं एनीमिया की शिकार हैं। महिलाओं में इसका फैलाव 2015-16 के 53 फीसदी से बढ़कर 2019-21 में 57 फीसदी हो गया है जबकि पुरुषों में यह 23 फीसदी से बढ़कर 25 फीसदी हो गया है।

प्रॉमिसेस एंड रियलिटी रिपोर्ट इस पर भी प्रकाश डालती है कि ज्यादातर राज्यों के खाद्य आयोग, वित्तीय स्वायत्तता के संकट का सामना कर रही हैं। इसके साथ ही राज्य सरकारें इस दिशा में जिला शिकायत निवारण अधिकारियों (डीजीआरओ) को नामित करने और सतर्कता समितियों के गठन से आगे नहीं बढ़ी हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, ‘अभी तक, किसी भी राज्य सरकार ने सतर्कता समितियों के सदस्यों, या वैधानिक तौर पर गठित किसी अन्य एजेंसी अथवा अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण आयोजित करने के लिए कोई पहल नहीं की है।’